ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 21
त्रिक॑द्रुकेषु॒ चेत॑नं दे॒वासो॑ य॒ज्ञम॑त्नत । तमिद्व॑र्धन्तु नो॒ गिर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिऽक॑द्रुकेषु । चेत॑नम् । दे॒वासः॑ । य॒ज्ञम् । अ॒त्न॒त॒ । तम् । इत् । व॒र्ध॒न्तु॒ । नः॒ । गिरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिकद्रुकेषु चेतनं देवासो यज्ञमत्नत । तमिद्वर्धन्तु नो गिर: ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिऽकद्रुकेषु । चेतनम् । देवासः । यज्ञम् । अत्नत । तम् । इत् । वर्धन्तु । नः । गिरः ॥ ८.९२.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 21
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In three modes of body, mind and soul, the devas, seven senses, the human consciousness and the noble yogis, concentrate on Indra, divine consciousness. In three regions of the universe, noble souls meditate on the universal consciousness of the divine Indra. Thus they perform the yajna of divinity in communion. May all our songs of adoration glorify that supreme consciousness, Indra.
मराठी (1)
भावार्थ
कोणत्याही प्रकारचा त्रास झाल्यास मनुष्य परम चेतन परमेश्वराच्या शक्तीला आठवतो. जर आम्ही वाणीने प्रभूच्या गुणांचे कीर्तन केले तर त्रिविध त्रासाच्या अवस्थांच्या अतिरिक्तही आम्हाला प्रभूचे सान्निध्य प्राप्त होते. ॥२१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवासः) दिव्य इन्द्रियाँ (त्रिकद्रुकेषु) शरीर-आत्मा-मन की पीड़ाओं की स्थितियों में (यज्ञम्) उपासकों के संगमनीय अथवा पूजनीय (चेतनम्) ज्ञान आदि गुणोंवाले प्रभु का (अतन्वत) विस्तार करते हैं--उसका विस्तार सहित मनन अथवा ध्यान करते हैं। (तम् इत्) उस ही मनन को (नः) हमारी (गिरः) वाणी (वर्धन्तु) बढ़ाएं॥२१॥
भावार्थ
किसी भी पीड़ा की स्थिति में मानव परम चेतन प्रभु की शक्ति को ध्यान में लाता है। यदि हम वाणी से प्रभु का गुणकीर्तन करते रहें, तो उक्त तीन पीड़ाओं की अवस्थाओं से अतिरिक्त अवस्थाओं में भी हमें परमात्मा का सान्निध्य-सा मिलता है॥२१॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(त्रि-कद्रुकेषु) तीनों लोकों में ( चेतनं यज्ञम् ) सबको चेतना देने वाले पूज्य पुरुष को (देवासः अत्नत) विद्वान् गण, आत्मा को इन्द्रियों के समान प्राप्त करते हैं, ( तम् इत् नः गिरः वर्धन्तु ) उसको ही हमारी वाणियां बढ़ाती हैं, उसी का गुण गान करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
ज्योतिः, गौर, आयुः [त्रिकद्रुक]
पदार्थ
[१] (त्रिकद्रुकेषु) = 'ज्योतिः गौ: आयुः ' 'हमें ज्योति प्राप्त कराओ, हमारे लिये उत्तम इन्द्रियों को प्राप्त कराइये [गौ] तथा हमें दीर्घजीवी बनाइये' इस प्रकार तीनों आह्वानों के होने पर [कदि आह्वाने] (चेतनम्) = चेतना को, ज्ञान को देनेवाले (यज्ञम्) = पूजनीय प्रभु को (देवासः) = देववृत्ति के पुरुष (अत्नत) = अपने में विस्तृत करते हैं। [२] (नः गिरः) = हमारी ये वाणियाँ भी (तं इत्) = उस प्रभु का ही (वर्धन्तु) = वर्धन करें। हम वाणियों से प्रभु का ही स्तवन करें। प्रभु हमारे ज्ञान को बढ़ायेंगे, हमें उत्तम इन्द्रियों को प्राप्त करायेंगे और इस प्रकार हमें प्रशस्त दीर्घ जीवनवाला करेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का ही देववृत्ति के पुरुष पुकारते हैं। प्रभु-स्तवन करते हुए वे ज्ञान के प्रकाश को, उत्तम इन्द्रियों को व दीर्घजीवन को प्राप्त करते हैं।
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