ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 15
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
वृ॒ष॒भो न ति॒ग्मशृ॑ङ्गो॒ऽन्तर्यू॒थेषु॒ रोरु॑वत् । म॒न्थस्त॑ इन्द्र॒ शं हृ॒दे यं ते॑ सु॒नोति॑ भाव॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒ष॒भः । न । ति॒ग्मऽशृ॑ङ्गः । अ॒न्तः । यू॒थेषु॑ । रोरु॑वत् । म॒न्थः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । शम् । हृ॒दे । यम् । ते॒ । सु॒नोति॑ । भा॒व॒युः । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् । मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठवृषभः । न । तिग्मऽशृङ्गः । अन्तः । यूथेषु । रोरुवत् । मन्थः । ते । इन्द्र । शम् । हृदे । यम् । ते । सुनोति । भावयुः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 15
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे उत्तरध्रुव ! तू खगोल के पिण्डों में मानो अपना घोष करता है (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार पिण्डों को आन्दोलित करने का (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही गृहस्थभाव को प्राप्त है (यस्य कपृत्) जिसका सुख देनेवाला अङ्ग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों सांथलों जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता है (स-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थ कर्म पर अधिकार करता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला अङ्ग विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह गृहस्थ कर्म पर अधिकार नहीं करता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर सांथलों-जङ्घाओं के बीच में सुखदायक अङ्ग विजृम्भित होता है, वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार करता है ॥१५-१७॥
भावार्थ
रोमवाले अङ्ग का फड़फड़ाना सुखप्रद अङ्ग का सांथलों-योनिमध्य में अवलम्बित होना गृहस्थकर्म पर अधिकार कराता है ॥१५-१७॥
विषय
इन्द्र, वृषभ, सर्वशासक, सर्वोपास्य प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
(तिग्मशृंगः वृषभः न) तीखे सींगों वाला बड़ा सांड जिस प्रकार (यूथेषु अन्तः रोरुवत्) गौओं के बीच गर्जना किया करता है उसी प्रकार वह आत्मा (वृषभः) बलशाली, अन्तःकरण में आनन्द वर्षण करने और चेतना रूप दीप्ति से चमकने वाला भी भीतरी हृदयाकाश में मेघ के समान (यूथेषु अन्तः) प्राणों के समूहों वा अंग-समूह के बीच (रोरुवत्) गर्जता है, केन्द्रस्थ राजा के तुल्य सब पर शासन करता है, वा अन्तर्नाद करता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो (ते मन्थः) तेरा ध्यान-निर्मन्थन से प्राप्त परमान्द रूप रस (यम्) जिसको (भावयुः) भाव, भक्ति करने और तेरी उपासना करने वाला उपासक (सुनोति) उत्पन्न करता है, वह (हृदे शम्) हृदय को अति शान्तिदायक होता है। अतः एव हे मनुष्यो ! वह (इन्द्रः) सब जगत् और अन्तःकरण को प्रकाशित करने वाला महान् आत्मा (विश्वस्मात् उत्तरः) सब से उत्कृष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च ऋषयः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः- १, ७, ११, १३, १४ १८, २३ पंक्तिः। २, ५ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ६, ९, १०, १२,१५, २०–२२ निचृत् पंक्तिः। ४, ८, १६, १७, १९ विराट् पंक्तिः॥
विषय
तिग्मश्रृंग वृषभ
पदार्थ
[१] वे प्रभु (तिग्मशृंगः वृषभः न) = तेज सींगोंवाले वृषभ के समान हैं। जैसे वृषभ एक मार्ग- विघातक को अपने तेज सींगों के द्वारा दूर कर देता है, उसी प्रकार प्रभु हमारे शत्रुओं को दूर करनेवाले हैं। स्थानान्तर में प्रभु को 'अश्वं न त्वा वारवनां'-बालोंवाले घोड़े से उपमित किया है । घोड़ा पूँछ से जैसे मखियों को दूर हटा देता है, उसी प्रकार प्रभु हमारी वासनाओं को दूर करते हैं। ये वृषभ के समान प्रभु (यूथेषु अन्तः) = जीव समूह के अन्दर (रोरुवत्) = खूब गर्जना कर रहे हैं । हृदयस्थरूपेण प्रभु प्रेरणा दे रहे हैं। उस प्रेरणा के अनुसार चलने पर हम वासनाओं के आक्रमण से बचे रहते हैं। [२] हे (इन्द्र) = प्रभो ! (ते) = आपका (मन्थः) = मन्थन - चिन्तन (हृदे शम्) = हृदय के लिये शान्ति का देनेवाला होता है। (यम्) = जिस (ते) = तेरे मन्थन व विचार को (भावयुः) = भक्तिभाव से युक्त उपासक (सुनोति) = अपने में उत्पन्न करता है। और सदा इस रूप में सोचता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) = सब से उत्कृष्ट हैं । प्रभु को सर्वोत्कृष्ट रूप में देखनेवाला ही प्रभु का उपासक बनता है। उस समय प्रभु उसे सदा प्रेरणा देते हैं और उसके शत्रुओं को दूर करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - उपासक के लिये प्रभु तिग्मभृंग वृषभ के समान रक्षक होते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वृषभः-न-तिग्मशृङ्गः) यथा तीक्ष्णशृङ्गो वृषभः (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहेषु खल्वन्तर्वर्त्तमानः सन् भृशं शब्दयति तथा (इन्द्र) हे उत्तरध्रुव ! त्वं भृशं वद (ते मन्थः) तव मन्थनं व्यापारः (हृदे शम्) हृदयाय कल्याणकारी भवतु (ते यं भावयुः सुनोति) आत्मभावमिच्छन्तीन्द्राणी तुभ्यं पुत्रं सुनोति जनयति (न सः-ईशे) न हि सः “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] इति सुलुक् पुनः सन्धिः “इष्टं गार्हस्थ्यमधिकरोति” (यस्य कपृत्) यस्य सुखं पृणाति ददाति यत्तदङ्गम् “पृणाति दानकर्मा” [निघ० ३।२०] क पूर्वकात् पृ धातो क्विपि रूपं तुक् च (सक्थ्या-अन्तरा रम्बते) सक्थिनी अन्तरा लम्बते (सः-इत्-ईशे) स एव गार्हस्थ्यमधिकरोति (यस्य निषेदुषः) यस्य निषदतो निकटं शयानस्य (रोमशं विजृम्भते) रोमशमङ्गं विजृम्भणं करोति विशिष्टं गात्रविनाम करोति (न सः-ईशे) न हि स खलु गार्हस्थ्यमधिकरोति (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) यस्य निकटं श्यानस्य रोमशमङ्गं गात्रविनाम करोति (स-इत्-ईशे) स एव गार्हस्थ्यमधिकरोति (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-रम्बते) यस्य निकटं शयानस्य सक्थिनी अन्तरा सुखदायकमङ्गं लम्बते रोमशाङ्गस्य विजृम्भणं सुखप्रदाङ्गस्य योनौ लम्बनञ्च ॥१५-१७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, just as a sharp homed bull bellows and lords over the herds of cattle with pride, so may the joyous process of the creative cycle which the dedicated celebrant and loving Prakrti enacts for you give you satisfaction and joy at heart as lord and master of the world.$Indra is supreme over all.
मराठी (1)
भावार्थ
रोम असणारे अंग फडफडणे, सुखदायक अंग योनीमध्ये अवलंबित होणे, हेच गृहस्थधर्मावर अधिकार करविते. ॥१५-१७॥
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