ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 7
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्यमु॑ वः सत्रा॒साहं॒ विश्वा॑सु गी॒र्ष्वाय॑तम् । आ च्या॑वयस्यू॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्यम् । ऊँ॒ इति॑ । वः॒ । स॒त्रा॒ऽसह॑म् । विश्वा॑सु । गी॒र्षु । आऽय॑तम् । आ । च्य॒व॒य॒सि॒ । ऊ॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्यमु वः सत्रासाहं विश्वासु गीर्ष्वायतम् । आ च्यावयस्यूतये ॥
स्वर रहित पद पाठत्यम् । ऊँ इति । वः । सत्राऽसहम् । विश्वासु । गीर्षु । आऽयतम् । आ । च्यवयसि । ऊतये ॥ ८.९२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O people of the land, that generous and brilliant victor (Sudaksha) in all sessions of the enlightened citizens and celebrated in their universal voices, you elevate to the office of ruler for your defence, protection and progress.
मराठी (1)
भावार्थ
दोन्ही मंत्रांचा बरोबरच अर्थ केलेला आहे. प्रजेने कोणत्या गुणांनी (प्रजेचा रक्षक, धनाचा रक्षक) विशिष्ट राजपुरुषाला आपला रक्षक नेमावे हे यात दर्शविलेले आहे. मंत्राचा अर्थ स्पष्ट आहे. ॥७,८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे राजा के प्रशंसको! (त्यम् उ) उस ही (सत्रासाहम्) बहुतों पर विजयी (वः) प्रजाजनों की (विश्वासु) सभी (गीर्षु) वाणी द्वारा गाये गये स्तोत्रों में (आयतम्) विस्तृत, (युध्मं सन्तम्) योद्धा होने से (अनर्वाणम्) अन्यों [शत्रुओं] की पहुँच से बाहर, (सोमपाम्) विविध पदार्थों के भोक्ता अतएव (अनपच्युतम्) अहिंसित तथा (अवार्यक्रतुम्) अनिवारणीय कृत्यों वाले (नरम्) नेता राजा को (ऊतये) रक्षा, देखभाल व सहायतार्थ (आ च्यावयसि) लिवा लाता है॥७, ८॥
भावार्थ
दोनों ही मन्त्रों का अर्थ एक साथ किया गया है। प्रजाजन किन गुणों से युक्त राजपुरुष को अपना रक्षक बनाएं--यह इनमें दर्शाया गया है। मन्त्रों का अर्थ स्पष्ट है॥७, ८॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे विद्वन् ! ( त्यम् उ ) उस ही ( सत्रासाहं ) समवाय और सत्य के बल से सब को पराजित करने वाले ( विश्वासु गीर्षु ) समस्त वाणियों वा विद्याओं में ( आयतम् ) प्रसिद्ध, कुशल, व्यापक पुरुष को ( ऊतये ) रक्षा, ज्ञान-प्राप्ति आदि के निमित्त ( वः आच्यावयसि ) आप लोंगों को प्राप्त करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सत्रासाहं [प्रभुं] आच्यावयसि
पदार्थ
[१] (त्वम्) = उस प्रभु को (उ) = ही (ऊतये) = अपने रक्षण के लिये (आच्यावयसि) = [आगमय] प्राप्त कर अपने हृदय मन्दिर में प्राप्त करा । [२] वे प्रभु ही (वः) = तुम्हारे (सत्रासाहम्) = सदा शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं और वे प्रभु ही (विश्वासु गीर्षु आयतम्) = सब वेद वाणियों में विस्तृत हैं, सब वाणियाँ प्रभु का ही वर्णन कर रही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु को ही हम प्राप्त करने का प्रयत्न करें वे ही हमारे शत्रुओं का पराभव करनेवाले व सब वेदवाणियों के प्रतिपाद्य विषय हैं।
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