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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒वीरा॑मिव॒ माम॒यं श॒रारु॑र॒भि म॑न्यते । उ॒ताहम॑स्मि वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी म॒रुत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒वीरा॑म्ऽइव । माम् । अ॒यम् । श॒रारुः॑ । अ॒भि । म॒न्य॒ते॒ । उ॒त । अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । वी॒रिणी॑ । इन्द्र॑ऽपत्नी । म॒रुत्ऽस॑खा । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते । उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवीराम्ऽइव । माम् । अयम् । शरारुः । अभि । मन्यते । उत । अहम् । अस्मि । वीरिणी । इन्द्रऽपत्नी । मरुत्ऽसखा । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे इन्द्र-उत्तर ध्रुव ! मुझसे श्रेष्ठ ­सुभागवाली सुखप्रद द्रवीभूत प्रजननकर्मकुशल अन्य स्त्री नहीं है। अम्ब-प्रियभाषिणी ! जैसे तू चाहती है, वैसा ही हो सकता है, तेरे मुखादि अङ्ग मुझे हर्षित करते हैं, सुन्दरभुजा हाथ केश जङ्घावाली वीरपत्नी तू हमारे वृषाकपि-सूर्य को नष्ट करना चाहती है, यह पूछता हूँ। हे इन्द्र-उत्तरध्रुवपति ! यह आक्रमणशील मुझे अबला समझता है, मैं इन्द्रपत्नी ध्रुव की पत्नी ध्रुव द्वारा पालित वायुप्रवाह-वायुस्तर मेरे मित्र हैं, उनके द्वारा मैं परिक्रमा करती हूँ, पुरातन काल में जैसे पत्नी यज्ञसमारोह और संग्राम में पति के साथ होती है, वैसे ही मैं भी। अतः विश्व के चालन में मैं यह वीरपत्नी-तेरी पत्नी प्रशस्त कही जाती है। हे प्रिये इन्द्राणि ! मेरी पत्नी, मैं भी नारियों में तुझको अच्छी सुनता हूँ तथा मैं तेरा पति जरावस्था से नहीं मरता हूँ ॥६-११॥

    भावार्थ

    गृहस्थ में पति-पत्नी शुभावसर पर और संग्रामसमय साथ रहते हैं। ज्योतिर्विद्या में उत्तरध्रुव के आधार पर व्योमकक्षा रहती है, वह मरुत् स्तरों आकाशीय वातसूत्रों द्वारा गति करती है ॥६-११॥

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    विषय

    जीव, प्रकृति और प्रभु के पारस्परिक सम्बन्ध।

    भावार्थ

    (अयं शरारुः) यह सब विघ्न-बाधाओं को नाश करने वाला आत्मा (माम्) मुझ प्रकृति को (अवीराम् इव) विशेष ईरण अर्थात् प्रेरक शक्ति, चेतना से रहित जड़ ही (अभि मन्यते) मानता है। यह बात ठीक है कि मैं प्रकृति जड़ ही हूं स्वयं प्रेरक नहीं हूँ तो भी (अहं वीरिणी अस्मि) मैं अपने को प्रेरणा देने वाले अन्य कर्त्ता वाली, वीर पुरुष को वरने वाली स्त्री के तुल्य हूँ। मैं (इन्द्र-पत्नी) उस महान् ऐश्वर्यवान् परमेश्वर को पति, विश्वपालक रूप से धारण करती हूँ। और (मरुत्-सखा) मैं विश्व को सञ्चालन करने वाले, वायुवत् शक्तिशाली अनेक बलों को बन्धन से युक्त करने वाली, शक्ति सम्पन्न हूं। और वह (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् प्रभु (सर्वस्मात् उत्तरः) सब से वा मरणधर्मा जीवों की सखावत् उत्कृष्ट, सब को उत्तम रीति से तारने वाला है। (२) इसी प्रकार घातक दुष्ट पुरुष जो प्रजा का नाश करे डाकू, वा कुस्वामी आक्रामक ‘शरारु’ है। वह प्रजा को अवीरा, वीर पुरुष से रहित, अरक्षित जानकर प्रजा को पीड़ित करता है परन्तु उसे जानना चाहिये कि प्रजा के बीच वीर पुरुष ही उस प्रजा के वीर पुत्रों, पालकों के तुल्य हैं। इन्द्र राजा वा बलाध्यक्ष, धनाध्यक्ष लोग उस प्रजा के स्वामी होते हैं। वह राजा वा सेनापति हो सब से उत्कृष्ट है जो प्रजा को संकट से पार करे। (३) इसी प्रकार दुष्ट पुरुष स्त्री को अवीर, पुत्र वा पति से रहित जान पीड़ित करते हैं। इसलिये स्त्री को चाहिये कि वह सदा अपने पुत्र वा पति की रक्षा प्राप्त करे। वह वीर पुरुष की पत्नी हो, जो सब से उत्कृष्ट हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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    विषय

