ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 25
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अर॒मश्वा॑य गायति श्रु॒तक॑क्षो॒ अरं॒ गवे॑ । अर॒मिन्द्र॑स्य॒ धाम्ने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअर॑म् । अश्वा॑य । गा॒य॒ति॒ । श्रु॒तऽक॑क्षः । अर॑म् । गवे॑ । अर॑म् । इन्द्र॑स्य । धाम्ने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरमश्वाय गायति श्रुतकक्षो अरं गवे । अरमिन्द्रस्य धाम्ने ॥
स्वर रहित पद पाठअरम् । अश्वाय । गायति । श्रुतऽकक्षः । अरम् । गवे । अरम् । इन्द्रस्य । धाम्ने ॥ ८.९२.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 25
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The sage, having drunk of the soma of divine love, sings in praise of the dynamics of motion and attainment and the music overflows, he sings of the dynamics of creative production and power of communication such as waves of energy, earth and cows, and he sings profusely of the lord’s refulgent forms of wealth, beauty and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
पहिल्या मंत्रात सांगितलेले आहे, की परमेश्वरात दिव्य आनंदाचे कोश स्थापित आहेत. ही प्राप्ती माणूस ज्ञानेन्द्रिये व कर्मेन्द्रिये सशक्त बनविण्यासाठी करू शकतो. ॥२५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(श्रुतकक्षः) वैदिक ज्ञान-सम्पन्न विद्वान् (इन्द्रस्य) भगवान् सम्बन्धी (अश्वाय) शीघ्र गमनागमनशक्ति अर्थात् कर्मशक्ति हेतु (अरम्) पर्याप्त, (गवे) ज्ञानशक्ति के लिए (अरम्) पर्याप्त तथा (धाम्ने) परमेश्वर की आधारशक्ति के लिये (अरम्) पर्याप्त (गायति) वन्दना करता है॥२५॥
भावार्थ
पूर्व मन्त्रों में बताया गया है कि परमेश्वर में ही दिव्य आनन्द के कोश हैं। इन आनन्दमय कोशों से मानव को आनन्द प्राप्त होता है। मानव अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को सशक्त बनाकर इस प्राप्ति को अनुभव कर सकता है॥२५॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( श्रुत-कक्षः ) श्रुत, वेद को अवगाहन करने वाला, वा कक्षा अर्थात् वेदवाणी का श्रवण करने वाला विद्वान् जन, ( अश्वाय गवे धाम्ने ) उसके अश्व, गौ और तेज की ( अरं अरं गायति ) खूब खूब स्तुति करता है अर्थात् उस प्रभु का बल, वाणी और तेज बहुत है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अश्व-गौ-इन्द्रधाम
पदार्थ
[१] (श्रुतकक्षः) = ज्ञान को ही अपना रक्षा-स्थान बनानेवाला [ कक्ष hiding place ] यह उपासक (अश्वाय) = उत्तम कर्मेन्द्रियों की प्राप्ति के लिये (अरं गायति) = खूब ही प्रभु का गायन करता है। यह (गवे) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियों की प्राप्ति के लिये (अरम्) = खूब ही गायन करता है। [२] इसी प्रकार (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (धाम्ने) = तेज के लिये (अरम्) = खूब ही गायन करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'श्रुतकक्ष' बनें। स्वाध्याय द्वारा व्यर्थ के व्यसनों से बचकर उत्तम कर्मेन्द्रियों उत्तम ज्ञानेन्द्रियों में प्रभु के तेज को पाने के लिये खूब ही प्रभु का गायन करें।
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