ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 22
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ त्वा॑ विश॒न्त्विन्द॑वः समु॒द्रमि॑व॒ सिन्ध॑वः । न त्वामि॒न्द्राति॑ रिच्यते ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । वि॒श॒न्तु॒ । इन्द॑वः । स॒मु॒द्रम्ऽइ॑व । सिन्ध॑वः । न । त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । अति॑ । रि॒च्य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा विशन्त्विन्दवः समुद्रमिव सिन्धवः । न त्वामिन्द्राति रिच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । विशन्तु । इन्दवः । समुद्रम्ऽइव । सिन्धवः । न । त्वाम् । इन्द्र । अति । रिच्यते ॥ ८.९२.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 22
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
All the flows of soma, joys, beauties and graces of life concentrate in you, and thence they flow forth too, Indra, lord supreme, just as all rivers flow and join in the ocean and flow forth from there. O lord no one can comprehend and excel you.
मराठी (1)
भावार्थ
सृष्टीच्या सर्व पदार्थांपासून मिळणारा आनंदरस त्यांच्या रचयिता, परमेश्वरातच निहित आहे. त्याच्याबाहेर त्याच्यापेक्षा जास्त कोणताही पदार्थ किंवा त्याच्यापासून प्राप्त होणारा दुसरा आनंदही नाही. सृष्टिरचित पदार्थांनी मिळणारा आनंद परमात्म्याच्या दिव्य आनंदापेक्षा भिन्न किंवा अधिक उत्कृष्ट नसतो. ॥२२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे इन्द्र ऐश्वर्यशाली प्रभु! (सिन्धवः) नदी, नद आदि के जल जैसे (समुद्रम् आ विशन्ति-न्तु) समुद्र में ही समाते हैं, कुछ भी शेष नहीं रहता; वैसे ही तुझ परमेश्वर में (इन्दवः) सभी आनन्दकर ऐश्वर्य रूप पदार्थ (आ विशन्ति) चारों ओर से आकर प्रविष्ट हो जाते हैं; (त्वाम् अति) तुझ परमेश्वर को लाँघ (न अतिरिच्यते) कोई वस्तु शेष नहीं रहती॥२२॥
भावार्थ
सृष्टि के सकल पदार्थों से मिलने वाला आनन्दरस उनके रचयिता प्रभु में ही निहित है; उससे बाहर व उससे बड़ा कोई पदार्थ या उससे प्राप्त होनेवाला आनन्द नहीं। सृष्टिरचित पदार्थों से मिलने वाला आनन्द प्रभु के दिव्य आनन्द से भिन्न या अधिक अथवा उत्कृष्ट नहीं होता॥२२॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( समुद्रम् इव सिन्धवः ) नदियां जिस प्रकार समुद्र में प्रवेश करती हैं उसी प्रकार ( इन्दवः त्वा आविशन्तु ) समस्त ऐश्वर्य और विद्वान् जीवगण प्रभो ! तुझमें प्रवेश करें। हे ( इन्द्र न त्वाम् अति रिच्यते ) ऐश्वर्यवन् ! तुझसे कोई बढ़ कर नहीं है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु में प्रवेश
पदार्थ
[१] 'इन्दु' शब्द सोम का वाचक है। सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष भी यहाँ 'इन्दु' कहे गये हैं। ये (इन्दवः) = सोम का अपने में रक्षण करनेवाले पुरुष (त्वा आविशन्तु) = हे प्रभो ! आप में प्रवेश करनेवाले हों। इस प्रकार वे आप में प्रवेश कर जायें (इव) = जैसे (सिन्धवः) = नदियाँ (समुद्रम्) = समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं और समुद्र ही हो जाती हैं। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! वस्तुतः (त्वा न अतिरिच्यते) = कोई भी वस्तु आप से अतिरिक्त नहीं है। सभी को आपने अपने गर्भ में धारण किया हुआ है। सोमरक्षक पुरुष अपने को आप में अनुभव करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोमरक्षण करते हुए प्रभु में प्रवेश करनेवाले बनें।
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