    प्रकृति अवीरा नहीं

    पदार्थ

    [१] 'प्रकृति इतनी आकर्षक है और फिर भी वृषाकपि उससे आकृष्ट नहीं हुआ' यह देखकर प्रकृति क्रुध - सी होती है और कहती है कि (अयं शरारु:) = यह सब वासनाओं का संहार करनेवाला [ प्रकृति की दृष्टि में शरारती] (माम्) = मुझे (अवीरां इव अभिमन्यते) = अवीर-सा मानता है। मैं अवीर थोड़े ही हूँ (उत अहम्) = निश्चय से मैं तो (वीरिणी अस्मि) = उत्कृष्ट वीर पुत्रवाली हूँ । (इन्द्रपत्नी) = इन्द्र की पत्नी हूँ, (मरुत् सखा) = ये मरुत्-प्राण मेरे मित्र हैं और यह तो सब कोई जानता ही है कि मेरा पति (इन्द्रः) = इन्द्र (विश्वस्मात् उत्तरः) = सबसे उत्कृष्ट हैं। ऐसी स्थिति में यह वृषाकपि मेरा निरादर करे' यह कैसे सहन हो सकता है ? [२] यहाँ 'इन्द्रपत्नी' कहकर प्रकृति स्वयं अपने पक्ष को शिथिल कर लेती है । वृषाकपि उसे इन्द्रपत्नी जानकर ही तो अपनी माता के रूप में देखता है । 'मरुत् सखा' शब्द भी बड़ा महत्त्व रखता है। इन मरुतों प्राणों ने ही उसे वासनात्मक जगत् से ऊपर उठाकर इस आकर्षण में फँसने से बचाया है। एवं इन्द्राणी के मित्र ही वृषाकपि को वृषाकपि बनाते हैं । प्रकृति वीरिणी है, प्रकृति का पुत्र वृषाकपि भी वीर बनता है और प्रलोभन में फँसने से बचता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रकृति वीर है। उसका पुत्र वृषाकपि वीर बनकर प्रकृति का सच्चा आदर करता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! उत्तरध्रुव ! मत्तः श्रेष्ठा सुभगा सुखप्रदा द्रवीभूता प्रजननकर्मकुशलान्यास्त्री नास्ति, अम्ब ! प्रियभाषिणी ! यथा त्वमिच्छसि तथैव भवितुमर्हति, तव मुखादीन्यङ्गानि मां हर्षयन्ति, हे सुन्दरभुजहस्तकेशजङ्घावति ! वीरपत्नि ! त्वमस्माकं वृषाकपिं किमर्थं हन्तुमिच्छसीति पृच्छामि। हे इन्द्रपते ! अयं शरारुराक्रमणशीलो मामबलां मन्यतेऽपि त्वहमिन्द्रपत्नी मरुतो वायुप्रवाहाः-मम सखायः सन्ति, वायुप्रवाहैः परिक्राम्यामि, पुराकालेऽपि यथा पत्नी यज्ञसम्मेलने सङ्ग्रामे च पत्या सह भवति तथा ह्यहमपि खल्वस्मि, अत एव विश्वस्य चालनेऽहमेषा वीरिणी तव पत्नी प्रशस्ता कथ्यते, इन्द्रवचनम्−हे प्रिये ! इन्द्राणि ! अहमपि नारीषु त्वामिन्द्राणीं सुभगां शृणोमि तथाऽस्यास्तवेन्द्राण्याः पतिरहं जरावस्थया न म्रिये ॥६-११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This naughty thinks of me as naught, bereft of the brave, while I am blest with heroes, and I am the creative consort of Indra and friend of the Maruts, stormy troops of the winds of nature.$Indra is supreme over all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पती-पत्नी हे गृहस्थाश्रमात शुभसमयी व युद्धाच्या समयी एकत्र राहतात. ज्योतिर्विद्येमध्ये उत्तर ध्रुवाच्या आधारे व्योमकक्षा असते. ती मरुत स्तर आकाशीय वातसूत्राद्वारे गती करते. ॥६-११॥

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