ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 26
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अरं॒ हि ष्म॑ सु॒तेषु॑ ण॒: सोमे॑ष्विन्द्र॒ भूष॑सि । अरं॑ ते शक्र दा॒वने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअर॑म् । हि । स्म॒ । सु॒तेषु॑ । नः॒ । सोमे॑षु । इ॒न्द्र॒ । भूष॑सि । अर॑म् । ते॒ । श॒क्र॒ । दा॒वने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरं हि ष्म सुतेषु ण: सोमेष्विन्द्र भूषसि । अरं ते शक्र दावने ॥
स्वर रहित पद पाठअरम् । हि । स्म । सुतेषु । नः । सोमेषु । इन्द्र । भूषसि । अरम् । ते । शक्र । दावने ॥ ८.९२.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 26
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, ruler of the world, all potent and competent doer of holy action, when we have distilled and achieved the soma of bright knowledge, action, wealth, honour and excellence of life, you feel highly glorified, and that achievement is a high tribute to your generous munificence also.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वरभक्त माणूस जेव्हा विद्या व सुशिक्षणाद्वारे सृष्टीच्या विभिन्न पदार्थांचे सार उपलब्ध करून घेतो, तेव्हा त्याच्या सान्निध्याने राष्ट्राच्या अध्यक्ष राजपुरुषाची दानशक्तीही वाढते. प्रजेचे ज्ञानबल वाढल्यामुळे राष्ट्राची शक्तीही वाढते. ॥२६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) सम्पन्न राजपुरुष! (सोमेषु) ऐश्वर्यप्रदाता पदार्थों के (नः) हमारे द्वारा (सुतेषु) विद्या व सुशिक्षा द्वारा निष्पन्न कर लेने पर, उनका शुद्ध ज्ञान प्राप्त कर लिए जाने पर आप (हि अरं भूषसि स्म) निश्चय ही समर्थ हो जाते हैं। हे (शक्र) दानसमर्थ! (ते) तेरी (दावने) दानशीलता हेतु भी (अरम्) वह शुद्ध ज्ञान समर्थ है॥२६॥
भावार्थ
प्रभु-भक्त मानव जब विद्या तथा सुशिक्षा के द्वारा सृष्टि के विभिन्न पदार्थों का सार पा लेता है, तो उसके राष्ट्र अध्यक्ष राजपुरुष की दानशक्ति भी बहुत बढ़ जाती है। प्रजा का ज्ञानबल बढ़े, तो राष्ट्र की शक्ति में भी वृद्धि होती है॥२६॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( नः सुतेषु सोमेषु ) हमारे उत्पन्न ऐश्वर्यों के आधार पर तू ही ( अरं भूषसि हि ष्म ) बहुत पर्याप्त समर्थ हो। हे ( शक्र ) शक्तिशालिन् ! ( ते दावने भरम् ) तुझ दाता के लिये भी ऐश्वर्य बहुत अधिक प्राप्त हों। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सोमरक्षण और सद्गुण धारण
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप (सु सोमेषु सुतेषु) = सोमों का सम्पादन होने पर (नः) = हमें (हिष्मा) = निश्चय से (अरं भूषसि) = खूब ही गुणों से सुभूषित करते हैं। [२] हे (शक्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! ये (ते) = आपके सोमकण (दावने) = दानशील पुरुष के लिये (अरम्) = पर्याप्त हों। दानशील पुरुष भोग-विलास से ऊपर उठकर इन सोमकणों का रक्षण करनेवाला बने। सुरक्षित सोमकण उसे सद्गुणों से सुभूषित करें।
भावार्थ
भावार्थ- हम दानशील बनकर भोगवृत्ति से ऊपर उठकर, सोमकणों के रक्षण के द्वारा सद्गुणों का धारण करें।
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