ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 24
अरं॑ त इन्द्र कु॒क्षये॒ सोमो॑ भवतु वृत्रहन् । अरं॒ धाम॑भ्य॒ इन्द॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठअर॑म् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । कु॒क्षये॑ । सोमः॑ । भ॒व॒तु॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अर॑म् । धाम॑ऽभ्यः । इन्द॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरं त इन्द्र कुक्षये सोमो भवतु वृत्रहन् । अरं धामभ्य इन्दवः ॥
स्वर रहित पद पाठअरम् । ते । इन्द्र । कुक्षये । सोमः । भवतु । वृत्रऽहन् । अरम् । धामऽभ्यः । इन्दवः ॥ ८.९२.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, O lord of power and joy, destroyer of evil and suffering, let there be ample soma to fill the space in the womb of existence, and let the flow of soma be profuse for all the forms of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
पूर्व मंत्रानुसार परमप्रभू दिव्यानंदाचे निधान आहे. त्याचे हे कोश त्याच्यात स्थापित आहेत व उदराप्रमाणे अन्तर्हित आहेत. या मंत्रात ही गोष्ट सांगितलेली आहे, की या कोशासाठी पुरेसे ऐश्वर्य निष्पन्न होते. केवळ त्याच्यासाठीच नाही. या ब्रह्मांडरूप नाना प्रतिष्ठानामध्ये राहणारे संसारी लोक त्याचे आत्मीयच आहेत. त्यांच्यासाठीही पुरेसे ऐश्वर्य त्याच्या कोशात संचित असते. ॥२४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (वृत्रहन्) विघ्नहर्ता! (इन्द्र) प्रभु! (सोमः) ऐश्वर्य (ते) तेरे (कुक्षये) उदर तुल्य अन्तर्हित अधिष्ठान हेतु [कोश] के (अरम्) पर्याप्त (भवतु) होता है। (इन्दवः) सभी आनन्द दायक पदार्थ तेरे (धामभ्यः) पारिवारिक जनों [धामन्-गृहनिवासियों] के लिए (अरम्) प्रचुर हैं॥२४॥
भावार्थ
उसके ये कोश उसमें स्थापित तथा उदरतुल्य अन्तर्हित हैं। इस मन्त्र में कहा गया है कि इस कोश हेतु पर्याप्त ऐश्वर्य प्राप्त होता रहता है और केवल उसके लिये ही नहीं, अपितु ब्रह्माण्डरूप उसके नानाविध प्रतिष्ठानों में बसने वाले संसारी जन उसके आत्मीय ही हैं; उनके लिये भी उसके कोश में पर्याप्त ऐश्वर्य संचित रहता है।॥२४॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वृत्र-हन् ) पाप के नाशक ! हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! ( सोमः ) ऐश्वर्य ( ते कुक्षये अरं भवतु ) तेरे कोश के लिये बहुत हो। ( इन्दवः धामभ्यः अरं भवन्तु ) ऐश्वर्य और वेगवान् सैन्य गण तेरे तेजों की वृद्धि के लिये बहुत हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
धामभ्यः अरम्
पदार्थ
[१] हे (वृत्रहन्) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (सोमः) = यह सोम (ते कुक्षये) = आप से दी गई इस कुक्षि के लिये (अरं भवतुम्) = भूषित करनेवाला हो। यह सोम कुक्षि में ही सुरक्षित रहकर उसे भूषित करे। [२] हे प्रभो ! ये (इन्दवः) = सोमकण (धामभ्यः) = सब तेजों के लिये (अरम्) = पर्याप्त हों। इनके रक्षण से तेजस्विता का लाभ हो।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम शरीर को अलंकृत करे। सब तेजों को यह प्राप्त करानेवाला हो ।
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