यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 10
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - वसवो देवताः
छन्दः - विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
2
राज्ञ्य॑सि॒ प्राची॒ दिग्वस॑वस्ते दे॒वाऽअधि॑पतयो॒ऽग्निर्हे॑ती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता त्रि॒वृत् त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्याश्र॑य॒त्वाज्य॑मु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु रथन्त॒रꣳसाम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु॥१०॥
स्वर सहित पद पाठराज्ञी॑। अ॒सि॒। प्राची॑। दिक्। वस॑वः। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पत॒य इत्यधि॑ऽपतयः। अ॒ग्निः। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। त्वा॒। स्तोमः॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒तु॒। आज्य॑म्। उ॒क्थम्। अव्य॑थायै। स्त॒भ्ना॒तु॒। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। साम॑। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रति॑स्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋष॑यः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽवि॒दा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
राज्ञ्यसि प्राची दिग्वसवस्ते देवाऽअधिपतयोग्निर्हेतीनाम्प्रतिधर्ता त्रिवृत्त्वा स्तोमः पृथिव्याँ श्रयत्वाज्यमुक्थमव्यथायै स्तभ्नातु रथन्तरँ साम प्रतिष्ठत्याऽअन्तरिक्षऽऋषयस्त्वा प्रथमजा देवेषु दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथन्तु विधर्ता चायमधिपतिश्च ते त्वा सर्वे सँविदाता नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके यजमानञ्च सादयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठ
राज्ञी। असि। प्राची। दिक्। वसवः। ते। देवाः। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। अग्निः। हेतीनाम्। प्रतिधर्त्तेति प्रतिऽधर्त्ता। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। त्वा। स्तोमः। पृथिव्याम्। श्रयतु। आज्यम्। उक्थम्। अव्यथायै। स्तभ्नातु। रथन्तरमिति रथम्ऽतरम्। साम। प्रतिष्ठित्यै। प्रतिस्थित्या इति प्रतिऽस्थित्यै। अन्तरिक्षे। ऋषयः। त्वा। प्रथमजा इति प्रथमऽजाः। देवेषु। दिवः। मात्रया। वरिम्णा। प्रथन्तु। विधर्त्तेति विऽधर्त्ता। च। अयम्। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। च। ते। त्वा। सर्वे। संविदाना इति सम्ऽविदानाः। नाकस्य। पृष्ठे। स्वर्ग इति स्वःऽगे। लोके। यजमानम्। च। सादयन्तु॥१०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अग्न्यादिपदार्थाः कीदृशा इत्याह॥
अन्वयः
हे स्त्रि! तेऽधिपतिर्यथा यस्या वसवो देवा अधिपतय आसन् तथा प्राची दिगिव राज्ञ्यसि। यथा हेतीनां प्रतिधर्त्ता त्रिवृत्स्तोमोऽग्निरस्ति, तथा त्वाऽहं धरामि। भवति पृथिव्यामव्यथाया उक्थमाज्यं श्रयतु प्रतिष्ठित्यै रथन्तरं साम स्तभ्नातु। यथाऽन्तरिक्षे दिवो मात्रया वरिम्णा देवेषु प्रथमजा ऋषयस्त्वा प्रथन्तु, यथा चायं विधर्त्ता ते पतिर्वर्तेत तथा तेन सह त्वं वर्त्तस्व। यथा च सर्वे संविदाना विद्वांसो नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके त्वा यजमानं च सादयन्तु तथा युवां सीदेतम्॥१०॥
