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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 5
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    तम्व॒भि प्रार्च॒तेन्द्रं॒ सोम॑स्य पी॒तये॑ । तदिद्ध्य॑स्य॒ वर्ध॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ऊँ॒ इति॑ । अ॒भि । प्र । अ॒र्च॒त॒ । इन्द्र॑म् । सोम॑स्य । पी॒तये॑ । तत् । इत् । हि । अ॒स्य॒ । वर्ध॑नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तम्वभि प्रार्चतेन्द्रं सोमस्य पीतये । तदिद्ध्यस्य वर्धनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । ऊँ इति । अभि । प्र । अर्चत । इन्द्रम् । सोमस्य । पीतये । तत् । इत् । हि । अस्य । वर्धनम् ॥ ८.९२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Honour and appreciate Indra with words of gratefulness and adoration for the consumption, protection and promotion of the soma homage offered by the people. That tribute of honour is the real exalting strength and success for the ruler.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राष्ट्रात पूर्वोक्त मंत्राने वर्णित राजाच राष्ट्राच्या ऐश्वर्याचा उत्तम रक्षक असू शकतो. सर्व प्रजेने अशा राजालाच रक्षणासाठी नियुक्त करावे.॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे प्रजाजनो! (सोमस्य पीतये) सृष्ट पदार्थों के ज्ञान एवं उनकी (पीतये) रक्षार्थ, उन्हें बनाये रखने हेतु (तम्) उस पूर्वोक्त (इन्द्रम्) राजपुरुष की (अभि प्रार्चत) स्तुति करो; रक्षा के लिये उसी से प्रार्थना करो; (तत् इति) यह स्तुति कर्म ही (अस्य वर्धनम्) इस सोम को बढ़ाता भी है॥५॥

    भावार्थ

    पूर्वोक्त मन्त्र से वर्णित राजा ही राष्ट्र के ऐश्वर्य का उत्तम प्रहरी हो सकता है। सकल प्रजा ऐसे शासक को ही रक्षा के लिये नियुक्त करे॥५॥

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    विषय

    उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग ( सोमस्य पीतये ) ऐश्वर्य अन्नादि के पान और पालन या रक्षा के निमित्त आप ( तम् इन्द्रम् अभि प्रार्चत ) उसी ऐश्वर्यवान् की स्तुति करो, ( तत् इत् हि अस्य वर्धनम् ) वह ही उस को बढ़ाने वाला है। इति पञ्चदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    पूजन- सोमकण-दिव्यता का वर्धन

    पदार्थ

    [१] (तं इन्द्रं उ) = उस शत्रु-विद्रायक प्रभु को ही (अभि प्रार्चत) = आभिमुख्येन पूजित करनेवाले बनो। प्रात:-सायं प्रभु का ही पूजन करो। यह पूजन ही (सोमस्य पीतये) = सोम के रक्षण के लिये होगा। इसी प्रकार सोम का रक्षण होगा। [२] (तत् इत् हि) = वह पूजन द्वारा सोम का रक्षण ही (अस्य वर्धनम्) = उपासक के जीवन में प्रभु का वर्धन करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रात:- सायं प्रभु-पूजन करते हुए सोमरक्षण द्वारा अपने जीवन में प्रभु का वर्धन करनेवाले बनें, जीवन को अधिकाधिक दिव्य बना पायें।

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