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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒यमे॑मि वि॒चाक॑शद्विचि॒न्वन्दास॒मार्य॑म् । पिबा॑मि पाक॒सुत्व॑नो॒ऽभि धीर॑मचाकशं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ए॒मि॒ । वि॒ऽचाक॑शत् । वि॒ऽचि॒न्वन् । दास॑म् । आर्य॑म् । पिबा॑मि । पा॒क॒ऽसुत्व॑नः । अ॒भि । धीर॑म् । अ॒चा॒क॒श॒म् । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् । पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । एमि । विऽचाकशत् । विऽचिन्वन् । दासम् । आर्यम् । पिबामि । पाकऽसुत्वनः । अभि । धीरम् । अचाकशम् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 19
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विचाकशत्) विशेषरूप से प्रकाशमान हुआ (दासम्-आर्यं-विचिन्वन्) दक्षिणगोलार्द्ध और उत्तरगोलार्द्ध को पृथक्-पृथक् करता हुआ वसन्तसमाप्त पर (अयम्-एमि) यह मैं सूर्य आता हूँ (पाकसुत्वनः पिबामि) पकने योग्य ओषधियों में रस देनेवाले चन्द्रमा को पीता हूँ अपनी किरणों से, कृष्णपक्ष में अपने में लीन करता हूँ (धीरम्-अभि-अचाकशम्) पुनः धीवाले-कर्मवाले कर्मप्रद- यज्ञकर्मसूचक चन्द्रमा को फिर प्रकाशित करता हूँ किरणों से शुक्लपक्ष में ॥१९॥

    भावार्थ

    सर्वसूर्य ग्रहण से मुक्त होकर प्रकाशमान हुआ वसन्तसमाप्त पर दक्षिण से दक्षिणगोलार्ध और उत्तरगोलार्ध को पृथक्-पृथक् करता हुआ तथा कृष्णपक्ष में चन्द्रमा को अपने ओर छिपा लेता है, शुक्लपक्ष में पुनः प्रकाशित कर देता है ॥१९॥

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    विषय

    देह-बन्धन की जंगल से उपमा।

    भावार्थ

    (अयम्) यह मैं (विचाकशत्) विशेष रूप से दर्शन या साक्षात् करता हुआ, और (दासम्) दानशील, (आर्यम्) श्रेष्ठ जन को वा (दासम्) प्रजा के नाशक दुष्ट वर्ग को और (आर्यम्) प्रजा के पालक श्रेष्ठ स्वामी वर्ग को (विचिन्वत्) विवेकपूर्वक न्यायाधीश के समान पृथक् २ करता हुआ (एमि) प्राप्त होता हूं। और (पाक-सुत्वनः) पाक द्वारा यज्ञ करने वाले, वा परिपक्व, दृढ़ मन से ईश्वर की उपासना करने वालों को और (धीरम्) अन्यों को धारण योग्य सत्-ज्ञान, बुद्धि और सत्-कर्म में प्रेरणा करने वाले की मैं (अभि पिबामि) सब प्रकार से रक्षा करता हूं। (इन्द्रः) वह परमैश्वर्यवान् प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तरः) सबसे अधिक उत्कृष्ट है। अध्यात्म में—(२) मैं आत्मा, उपासक (विचिन्वत्) विशेष रूप से परमेश्वर की खोज लगाता हुआ (विचाकशत्) विशेष रूप से उसका साक्षात् करता हुआ उस (दासं) सब सुखों के दाता और (आर्यम्) सर्वश्रेष्ठ स्वामियों के भी स्वामी परमेश्वर को (एमि) प्राप्त होऊं। (पाक-सुत्वनः) परिपाक या कर्म फलों के स्वामी, उस प्रभु के दिये फल का ही (पिबामि) उपभोग करूं। और (धीरम्) हमारी बुद्धियों और कर्मों को प्रेरणा करने वाले उसको ही (अभि चाकशम्) साक्षात् करता हूं कि (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) वह परमेश्वर ही सबसे उत्कृष्ट है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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    विषय

    दास व आर्य का विवेक

    पदार्थ

    [१] वृषाकपि कहता है कि (अयम्) = यह मैं (विचाकशत्) = [कश् to sound] प्रभु के नामों का उच्चारण [जप] करता हुआ (एमि) = आता हूँ, अपने कार्यों में प्रवृत्त होता हूँ। मैं अपने जीवन में (दासम्) = [दसु उपक्षये] नाशक वृत्ति को तथा (आर्यम्) = श्रेष्ठ वृत्ति को (विचिन्वन्) = विविक्त करता हुआ गति करता हूँ । दास वृत्तियों को छोड़ता हुआ आर्य वृत्तियों को अपनाता हूँ। [२] (पाकसुत्वनः) = जीवन के परिपाक के लिये उत्पन्न किये गये सोम का [पाकाय सुतस्य] (पिबामि) = मैं पान करता हूँ । इस सोम को शरीर में ही व्याप्त करने से सब शक्तियों का सुन्दर परिपाक होता है । इस परिपाक से मैं (धीरम्) = उस ज्ञान देनेवाले प्रभु को (अभि अचाकशम्) = प्रातः - सायं स्तुत करता हूँ कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सारे संसार से अधिक उत्कृष्ट हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम का शरीर में पान होने पर जीवन की शक्तियों का उत्तम परिपाक होता है । यह व्यक्ति ही प्रभु का स्तवन व दर्शन करता है।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विचाकशत्) विशिष्टं प्रकाशमानः “विचाकशत्-विशिष्टतया प्रकाशमानः” [ऋ० १।२४।१० दयानन्दः] (दासम्-आर्यं विचिन्वन्) (दक्षिणगोलार्द्धमुत्तरगोलार्द्धं च विभजन्-पृथक् पृथक् कुर्वन् वसन्तसम्पाते (अयम्-एमि) एषोऽहं सूर्य आगच्छामि (पाकसुत्वनः पिबामि) पाकसुत्वानम् “द्वितीयार्थे षष्ठी व्यत्ययेन” पक्तव्येष्वोषधिषु “पाकः पक्तव्यः” [निरु० ३।१२] यो रसं सुनोत्युत्पादयति तं चन्द्रमसं पिबामि रश्मिभिः कृष्णपक्षे (धीरम्-अभि-अचाकशम्) पुनस्ते धीरं कर्मवन्तं कर्मप्रदं यज्ञकर्मसूचकम् “धीः कर्मनाम” [निघ० २।१] ततो मत्वर्थीयो रः प्रत्ययः, चन्द्रमसं पुनरभिप्रकाशयामि रश्मिभिः शुक्लपक्षे “चाकशीमि प्रकाशयामि” [ऋ० ४।५८।६ दयानन्दः] ॥१९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Perceiving the light of knowledge, building up my score of yajnic action, I come to the omnificent vibrant presence of divinity, and I drink of the nectar of the light and life of purity, eternity and direct realisation of divine communion. Indra is greater than the world of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य, ग्रहण संपल्यावर प्रकाशमान होतो व वसंत संपाताच्या वेळी दक्षिण गोलार्ध व उत्तर गोलार्धाला वेगवेगळे करत कृष्ण पक्षात चंद्राला लपवितो आणि शुक्ल पक्षात पुन्हा प्रकाशित करतो. ॥१९॥

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