पदार्थः
(राज्ञी) राजमाना प्रधाना (असि) (प्राची) पूर्वा (दिक्) दिगिव (वसवः) अग्न्याद्याः (ते) तव (देवाः) देदीप्यमानाः (अधिपतयः) अधिष्ठातारः (अग्निः) विद्युदिव (हेतीनाम्) वज्रास्त्रादीनाम्। हेतिरिति वज्रना॰॥ (निघ॰२२०) (प्रतिधर्त्ता) प्रत्यक्षं धारकः (त्रिवृत्) यस्त्रिधा वर्त्तते (त्वा) (स्तोमः) स्तोतुमर्हः (पृथिव्याम्) भूमौ (श्रयतु) सेवताम् (आज्यम्) घृतम् (उक्थम्) वक्तुमर्हम् (अव्यथायै) अविद्यमानशरीरपीडायै (स्तभ्नातु) धरतु (रथन्तरम्) रथैस्तारकम् (साम) एतदुक्तं कर्म (प्रतिष्ठित्यै) प्रतितिष्ठन्ति यस्यां तस्यै (अन्तरिक्षे) आकाशे (ऋषयः) प्रापकाः (त्वा) (प्रथमजाः) प्रथमतो जाता वायवः (देवेषु) कमनीयेषु पदार्थेषु (दिवः) विद्युतः (मात्रया) लेशविषयेण (वरिम्णा) (प्रथन्तु) उपदिशन्तु। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (विधर्त्ता) विविधानां धारकः (च) (अयम्) (अधिपतिः) उपरिष्टात् पालकः (च) (ते) (त्वा) (सर्वे) (संविदानाः) समाननिश्चयाः (नाकस्य) सुखप्रापकस्य भूगोलस्य (पृष्ठे) उपरि (स्वर्गे) सुखप्रापके (लोके) द्रष्टव्ये (यजमानम्) दातारम् (च) (सादयन्तु) अवस्थापयन्तु॥१०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पूर्वा दिक् तस्मादुत्तमास्ति यस्मात् प्रथमं सूर्य्य उदेति। ये पूर्वस्या दिशो वायव आगच्छन्ति, ते कस्मिंश्चिद्देशे मेघकराः भवन्ति कस्मिंश्चिन्नैव। अयमग्निरेव सर्वेषां धर्त्ता वायुनिमित्तो वर्धते ये तं जानन्ति ते जगति सुखं संस्थापयन्ति॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
अग्नि आदि पदार्थ कैसे गुणों वाले हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे स्त्रि! (ते) तेरा (अधिपतिः) स्वामी जैसे जिस के (वसवः) अग्न्यादिक (देवाः) प्रकाशमान (अधिपतयः) अधिष्ठाता हैं, वैसे तू (प्राची) पूर्व (दिक्) दिशा के समान (राज्ञी) राणी (असि) है। जैसे (हेतीनाम्) वज्रादि शस्त्रास्त्रों का (प्रतिधर्त्ता) प्रत्यक्ष धारणकर्त्ता (त्रिवृत्) विद्युत् भूमिस्थ और सूर्यरूप से तीन प्रकार वर्त्तमान (स्तोमः) स्तुतियुक्त गुणों से सहित (अग्निः) महाविद्युत् धारण करने वाली है, वैसे (त्वा) तुझ को तेरा पति मैं धारण करता हूं। तू (पृथिव्याम्) भूमि पर (अव्यथायै) पीड़ा न होने के लिये (उक्थम्) प्रशंसनीय (आज्यम्) घृत आदि पदार्थों को (श्रयतु) धारण कर (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा के लिये (रथन्तरम्) रथादि से तारने वाले (साम) सिद्धान्त कर्म को (स्तभ्नातु) धारण कर। जैसे (अन्तरिक्षे) आकाश में (दिवः) बिजुली का (मात्रया) लेश सम्बन्ध और (वरिम्णा) महापुरुषार्थ से (देवेषु) विद्वानों में (प्रथमजाः) पूर्व हुए (ऋषयः) वेदार्थवित् विद्वान् (त्वा) तुझ को (प्रथन्तु) शुभ गुणों से विशालबुद्धि करें (च) और जैसे (अयम्) यह (विधर्त्ता) विविध रीति से धारणकर्त्ता (ते) तेरा पति तुझ से वर्त्ते, वैसे उस के साथ तू वर्त्ता कर। (च) और जैसे (सर्वे) सब (संविदानाः) अच्छे विद्वान् लोग (नाकस्य) अविद्यमान दुःख के (पृष्ठे) मध्य में (स्वर्गे) जो स्वर्ग अर्थात् अति सुख की प्राप्ति (लोके) दर्शनीय है, उस में (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) तेरे पति को (सादयन्तु) स्थापन करें वैसे तुम दोनों स्त्री पुरुष वर्त्ता करो॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पूर्व दिशा इसलिए उत्तम कहाती है कि जिस से सूर्य प्रथम वहां उदय को प्राप्त होता है। जो पूर्व दिशा से वायु चलता है, वह किसी देश में मेघ को उत्पन्न करता है, किसी में नहीं और यह अग्नि सब पदार्थों को धारण करता तथा वायु के संयोग से बढ़ता है, जो पुरुष इन वायु और अग्नि को यथार्थ जानते हैं, वे संसार में प्राणियों को सुख पहुँचाते हैं॥१०॥
विषय
दिग्-भेद से और ऋतु-भेद से सूर्य के समान राजा के प्रताप का वर्णन ।
भावार्थ
( प्राचीदिग् ) प्राची, पूर्व दिशा जिस प्रकार सूर्य के उदय से प्रकाशमान है उसी प्रकार राजा के तेज और पराक्रम से तेजस्विनी है राज शक्ते ! तू भी ( राशी असि ) रानी के समान सर्वत्र तेजस्विनी है । ( वसवः देवाः ) वसु गण विद्वान् पदाधिकारी लोग ( ते अधिपतयः ) तेरे पालन करने वाले अधिकारी पुरुष हैं । (अग्निः) अग्नि, सूर्य के समान तेजस्वी, संतापकारी, अणी सेनापति ( हेतीनां ) समस्त शस्त्र अस्त्रों का और अस्त्रधारी सेनाओं का ( प्रतिधर्ता ) धारण करने वाला है । (त्वा ) तुमको ( त्रिवृत् स्तोमः ) त्रिवृत् नामक स्तोम अर्थात् पदाधिकरी ( पृथिव्यां ) इस पृथिवी पर ( श्रयतु) मन्त्र, प्रज्ञा, सेना इन तीनों शक्तियों सहित वर्त- मान आश्रय करे, स्थापित करे या तेरा उपभोग करे । ( आज्यम्) आज्य संग्रामोपयोगी ( उक्थम् ) युद्ध विद्या या शासन (त्वा) तुझको (स्तभ्नातु ) तुझे स्तम्भ के समान आश्रय देकर स्थिर करे । ( रथन्तरं साम ) रथों से तस्य करने वाला क्षात्रबल ( प्रतिष्ठित्या ) तेरी प्रतिष्ठा के लिये हो । ( प्रथमजाः ऋषयः ) श्रेष्ठ, मन्त्रदृष्टश लोग ( त्वा) तुकको ( देवेषु ) विद्वानों, या विजयी राजाओं, या पदाधिकारियों के बीच (दिवः मात्रया ) ज्ञान प्रकाश के बड़े परिमाण से और ( वरिम्णा ) विशाल सामर्थ्य से ( प्रथन्तु ) विस्तृत करें। ( विधर्ता) विशेष पदों के धारक जन और ( अधिपतिः च ) अधिपति, अध्यक्ष लोग (ते ) सर्वे वे सब मिल कर ( संविदाना: ) परस्पर सहयोग और सहमति करते हुए (त्वा) तुमको ( नाकस्य पृष्ठे ) दुखों से सर्वथा रहित ( पृष्ठे ) आश्रय पर ( स्वर्गे लोके) सुखमय प्रदेश में ( सादयन्तु ) स्थापित करें। और ( यजमानं च ) उसी उत्तम सुखमय लोक में इस राष्ट्रयज्ञ के विधाता राजा को भी स्थापित करें । शत० ८ । ६ । ५ ॥
टिप्पणी
१ राज्ञ्यसि। २ प्रथमजा ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वस्वादयो नाकसदो देवताः । (१) ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवत: । ( २ ) ब्राह्मी बृहती । मध्यमः॥
विषय
राज्ञी [गृहपत्नी]
पदार्थ
