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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 6
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒स्य पी॒त्वा मदा॑नां दे॒वो दे॒वस्यौज॑सा । विश्वा॒भि भुव॑ना भुवत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । पी॒त्वा । मदा॑नाम् । दे॒वः । दे॒वस्य॑ । ओज॑सा । विश्वा॑ । अ॒भि । भुव॑ना । भु॒व॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य पीत्वा मदानां देवो देवस्यौजसा । विश्वाभि भुवना भुवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । पीत्वा । मदानाम् । देवः । देवस्य । ओजसा । विश्वा । अभि । भुवना । भुवत् ॥ ८.९२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Exalted by the joyous power of this soma offering of the people, the brilliant and generous Indra rules over all regions of the world by light and lustre worthy of a ruler.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजेद्वारे प्रसन्नतेने समर्पित केलेल्या धनाने राजा केवळ हर्षित होत नाही तर तो त्यांच्या बलावर सर्वोत्कृष्ट व सर्वविजयीही होतो. ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवः) दिव्यगुण सम्पन्न राजा (अस्य) प्रजा के द्वारा समर्पित इस कर आदि के (मदानाम्) हर्षदायक आनन्द का (पीत्वा) पान कर उस (देवस्य) समर्पित दिव्य धन आदि से प्राप्त (ओजसा) ओजस्विता के द्वारा (विश्वा भुवना अभिभुवत्) सभी लोकस्थ शक्तियों को पराभूत करता है॥६॥

    भावार्थ

    प्रजा के द्वारा प्रसन्नता से समर्पित कर आदि धन से राजा न केवल हर्षित रहता है, अपितु वह उससे सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वविजयी भी बन जाता है॥६॥

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    विषय

    उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( मदानां देवस्य ) हर्ष, तृप्ति और सुख के देने वाले ( अस्य ) इस उत्तम अन्न, प्रजा जन व जगत् का ( पीत्वा ) पान, उपभोग और पालन करके ( देवः ) वह तेजस्वी पुरुष स्वामी ( ओजसा ) पराक्रम से ( विश्वा भुवना अभि भुवत् ) समस्त लोकों को अपने वश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    निरक्षण द्वारा विजय

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस सोम का (पीत्वा) = पान करके (मदानाम्) = हर्षों व उल्लासों का (देवः) = अपने में क्रीडन करनेवाला होता है। सोमी पुरुष के जीवन में उल्लासों की क्रीडा होती है। [२] यह सोमी पुरुष (देवस्य ओजसा) = उस महादेव प्रभु के ओज [बल] से (विश्वा भुवना अभिभुवत्) = सब भुवनों को अभिभूत करनेवाला, सब पर विजय पानेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से जीवन उल्लासमय बनता है। प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर यह सोमी पुरुष सब भुवनों का विजय करता है।

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