ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 2
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
पु॒रु॒हू॒तं पु॑रुष्टु॒तं गा॑था॒न्यं१॒॑ सन॑श्रुतम् । इन्द्र॒ इति॑ ब्रवीतन ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रु॒ऽहू॒तम् । पु॒रु॒ऽस्तु॒तम् । गा॒था॒न्य॑म् । सन॑ऽश्रुतम् । इन्द्रः॑ । इति॑ । ब्र॒वी॒त॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरुहूतं पुरुष्टुतं गाथान्यं१ सनश्रुतम् । इन्द्र इति ब्रवीतन ॥
स्वर रहित पद पाठपुरुऽहूतम् । पुरुऽस्तुतम् । गाथान्यम् । सनऽश्रुतम् । इन्द्रः । इति । ब्रवीतन ॥ ८.९२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Call him by the name and title of ‘Indra’, invoked by many, adored by all, worthy of celebration in story, all time famous who is also a scholar of universal knowledge.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात राजाची परिभाषा सांगितलेली आहे. अर्थ स्पष्ट आहे. इन्द्र = राजा - इतरांचा सहायक, स्तुती करण्यायोग्य, प्रशंसनीय उपदेशकर्ता, सनातन शास्त्राचा जाणता. ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
ऐश्वर्यवान् राजा कौन है? उत्तर देते हैं— (पुरुहूतम्) अनेक द्वारा अपनी सहायता के लिये पुकारे गये, (पुरुष्टुतम्) बहुत से जानने वालों द्वारा जिसकी स्तुति की गई है, जो (गाथान्यम्) प्रशंसनीय उपदेशों का दाता है, (सनश्रुतम्) सनातन शास्त्र जिसने सुने हैं, ऐसे राजपुरुष को (इन्द्र इति) 'इन्द्र' ऐश्वर्यवान् राजा के नाम से (ब्रवीतन) पुकारो॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में राजा की परिभाषा बताई गई है--अर्थ भी सुस्पष्ट है॥२॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( पुरु-हूतं ) बहुतों से पुकारने योग्य, बहुतों से स्वीकृत ( पुरु-स्तुतं ) बहुतों से प्रस्तुत, प्रशंसित ( गाथान्यं ) गुण गान करने योग्य, वा 'गाथा' वेदवाणी में प्रसिद्ध, ( सन-श्रुतम् ) सनातन काल से श्रवण योग्य, वा सनातन ज्ञान वेद का बहुश्रुत विद्वान् वा सन अर्थात् दान के कारण प्रसिद्ध पुरुष को ( इन्द्रः इति ब्रवीतन ) 'इन्द्र' इस प्रकार कहो उसका नाम 'इन्द्र' रक्खो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
इन्द्र
पदार्थ
[१] (पुरुहूतम्) = [ पुरु हूतं यस्य] पालन व पूरण करनेवाली है पुकार जिसकी - जिसकी आराधना से शरीर नीरोग बनता है और मन पवित्र होता है, (पुरुष्टुतम्) = जो खूब ही स्तुत होता है, सम्पूर्ण वेद जिसका स्तवन कर रहा है (गाथान्यम्) = जो गायन के योग्य हैं और (सनश्रुतम्) = सदा से [सनातन काल से] प्रसिद्ध हैं, पुराण पुरुष हैं। उन प्रभु को (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले हैं [इदि परमैश्वर्ये, सर्वाणि बल कर्माणि इन्द्रस्य, इनः सन् शत्रून् द्रावयति ] (इति) = इस प्रकार (ब्रवीतन) = व्यक्त रूप से गाओ। 'इन्द्र' नाम से प्रभु का गायन करो।
भावार्थ
भावार्थ-उस सनातन प्रभु को हम 'इन्द्र' नाम से स्मरण करें। इन्द्र ही बनने का प्रयत्न करें।
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