ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 18
वि॒द्मा हि यस्ते॑ अद्रिव॒स्त्वाद॑त्तः सत्य सोमपाः । विश्वा॑सु दस्म कृ॒ष्टिषु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्म । हि । यः । ते॒ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । त्वाऽद॑त्तः । स॒त्य॒ । सो॒म॒ऽपाः॒ । विश्वा॑सु । द॒स्म॒ । कृ॒ष्टिषु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्मा हि यस्ते अद्रिवस्त्वादत्तः सत्य सोमपाः । विश्वासु दस्म कृष्टिषु ॥
स्वर रहित पद पाठविद्म । हि । यः । ते । अद्रिऽवः । त्वाऽदत्तः । सत्य । सोमऽपाः । विश्वासु । दस्म । कृष्टिषु ॥ ८.९२.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord ruler of clouds and mountains, ever true and constant, lover and protector of soma, the joy and beauty of life, glorious destroyer of darkness, we know as we receive that the courage and will, the sense of honour and dignity that prevails among all the people of the world is yours, inspired by you, and a gift of yours to us.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर विविध प्रकारच्या ऐश्वर्याचा निधी आहे व जसे मेघ उदारतेने जल प्रदान करतो तसेच तोही आपले ऐश्वर्य माणसांना देतो. निरनिराळ्या ऐश्वर्यवानांची प्रसन्नता पाहून आम्ही अनुभवावे, की जोपर्यंत ते परमेश्वराप्रमाणे निष्पाप आनंदात आहेत तोपर्यंत यांची प्रसन्नता टिकेल. पापयुक्त आनंद शाश्वत राहू शकत नाही. ॥१८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (अद्रिवः) मेघ के तुल्य उदारों के तथा पाषाणवत् दृढ़ तथा शत्रुनाशक जनों के स्वामी! (सत्य) न्यायनिष्ठ! एवं (दस्म) अज्ञानान्धकार नाशक! (सोमपाः) ऐश्वर्य पालक! (यः) जो (त्वादत्तः) आपका दिया हुआ हर्ष (विश्वासु) सभी (कृष्टिषु) मनुष्यों में विद्यमान है, हम उस (ते) आपको (हि) ही (विद्म) जानें॥१८॥
भावार्थ
भगवान् सर्व प्रकार के विविध ऐश्वर्यों का भण्डार हैं और साथ ही जैसे मेघ उदारता से जल देता है, वैसे ही वे भी अपना ऐश्वर्य मानवों में बाँट देते हैं। अपने चारों ओर ऐश्वर्यवानों को प्रसन्न देख हम यह अनुभव करें कि इनकी प्रसन्नता तभी तक है जब तक कि ये परमेश्वर की भाँति निष्पाप हर्ष के भागी हों--सपाप हर्ष टिकाऊ नहीं॥१८॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अद्रिवः ) मेघवत् उदार जनों और पाषाणवत् शत्रुनाशक जनों के स्वामिन् ! हे ( सत्य ) न्यायनिष्ठ ! हे ( दस्म ) शत्रुनाशन ! हे ( सोमपाः ) प्रजावत् ऐश्वर्य के पालक ! भोक्ता ! अन्नोषधि के पान करनेहारे ! ( यः त्वादत्तः ) जो तेरे द्वारा दिया हुआ ( विश्वासु कृष्टिषु ) समस्त मनुष्यों में ऐश्वर्य है हम (ते विद्महि) अवश्य उसे तेरा ही जानें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अद्रिवः-सत्य सोमपाः-दस्म
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय, (सत्य) = सत्यस्वरूप, (सोमपाः) = सोम का रक्षण करनेवाले, (दस्म) = शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले प्रभो ! (यः) = जो (विश्वासु) = सब (कृष्टिषु) = श्रमशील मनुष्यों में (त्यादत्तः) = आप से दिया गया धन है, उसे हम भी ते आप से (विद्मा हि) = प्राप्त करें ही । [२] प्रभु श्रमशील मनुष्यों को ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं। हम भी श्रमशील बनकर प्रभु से दिये जानेवाले इस ऐश्वर्य को प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का उपासन [आदर] करें। वे सत्यस्वरूप प्रभु हमारे सोम का रक्षण करते हुए हमारे सब शत्रुओं का उपक्षय करेंगे। श्रमशील बनकर हम प्रभु से दिये जानेवाले धन के पात्र बनें।
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