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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 13
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    विश्वा॒ हि म॑र्त्यत्व॒नानु॑का॒मा श॑तक्रतो । अग॑न्म वज्रिन्ना॒शस॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑ । हि । म॒र्त्य॒ऽत्व॒ना । अ॒नु॒ऽका॒मा । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । अग॑न्म । व॒ज्रि॒न् । आ॒ऽशसः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वा हि मर्त्यत्वनानुकामा शतक्रतो । अगन्म वज्रिन्नाशस: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वा । हि । मर्त्यऽत्वना । अनुऽकामा । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । अगन्म । वज्रिन् । आऽशसः ॥ ८.९२.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of a hundred noble actions, all mortals are moved by hopes and ambitions natural to humanity. O wielder of thunder and justice, let us too move forward and realise our hopes and ambitions.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    समाजातील अति ज्ञानी व कर्मिष्ठ लोक राजपदाच्या योग्य असतात. त्यांच्या कृपेने सामान्य लोकांच्या कामना व आशा सफल होतात. ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (शतक्रतो) असीम ज्ञान तथा कर्मशक्तिशाली! (वज्रिन्) कठोर शस्त्रास्त्रादि साधनयुक्त! राजपुरुष! तेरी कृपा से हम (विश्वा हि) प्रायः सभी (मर्त्यत्वना) मानवोचित (अनुकामा) कामनाओं को और (आशसः) आशाओं को (अगन्म) ग्रहण करें॥१३॥

    भावार्थ

    समाज के नितान्त ज्ञानी व कर्मिष्ठ जन राजपद योग्य होते हैं। साधारण व्यक्ति उनकी कृपा से अपनी सभी मानवोचित कामनाएं तथा आशाएं सफल कर पाते हैं। १३॥

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    विषय

    उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( शत-क्रतो ) अमित ज्ञानवन् ! अभित शक्तिशालिन् ! हे ( वज्रिन् ) बल वीर्यवन् ! शस्त्रबल के स्वामिन् ! हम ( विश्वा हि ) समस्त ( मर्त्त्यत्वना ) मनुष्योचित ( अनुकामा ) कामनाओं और ( आशसः ) आशाओं को ( अगन्म ) प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मनुष्योचित कामनाएँ

    पदार्थ

    [१] हे (शतक्रतो) = अनन्त शक्ति व प्रज्ञानवाले प्रभो ! (विश्वा हि) = सब ही (मर्त्यत्वना) = [मर्त्यत्वानि] मनुष्य (अनुकामा) = [कामान् अनुगतानि] कामनाओं से युक्त हैं। मनुष्य का बिलकुल निष्काम होना सम्भव नहीं । [२] सो हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो ! गतिशील प्रभो ! हम (आशसः) = आशंसनों को उन्नति के लिये साधनभूत पदार्थों की कामनाओं को अगन्म प्राप्त हों।

    भावार्थ

    भावार्थ-हम पत्थर की तरह जड़ न हों। उन्नति के लिये साधनभूत पदार्थों की कामनाओंवाले हों। उनकी पूर्ति के लिये गतिशील हों।

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