ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 31
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
मा न॑ इन्द्रा॒भ्या॒३॒॑दिश॒: सूरो॑ अ॒क्तुष्वा य॑मन् । त्वा यु॒जा व॑नेम॒ तत् ॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि । आ॒ऽदिशः॑ । सूरः॑ । अ॒क्तुषु॑ । आ । य॒म॒न् । त्वा । यु॒जा । व॒ने॒म॒ । तत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा न इन्द्राभ्या३दिश: सूरो अक्तुष्वा यमन् । त्वा युजा वनेम तत् ॥
स्वर रहित पद पाठमा । नः । इन्द्र । अभि । आऽदिशः । सूरः । अक्तुषु । आ । यमन् । त्वा । युजा । वनेम । तत् ॥ ८.९२.३१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 31
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, powerful friend and ally in spirit and conduct, let no force, howsoever strong it may be, from any direction come at night and overtake us by violence. With you as a friend and inspirer, let us counter that attack and win.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा सजग असेल तर त्याची प्रजा कधीही अनोळखी आक्रमकाची शिकार होणार नाही. प्रजा व राजा मिळून अशा आक्रमणाच्या वेळी विजयी होतात. मनुष्य जर सजग असेल तर दुर्भावना माणसावर आक्रमण करू शकत नाहीत. दिव्य मन संकल्पशक्तीच्या साह्याने माणूस दुर्भावनांवर विजय प्राप्त करू शकतो. ॥३१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) इन्द्र! (अक्तुषु) रात्रि के तिमिर के समय में (दिशः) किसी भी दिशा से आकर कोई (सूरः) छापा मारनेवाला चोर, आदि (नः) प्रजा को (न आ यमत्) न दबोचे। अथवा मेरे दिव्य मन! अज्ञान की अवस्था में कोई दुष्ट प्रेरणा दायक दुर्भाव आदि हमें न दबोच ले। (त्वा युजा) तुझ से मिले हुए हम (तत्) उस आक्रमण को (वनेम) परास्त करें॥३१॥
भावार्थ
शासक सतर्क रहे तो रात्रि में भी उसकी प्रजा किसी अप्रत्याशित आक्रामक का शिकार नहीं होती; प्रजा तथा राजा मिलकर ऐसे आक्रमण के समय विजयी होते हैं। ऐसे ही यदि मानव-मन सजग रहे तो दुर्भावनाएं दबोच नहीं सकतीं; दिव्य मन, संकल्पशक्ति की सहायता से मानव की दुर्भावनाओं पर विजय पा लेता है॥३१॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! (नः) हमें (आदिशः) आदेष्टा शासक और ( सूरः ) विचरणशील तेजस्वी लोग ( अक्तुषु ) रात्रिकाल में ( मा आयमन् ) मत बांधें। ( त्वा युजा ) तुझ सहायक से हम ( तत् वनेम ) उन दुष्ट जनों का नाश करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
त्वा युजा वनेम तत्
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रु- संहारक प्रभो ! (नः) = हमें (अभ्यादिशः) = सब ओर से आयुधों को अतिशयेन विसृष्ट करते हुए, सब ओर से आक्रमण करते हुए (सूर:) = [ सर्वत्र सरणशीलाः] सर्वत्र सरणशील ये आसुरभाव अक्तुषु अज्ञानान्धकार की रात्रियों में (मा आयमन्) = मत बाँधनेवाले हों। हम अज्ञानवश कामादि शत्रुओं के शिकार न हो जायें। [२] (त्वा युजा) = आप को साथी के रूप में पाकर, आप के सहाय से (सूरोतत्) = उस आसुर वृत्ति समूह को (वनेम) = पराजित करनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- हम अज्ञानवश वासनाओं से बद्ध न हो जायें। प्रभु को मित्र बनाकर इन वासनाओं का विनाश कर सकें।
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