ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 21
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
पुन॒रेहि॑ वृषाकपे सुवि॒ता क॑ल्पयावहै । य ए॒ष स्व॑प्न॒नंश॒नोऽस्त॒मेषि॑ प॒था पुन॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठपुनः॑ । आ । इ॒हि॒ । वृ॒षा॒क॒पे॒ । सु॒वि॒ता । क॒ल्प॒या॒व॒है॒ । यः । ए॒षः । स्व॒प्न॒ऽनंश॑नः । अस्त॑म् । एषि॑ । प॒था । पुनः॑ । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै । य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठपुनः । आ । इहि । वृषाकपे । सुविता । कल्पयावहै । यः । एषः । स्वप्नऽनंशनः । अस्तम् । एषि । पथा । पुनः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 21
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वृषाकपे) हे सूर्य ! (यः-एषः-स्वप्ननंशनः) जो यह तू निद्रानाशक-जगानेवाला (पथा पुनः) मार्ग से फिर (अस्तम्-एषि) घर को प्राप्त होता है (पुनः-एहि) फिर आ (सुविता कल्पयावहै) हम दोनों उत्तरध्रुव इन्द्राणी व्योमकक्षा तेरे लिये अनुकूल कार्यसम्पादन करते हैं ॥२१॥
भावार्थ
सूर्य उत्तरध्रुव की ओर तथा वसन्तसम्पात की ओर पुनः-पुनः जाया-आया करता है, इससे उत्तरायण और दक्षिणायन ग्रीष्मकाल और शीतकाल बनता रहता है ॥२१॥
विषय
प्रकृति और प्रभु का मिलकर भोग्य जगत् को बनाना।
भावार्थ
हे (वृषाकपे) जीवात्मन् ! हम प्रकृति और परमात्मा दोनों (सुविता कल्ययावहै) तेरे लिये नाना सुखप्रद, कल्याणकारी सुख जनक पदार्थ रचते हैं। तू उनको (पुनः आ इहि) पुनः २ प्राप्त हो। (यः एषः) जो यह तू (स्वप्न-नंशनः) निद्रा में लुप्त हो जाने वाले सुप्त जन के तुल्य (पथा) बाहर के मार्ग से घूम फिर कर पुनः गृह में आने वाले पथिक समान (पथा) ज्ञान मार्ग से पुनः (अस्तम्) शरणवत् प्रभु को प्राप्त होता है, वही (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) सब के से उत्कृष्ट है। अथवा सूर्य के उदय और अस्त के तुल्य ही जीव का मोक्ष में जाना और पुनः वहां से आना होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥
विषय
स्वप्न- नंशन: [ नींद से उठ बैठना ]
पदार्थ
[१] हे (वृषाकपे) = वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले वृषाकपि ! तू (पुनः) = फिर (एहि) = घर में प्राप्त हो। इधर-उधर भटकने की अपेक्षा तू मन को निरुद्ध करके हृदय में आत्मदर्शन करनेवाला हो । प्रभु कहते हैं कि मैं और तू मिलकर (सुविता) = उत्तम कर्मों को (कल्पयावहै) = करनेवाले हों । जीव प्रभु की शक्ति का माध्यम बनें, जीव के माध्यम से प्रभु शक्ति उत्तम कर्मों को सिद्ध करनेवाली हो। [२] जीव इस दुनिया की चमक में अपने कर्त्तव्य को भूल जाता है और अपने लक्ष्य को वह भूला-सा रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वह सो सा गया हो। अब (स्वप्ननंशन:) = इस नींद को समाप्त करनेवाला तू अपने लक्ष्य का स्मरण करता है और (अस्तं एषि) = फिर से घर में आता है। (पुनः) = फिर (पथा) = ठीक मार्ग से चलता हुआ हृदयरूप गृह में प्रभु का दर्शन करता है और अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = यह परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तरः) = सबसे उत्कृष्ट है ।
भावार्थ
भावार्थ - इस संसार में हमें सोये नहीं रह जाना। जागकर लक्ष्य की ओर बढ़ना है। प्रभु की शक्ति का माध्यम बनकर सदा उत्तम कर्मों को करना है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वृषाकपे) हे वृषाकपे सूर्य ! (यः-एषः-स्वप्ननंशनः) य एष त्वं (पथा पुनः-अस्तम्-एषि) निद्रानाशकमार्गेण पुनः-गृहं प्राप्नोषि (पुनः-एहि) पुनरागच्छ (सुविता कल्पयावहै) आवामहमिन्द्र उत्तरध्रुवोऽथेन्द्राणि व्योमकक्षा च तुभ्यं सुवितानि सुगतानि कर्माणि सम्पादयावः ॥२१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vrshakapi, come again and both of us would create good things for your peace and comfort in well being. Thus destroying the state of dream and sleep, this lover of showers and breeze, Vrshakapi comes home by the paths of existence and piety again and again. Indra is supreme over all the world.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्य उत्तर ध्रुवाकडे व वसंत संपाताकडे पुन: पुन: जातो येतो त्यामुळे उत्तरायण व दक्षिणायन ग्रीष्मकाल व शीतकाल निर्माण होतात. ॥२१॥
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