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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च देवता - वरुणः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    धन्व॑ च॒ यत्कृ॒न्तत्रं॑ च॒ कति॑ स्वि॒त्ता वि योज॑ना । नेदी॑यसो वृषाक॒पेऽस्त॒मेहि॑ गृ॒हाँ उप॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धन्व॑ । च॒ । यत् । कृ॒न्तत्र॑म् । च॒ । कति॑ । स्वि॒त् । ता । वि । योज॑ना । नेदी॑यसः । वृ॒षा॒क॒पे॒ । अस्त॑म् । आ । इ॒हि॒ । गृ॒हान् । उप॑ । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना । नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहाँ उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धन्व । च । यत् । कृन्तत्रम् । च । कति । स्वित् । ता । वि । योजना । नेदीयसः । वृषाकपे । अस्तम् । आ । इहि । गृहान् । उप । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 20
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृषाकपे) हे सूर्य ! (धन्व च यत् कृन्तत्रं च) चाप-कमान और जो छेदनसाधन शर-बाण (कति स्वित्-ता योजना) किन्हीं योजन-योक्तव्य स्थान हैं (अस्तं वि-आ-इहि) अपने वसन्तसम्पात घर को छोड़ (नेदीयसः-गृहान्-उप०) अत्यन्त निकट के घरों को प्राप्त कर ॥२०॥

    भावार्थ

    सूर्य का वसन्तसम्पात बिन्दु निज स्थान है और ध्रुव का उत्तर में तीन राशि परे है। छः राशियों के चाप को शर-बाण तीन राशि पर चाप में खड़ा होता है। जब उधर दृष्ट होगा, दिखाई पड़ेगा, उत्तरी ध्रुव के पास पहुँचता है ॥२०॥

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    विषय

    अति समीप प्रभु की प्राप्ति का उपदेश।

    भावार्थ

    (ता) वे अनेक (कति स्वित्) योजना आत्मा के साथ योग करने वाले देह हैं वे सब (धन्व च कृन्तत्रं च) मरु भूमि के तुल्य और उच्छेद करने योग्य भयानक जंगल के तुल्य ही हैं। उनमें कभी शान्ति और सुख प्राप्त नहीं हो सकता। हे (वृषाकपे) समस्त सुखों के वर्षाने वाले प्रभु के सुख का पान करने हारे आत्मन् ! तू सब से अधिक (नेदीयसः) समीप विद्यमान परमेश्वर के (अस्तम्) सर्व-दुःखनाशक, शरण को प्राप्त हो। तू उसके ही (गृहान्) ग्रहण करने योग्य शान्तिप्रद गुणों को (उप-इहि) प्राप्त हो। (इन्द्रः) वह परमेश्वर (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से अधिक उत्कृष्ट है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥

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    विषय

    संसार-मरीचिका

    पदार्थ

    [१] यह संसार एक मृगतृष्णा के दृश्य के समान है। (धन्व च) = यह मरुस्थल तो है ही, जैसे मरुस्थल में एक मृग पानी की कल्पना करके प्यास बुझाने के लिये उधर भागता है, परन्तु उस स्थान पर पहुँचने पर वहां पानी को न पाकर रेत को ही पाता है और दूरी पर फिर पानी के दृश्य को देखता है और ऊधर भागता है। इस प्रकार यह मरीचिका उसकी शक्ति को छिन्न-भिन्न करती चलती है, (यत् कृन्तत्रं च) = यह काटनेवाली तो है ही और फिर (ता) = वे मरीचिका के दृश्य (कतिस्वित्) = कितने ही योजना योजनों तक (वि) = [वि तत] विस्तृत हैं। इन योजनों में भागता-भागता वह मृग जैसे मर जाता है, इसी प्रकार मनुष्य के लिये संसार के विषय (धन्व च) = मरुस्थल के समान हैं (च) = और (यत्) = जो (कृन्तत्रम्) = उसकी शक्तियों को छिन्न करनेवाले हैं और (ता) = ये विषय जीवनयात्रा में न जाने (कति स्वित् योजना) = कितने ही योजन चलते-चलते हैं । अन्त में ये मनुष्य को भ्रान्त करके समाप्त कर देते हैं । [२] हे (वृषाकपे) = शक्तिशाली और वासनाओं को कम्पित करनेवाले जीव ! तू इन विषय-मरीचिकाओं में न उलझकर (नेदीयसः) = अपने अत्यन्त समीप निवास करनेवाले प्रभु के (अस्तम्) = गृह को एहि आ । हृदय ही प्रभु का गृह है विषय व्यावृत्त होकर हम अन्तर्मुख यात्रा करते हुए उस हृदय में स्थित होने के लिये यत्नशील हों । (गृहान् उप) = इन प्रभु गृहों के हम समीप रहनेवाले बनें और यह अनुभव करें कि (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तर:) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- संसार की मरीचिका में कोसों भटकते रहने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि हम हृदयरूप गृह में प्रभु का दर्शन करें ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वृषाकपे) हे वृषाकपे-सूर्य ! (धन्व च यत् कृन्तत्रं च) चापश्च “धन्व चापे” [भरतः-वाचस्पत्ये] यत् खलु छेदनसाधनं शरश्च “कृती छेदने” [तुदा०] ‘कृते नुम् च’ [उणा० ३।१०९] (कति स्वित्-ता योजना) कानिचिद्योजनानि योक्तव्यानि स्थानानि सन्ति (अस्तं वि-आ-इहि) स्वगृहं वसन्तसम्पातं त्यज (नेदीयसः-गृहान् उप०) अतिशयेन समीपस्थान् गृहान् खलूप-आ-इहि-उपागच्छ ॥२०॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The desert land, the dead-wood or the dark abyss, whatever, wherever, howsoever many they be, they must be given up. Come closer to your own homes, shelter of the closest divinity. Indra is supreme over all the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वसंत संपात बिंदू हे सूर्याचे निजस्थान आहे व ध्रुवाचे स्थान उत्तरेकडे तीन राशींच्या पलीकडे आहे. सहा राशींच्या धनुष्याचा बाण तीन राशींवर धनुष्यावर उभा असतो. जेव्हा तिकडे दिसेल तेव्हा उत्तर ध्रुवाजवळ पोचतो. ॥२०॥

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