१. हे गृहपत्त्रि! तू (राज्ञी असि) = [राज्= दीप्तौ, to regulate, to direct ] तू अपने व्यवहार से दीप्त होनेवाली है। तेरा जीवन बड़ा व्यवस्थित है, इसी से तो तू सारे घर को व्यवस्थित करनेवाली है। २. (प्राची दिक्) = प्राची तेरी दिशा है। यह दिशा तुझे तेरे मार्ग का संकेत करनेवाली है। [ प्र अञ्च] यह तुझे निरन्तर आगे बढ़ने का निर्देश कर रही है। ३. (वसवः ते देवाः) = वसु तेरे आराध्य देव हैं, शरीर के पूर्ण स्वास्थ्य के लिए तू निवासक तत्त्वों का ध्यान करनेवाली है। वे देव ही तेरे (अधिपतयः) = आधिक्येन रक्षा करनेवाले हैं । ४. (अग्निः) = उन्नतिशील, अग्रेणी यह तेरा पति (हेतीनाम्) = घर पर पड़नेवाले वज्रों [हेति:- वज्रम् - नि० २।२०] का, कष्टों का (प्रतिधर्ता) = प्रतीकार करनेवाला है। घर पर होनेवाले आक्रमणों से बचाना पति का ही काम है, पति ही रक्षक है [हेतीनाम् = उपद्रवकारिणीनां परायुधानां प्रतिधर्ता निराकर्त्ता - म० ] । ५. (त्रिवृत्) = धर्मार्थकाम तीनों का होना और इसी रूप में होनेवाला (स्तोमः) = यह प्रभु - स्तवन (त्वा) = तुझे (पृथिव्याम्) = इस शरीर में श्रयतु सेवन करनेवाला हो। धर्मार्थकाम में सम्यक् वृत्ति शरीर में उत्तम निवास के लिए तेरी सहायता करे। ६. (उक्थम्) = [वक्तुमर्ह] प्रशंसनीय, स्तुति के योग्य (आज्यम्) = घृत अर्थात् प्रशंसनीय गोघृत तुझे (अव्यथायै) = किसी प्रकार की व्यथा - पीड़ा न होने देने के लिए (स्तभ्नातु) = थामे, दृढ़ करे। प्रशस्य गोघृत के , सेवन से तू सब रोग व पीड़ाओं से ऊपर उठ । ७. (रथन्तरं साम) = 'मुझे शरीररूप रथ से इस भवसागर को तैरना है, जीवन यात्रा को पूरा करना है' ऐसा निश्चय ही मानो प्रभु-स्तवन है । यह साम= प्रभु-स्तवन (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में (प्रतिष्ठित्या) = प्रतिष्ठिति के लिए हो । यह निश्चय मन में स्थिरता से रहे। यह तेरे जीवन का मौलिक सिद्धान्त बन जाए। ८. (देवेषु) = विद्वानों में जो (प्रथमजा:) = प्रथम विभाग में होनेवाले उच्चकोटि के (ऋषय:) = ज्ञानी हैं, वे दिवो (मात्रया) = अपने-अपने ज्ञान के अंश से, (वरिम्णा) = हृदय की विशालता से (प्रथन्तु) = तेरे जीवन की शक्तियों का विस्तार करें। ९. (विधर्त्ता) = आपत्तियों का प्रतीकार करनेवाला 'अग्निः', (च अयम् अधिपतिः) = और ये अधिष्ठातृरूपेण रक्षक निवासकदेव ते त्वा सर्वे और वे सारे ऋषि (संविदाना:) = ऐकमत्यवाले होकर (नाकस्य पृष्ठे) = जहाँ दुःख है ही नहीं, उस लोक के ऊपर (स्वर्गे लोके) = उत्तम कर्मों से अर्जनीय लोक में (त्वा) = तुझे (यजमानं च) = और यज्ञशील गृहपति को (सादयन्तु) = स्थापित करें |
भावार्थ
भावार्थ- पत्नी ज्ञान - दीप्त, निरन्तर उन्नति पथ पर बढ़नेवाली हो, धर्मार्थ, काम का समानुपात में सेवन करती हो। घृतादि के प्रयोग से शरीर को स्वस्थ रक्खे। शरीररूप रथ से जीवन यात्रा को पूर्ण करने का निश्चय करे। पति 'अग्नि' = अग्रेणी हो । ऐसा होने पर घर स्वर्ग बन जाता है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पूर्व दिशेला सूर्य प्रथम उगवतो यासाठी ती उत्तम मानली जाते. पूर्व दिशेकडून वाहणारा वारा एखाद्या देशात मेघ उत्पन्न करतो, तर एखाद्या देशात मेघ उत्पन्न करत नाही. अग्नी हा सर्व पदार्थांना धारण करतो व वायूच्या संयोगाने वाढतो. जी माणसे या वायू व अग्नीला यथार्थपणे जाणतात ती जगातील प्राण्यांना सुखी करतात.
