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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यमि॒मं त्वं वृ॒षाक॑पिं प्रि॒यमि॑न्द्राभि॒रक्ष॑सि । श्वा न्व॑स्य जम्भिष॒दपि॒ कर्णे॑ वराह॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । इ॒मम् । त्वम् । वृ॒षाक॑पिम् । प्रि॒यम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि॒ऽरक्ष॑सि । श्वा । नु । अ॒स्य॒ । ज॒म्भि॒ष॒त् । अपि॑ । कर्णे॑ । व॒रा॒ह॒ऽयुः । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि । श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । इमम् । त्वम् । वृषाकपिम् । प्रियम् । इन्द्र । अभिऽरक्षसि । श्वा । नु । अस्य । जम्भिषत् । अपि । कर्णे । वराहऽयुः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    इन्द्राणी का प्रत्युत्तर (इन्द्र त्वम्) हे इन्द्र-उत्तरध्रुव ! तू (यम्-इमं प्रियं वृषाकपिम्) जिस इस अपने सूर्य की (अभिरक्षसि) अभिरक्षा करता है-तरफदारी करता है (कपिः मे प्रिया व्यक्ता) वृषाकपि-सूर्य ने मेरी प्रिया प्रकाशित सब ताराओं को दूषित कर दिया, केवल अपनी योगतारा पर ही स्थिर नहीं रहा, अतः (वराहयुः श्वा) वराह-शूकर को चाहनेवाला कुत्ता-वृक भेड़िया चन्द्रमा (अस्य कर्णे नु) इसके दोनों कान कोण भी अवश्य (जम्भिषत्) ग्रस लेता है (अस्य शिरः-नु राविषम्) इनके शिर को मैं अवश्य काट डालूँ (दुष्कृते न सुगं भुवम्) दुष्कर्मी के लिये मैं कभी सुखदा न होऊँ ॥४-५॥

    भावार्थ

    ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में सूर्य अपनी एक योगतारा रेवती पर स्थिर न रहकर अन्य ताराओं का स्पर्श करता जाता है। व्योमकक्षा की समस्त ताराओं को स्पर्श किया, पुनः क्रमशः ऐसी स्थिति में आता है कि चन्द्रमा इसके कोण को ग्रस लेता है, तो सूर्यग्रहण पड़ जाता है। यह वर्णन आलङ्कारिक ढंग से कहा गया है ॥४-५॥

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    विषय

    रक्षक प्रभु और जीव में देह का बन्धन।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! इस विश्व को बनाने वाले व्यापक प्रभो ! (इमं यं) इस जिस (वृषा-कपिम्) सर्व सुखवर्षी प्रभु की ओर जाने वाले, आनन्द-रसपायी आत्मा जीव की तू (अभि रक्षसि) सब प्रकार से रक्षा करता है, (अस्य कर्णे) इसके कर्म वा इन्द्रिय गण पर (वराहयुः श्वा) उत्तम वचन, स्वाहादिवत् अन्न आहुति को चाहने वाला, आशुगामी, भूख आदि से युक्त देह वा लोभ आदि उसको (जम्भिषत्) पकड़ लेता है। और वह जीव पुनः संसारी हो जाता है। परन्तु (इन्द्रः) वह इन्द्र परमेश्वर (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से ऊंचा और सब प्रकार के संकटों से पार उतारने वाला है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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    विषय

    'वराह' से मेल [ वराहावतार दर्शन ]

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यम्) = जिस (इमम्) = इस (प्रियम्) = अपने कर्मों से आपको प्रीणित करनेवाले अपने हरितत्व और मृगत्व के द्वारा यह प्रभु का प्रिय बनता है । (वृषाकपिम्) = वृषाकपि को (त्वम्) = आप (अभिरक्षसि) = शरीर में रोगों से तथा मन में राग-द्वेष से बचाते हो, (नु) = अब ऐसा होने पर (श्वा) = [ मातरिश्वा] वायु, अर्थात् प्राण (अस्य) = इसके (जम्भिषत्) = सब दोषों को खा जाता है। प्राणसाधना से इसके सब दोष दूर हो जाते हैं। 'प्राणायामैर्दहेद् दोषान्'- प्राणायामों से दोषों को दग्ध कर दे। जैसे 'सत्यभामा' को 'भामा' कहने लगते हैं इसी प्रकार यहाँ 'मातरिश्वा' को 'श्वा' कहा गया है। मातरिश्वा वायु है, अध्यात्म में यह प्राण है। प्राणसाधना से दोष दूर होते ही हैं, मानो प्राण सब दोषों को खा जाते हैं । [२] इतना ही नहीं, (कर्णे) = [कृ विक्षेपे] चित्तवृत्ति के विक्षेप के होने पर यह प्राण (वराहयुः अपि) = [ वरंवरं आहन्ति = प्रापयति] उस श्रेष्ठता को प्राप्त करानेवाले प्रभु से मेल करानेवाले भी हैं। चित्तवृत्ति जब विक्षिप्त हो जाती है उस समय प्राणायाम से इस विक्षेप को दूर करके मन का निरोध होता है और इस प्रकार प्राण हमें उस प्रभु से मिलाते हैं, जो कि 'वराह' हैं, सब वर पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं। ये (इन्द्रः) = प्रभु (विश्वस्मात्: उत्तर:) = सब से उत्कृष्ट हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुरक्षण प्राप्त होने पर प्राणसाधना से हम सब दोषों को दूर करके प्रभु से मेलवाले होते हैं।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    इन्द्राण्याः प्रत्युत्तरम्−(इन्द्र त्वं यम्-इं प्रियं वृषाकपिम्-अभिरक्षसि) हे इन्द्र ! उत्तरध्रुवरूप मम पते ! त्वं यमिमं प्रियं वृषाकपिं सूर्यं परिपालयसि (कपिः-मे प्रिया व्यक्ता तष्टानि व्यदूदुषत्) कपिः वृषाकपिः “पूर्वपदलोपश्छान्दसः” पूर्वपदलोपो द्रष्टव्यः, देवदत्तो दत्तः सत्यभामा भामेति” [महाभाष्य व्या० १।१।१] स्वकीययोगनक्षत्रमेव न स्थितोऽपि तु मम प्रियाणि प्रकाशितानि सम्पन्नानि नक्षत्राणि विदूषितवान् अतः (वराहयुः श्वा-अस्य कर्णे-अपि नु जम्भिषत्) वराहमिच्छुकः श्वा चन्द्रमाः “वृकश्चन्द्रमा भवति” [निरुक्त ५।२०] अस्य कर्णं-कोणं ग्रसितवान् (शिरः नु-अस्य राविषम्) अस्य शिरोऽवश्यं लुनीयाम् (दुष्कृते न सुगं भुवम्) दुष्कर्मिणे न सुखदा भवेयम् ॥४-५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, your darling Vrshakapi whom you protect and favour so much falls a victim to greed which crushes him in its jaws as a hound seizes a boar by the ear.$Indra is supreme over the whole creation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्योतिर्विद्येच्या क्षेत्रात सूर्य एका योगतारा रेवतीवर स्थिर न राहता अन्य ताऱ्यांना स्पर्श करत जातो. व्योमकक्षेच्या संपूर्ण ताऱ्यांना स्पर्श करत पुन्हा क्रमश: अशा स्थितीत येतो, की चंद्र त्याच्या कोनांना गिळतो तेव्हा सूर्यग्रहण होते. हे वर्णन येथे आलंकारिक रीतीने सांगितलेले आहे. ॥४, ५॥

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