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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 17
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते । सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒३॒॑ कपृ॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । सः । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसे॒दुषः॑ । वि॒ऽजृम्भ॑ते । सः । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्या॑ । कपृ॑त् । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या३ कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । सः । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुषः । विऽजृम्भते । सः । इत् । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्या । कपृत् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 17
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे उत्तरध्रुव ! तू खगोल के पिण्डों में मानो अपना घोष करता है (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार पिण्डों को आन्दोलित करने का (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही गृहस्थभाव को प्राप्त है (यस्य कपृत्) जिसका सुख देनेवाला अङ्ग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों सांथलों जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता है (स-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थ कर्म पर अधिकार करता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला अङ्ग विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह गृहस्थ कर्म पर अधिकार नहीं करता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर सांथलों-जङ्घाओं के बीच में सुखदायक अङ्ग विजृम्भित होता है, वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार करता है ॥१५-१७॥

    भावार्थ

    रोमवाले अङ्ग का फड़फड़ाना सुखप्रद अङ्ग का सांथलों-योनिमध्य में अवलम्बित होना गृहस्थकर्म पर अधिकार कराता है ॥१५-१७॥

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    विषय

    जीवात्मा की प्रभु को प्राप्ति।

    भावार्थ

    (नि-षेदुषः) नीचे वा उच्चासन पर बैठे हुए (यस्य) जिसका, (रोमशं) लोमों से युक्त जवानी का चेहरा भी (विजम्भते) केवल जंभाई लेता है, जो आलस्य, निन्द्रा-तन्द्रा में समय व्यतीत करता है, (न सः ईशे) वह कभी शासन नहीं कर सकता। (सः इत् ईशे) वह समस्त जगत् पर शासन करता, सब का स्वामी होता है (यस्य) जिसका (सक्थ्या अन्तरा) सक्थि अर्थात् बाहुओं वा शक्तिशाली, समवाय बनाने वाली दोनों सेनाओं के बीच (क-पृत्) कपाल, उन्नत सिर (रम्बते) अन्यों को दृढ़ आज्ञा देता है, वही (इन्द्रः) सबका स्वामी, शत्रु और दुष्टों का नाशक सेनापति वा राजा (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से उत्कृष्ट और शत्रुओं के ऊपर रह कर उनका नाशक करने वाला होता है। रबिर्भाषार्थः, भ्वादि रात्मनेभाषः। रबिर्गत्यर्थो भ्वादिः परस्मैपदी। रम्बते-शब्दयति, भाषते। अथवा—(न सा ईशे) वह भूमि, ईश्वर वा सूर्यवत् स्वतन्त्र नहीं (यस्य रोमशं) जिसका लोम के समान ओषधि वनस्पति वर्ग (विजृम्भते) नाना प्रकार से उगता है। (सः इत् ईशे) वह ही सूर्य सब पर शासन करता है, (यस्य) जिसके भृत्य के तुल्य (क-पृत्) जल से विश्व को पूर्ण करने और पालने वाला मेघ (सक्थ्या अन्तरा) परस्पर सम्मिलित आकाश और भूमि दोनों के बीच (रंबते) लटकता वा गर्जना करता है। (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) जलों को देने और मेघों को विदारण करने वाला वा तेजस्वी सूर्य ही सब से उत्कृष्ट है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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    विषय

    ज्ञान व ध्यान

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र की भावना को ही क्रम बदलकर कहते हैं कि (न स ईशे) = वह ही ईश नहीं है, (निषेदुषः) = आचार्य चरणों में नम्रता से बैठनेवाले (यस्य) = जिसका (रोमशम्) = [सामानि यस्य लोमानि] साम मन्त्रों में निवास करनेवाला मन (विजृम्भते) = ज्ञान के दृष्टिकोण से अधिकाधिक विकसित होता चलता है । (स इत्) = वह भी (ईशे) = ईश है (यस्य) = जिसका (सक्थि) = प्रभु से मेलवाला (कपृत्) = परिणामतः अपने में आनन्द को भरनेवाला मन (अन्तरा) = अन्दर ही आरम्बते स्थिर होता है, अन्तःस्थित हुआ हुआ मन प्रभु का आश्रय करता है और अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = ये प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं । [२] ज्ञान से वासनाओं को विदग्ध करके तो मनुष्य बनता ही है, ईश बनने के लिये ध्यान भी उतना ही सहायक है। ध्यान से मनुष्य मन को वशीभूत करके सम्पूर्ण संसार के आनन्दों को उस प्रभु प्राप्ति के आनन्द की तुलना में तुच्छ समझने लगता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- जहाँ ज्ञान मनुष्य को विषयों के सात्त्विक रूप का दर्शन कराके उनसे ऊपर उठाता है, वहाँ ध्यान भी प्रभु प्राप्ति के आनन्द को देकर वैषयिक आनन्द को तुच्छ कर देता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वृषभः-न-तिग्मशृङ्गः) यथा तीक्ष्णशृङ्गो वृषभः (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहेषु खल्वन्तर्वर्त्तमानः सन् भृशं शब्दयति तथा (इन्द्र) हे उत्तरध्रुव ! त्वं भृशं वद (ते मन्थः) तव मन्थनं व्यापारः (हृदे शम्) हृदयाय कल्याणकारी भवतु (ते यं भावयुः सुनोति) आत्मभावमिच्छन्तीन्द्राणी तुभ्यं पुत्रं सुनोति जनयति (न सः-ईशे) न हि सः “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] इति सुलुक् पुनः सन्धिः “इष्टं गार्हस्थ्यमधिकरोति” (यस्य कपृत्) यस्य सुखं पृणाति ददाति यत्तदङ्गम् “पृणाति दानकर्मा” [निघ० ३।२०] क पूर्वकात् पृ धातो क्विपि रूपं तुक् च (सक्थ्या-अन्तरा रम्बते) सक्थिनी अन्तरा लम्बते (सः-इत्-ईशे) स एव गार्हस्थ्यमधिकरोति (यस्य निषेदुषः) यस्य निषदतो निकटं शयानस्य (रोमशं विजृम्भते) रोमशमङ्गं विजृम्भणं करोति विशिष्टं गात्रविनाम करोति (न सः-ईशे) न हि स खलु गार्हस्थ्यमधिकरोति (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) यस्य निकटं श्यानस्य रोमशमङ्गं गात्रविनाम करोति (स-इत्-ईशे) स एव गार्हस्थ्यमधिकरोति (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-रम्बते) यस्य निकटं शयानस्य सक्थिनी अन्तरा सुखदायकमङ्गं लम्बते रोमशाङ्गस्य विजृम्भणं सुखप्रदाङ्गस्य योनौ लम्बनञ्च ॥१५-१७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That person whose radiant mind in a state of peace and freedom blossoms and expands in spiritual wakefulness does not rule the world of Prakrti. The master that rules the world of Prakrti is the power whose ecstatic presence in peace and sovereignty pervades in and over space and time. Indra is supreme over all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    रोम असणारे अंग फडफडणे, सुखदायक अंग योनीमध्ये अवलंबित होणे, हेच गृहस्थधर्मावर अधिकार करविते. ॥१५-१७॥

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