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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 28
    ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒वा ह्यसि॑ वीर॒युरे॒वा शूर॑ उ॒त स्थि॒रः । ए॒वा ते॒ राध्यं॒ मन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । हि । असि॑ । वी॒र॒ऽयुः । ए॒व । शूरः॑ । उ॒त । स्थि॒रः । ए॒व । ते॒ । राध्य॑म् । मनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा ह्यसि वीरयुरेवा शूर उत स्थिरः । एवा ते राध्यं मन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । हि । असि । वीरऽयुः । एव । शूरः । उत । स्थिरः । एव । ते । राध्यम् । मनः ॥ ८.९२.२८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 28
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You love and honour the brave, you are brave yourself, you are definite in intention and undisturbed in attitudes. You are now ripe for the perfection of mind to experience the soul’s beatitude in, divine presence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वीर व वीरतेचा साधक, शूर, निश्चल व दृढ स्वभावाचा असतो. जर त्याला प्रभूभक्तीच्या दिव्य आनंदाचा रस चाखण्याची इच्छा असेल तर त्याला आपले मन परिष्कृत केले पाहिजे. ॥२८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे इन्द्र ऐश्वर्य साधक! (हि वीरयुः एव असि) तू वीरों एवं वीरता का प्रेमी तो निश्चय ही है; फिर तू (शूरः उत स्थिरः) दुष्ट दोषों का निवारक व निश्चल प्रकृति भी है। (एवा) इसी भाँति (ते) तेरा मन भी (राध्यम्) संशोधित करने योग्य है॥२८॥

    भावार्थ

    वीर एवं वीरता प्रेमी साधक शूर तथा निश्चल एवं दृढ़ स्वभाव का तो होता ही है; यदि वह प्रभु भक्ति के दिव्य आनन्द का रस लेना चाहे तो वह अपने मन को सुसंस्कृत करे॥२८॥

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    विषय

    उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    तू ( वीर युः एव हि असि ) वीरों को चाहने वाला है। हे ( शूर ) शूरवीर ! ( उत त्वं स्थिरः एव हि असि ) और तू स्थिर ही है। ( ते मनः एव राध्यं ) तुझे मन को भी वश करना चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वीर-शूर - स्थिर

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक प्रभो! आप (हि) = निश्चय से (वीरयुः) = वीरों को प्राप्त होने की कामनावाले (असि एव) = हैं ही। वीरों को आप प्राप्त होते हैं। आप (एवा) = सचमुच (शूरः) = शूरवीर हैं (उत) = और (स्थिरः) = स्थिर हैं, शत्रुओं से विचलित किये जानेवाले नहीं हैं। [२] (एवा) = सचमुच (ते) = आपके द्वारा ही (मनः राध्यम्) = मन वश में करने योग्य है। आपकी उपासना से ही एक उपासक अपने मन को वश में कर पाता है। उपासक भी उपास्य प्रभु के समान 'वीर, शूर व स्थिर' बनता है और मन को वश में करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु की उपासना करते हुए प्रभु के समान ही 'वीर, शूर व स्थिर' बनें। ऐसा बनकर हम मन को भी वश में कर पायेंगे।

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