विषय
अग्नी आदी पदार्थांचे गुण कोणते, पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे स्त्री (पतीची पत्नी) ज्याप्रमाणे तुझा (ते) (अधिपति: पतीतचे (वसळ:) अग्नी आदी (देवा:) प्रकाशमान वसु (अधिपतय:) अधिष्ठता आहेत, त्याप्रमाणे तू देखील (प्राची) पूर्व दिशेसारखी (राज्ञी) (आपल्या पतीची लाडकी) राणी) (असि) आहेस. ज्याप्रमाणे (कोणी योद्धा) (हेतीनाम्) वज्र आदी शस्त्रास्त्र (प्रतिधर्ता) धारण करतो आणि (त्रिवृत्) ही विद्युत, (भूगर्भरच), भूमिस्य आणि सूर्यस्थ या तीन क्रारात विद्यमान असून (स्तोम:) स्तवनीय ना प्रशंसनीय आहे व (अग्नि:) महाविद्युत हे रुप धारण करणारी आहे, त्याप्रमाणे (त्वा) तुला तुझ्या पतीने म्हणजे मी धारण करावे. तू (पृथिव्याम्) या भूमीवर (अव्यथायै) कोणत्याप्रकारची पीडा, दु:ख न होण्यासाठी (उस्यम्) प्रशंसनीय (आज्यम्) घृत आदी पदार्थ (श्रयतु) धारण कर (यज्ञ करीत जा वा घृतादी पौष्टिक पदार्थांचे सेवन कर) (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा प्राप्त करण्यासाठी (रथन्तरम्) रथ आदी वाहनांद्वारा दूर जाऊन (साम) व्यवहार वा कर्माचे (स्तुभ्नातु) आचरण कर. (अंतरिक्षे) आकाश जशी (दिव:) विद्युतेचे (मात्रया) स्थान वा महत्त्व आहे आणि (शरिम्णा) अत्यंत पुरुषार्थकरून (देनेषु) विद्वज्जनांमध्ये (प्रथमजा:) पूर्वी जे होऊन गेलेले (ऋृषय:) वेदार्थवित् विद्वांन झाले आहेत (वा आज आहेत) त्यांच्या ज्ञानापासून (त्वा) तुला शुभगुणांकडे जाण्याची प्रेरणा मिळावी आणि तुझे मन विशाल व्हावे, (अशी आमची कामना आहे) (च) याशिवाय (अयम्) हा बिधर्त्रा) अनेक प्रकारे तुझे पालन-पोषण करणारा तुझा पती तुझ्याशी ज्याप्रमाणे प्रेमाने वागेल, तू ही त्याच्याशी तेवढ्याच प्रेमाने वागत जा. (च) आणि सर्वे) सर्व (संविदाना:) श्रेष्ठ विद्वज्जन (नाकस्य) अविद्यमान दु:खाच्या (पृष्ठे) मध्ये (आजच्या आपल्या सुखमय दिवसांमध्ये) (स्वर्गे) जी स्वर्ग अर्थात अतिसुकाची अनुभूती होत आहे (लोके) त्याच आनंदमय परिस्थितीत विद्वज्जनांनी (त्वा) तुला (च) आणि तुझ्या (यजमान्) पतीला (सादयन्तु) नेहमी ठेवावे (त्यांच्याकडून उपदेश घेत तुम्ही दोघे सदा प्रसन्न रहा) तुम्ही दोघां पति-पत्नींनीदेखील अशा प्रकारच वागावे (की ज्यामुळे तुम्ही सदा आनंदित रहाल) ॥10॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. पूर्वदिशेला यासाठी उत्तम दिशा म्हटले जाते की त्या दिशेत सूर्य उदित होत असतो. पूर्व दिशेकडून येणारा वायू कोणत्या देश-प्रदेशात मेघ निर्माण वा उत्पन्न करतो, तर कोणत्या प्रदेशात मेघोत्पत्ती करीत नाही. या व्यतिरिक्त हा अग्नी सर्व पदार्थांना धारण करतो आणि हा वायूच्या संयोगाने वृद्धी पावतो. जे लोक या वायू आणि अग्नीच्या गुणांना यथार्थपणे जाणतात, तेच या जगात सर्व प्राण्यांना सुखी करतात. ॥10॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Woman thou art queen brilliant like the East. Eight Vasus are thy protectors. Thou possessest the fire that resides in arms and weapons, that pervades the sun, lightning and Earth, and is full of praise. Get butter on the Earth for enjoyment. For thy prosperity, possess the military force of aeroplanes. May the aged vedic seers, with great power, and brilliance of knowledge, fill thee with good qualities and wisdom. This husband of thine is thy protector in diverse ways. May all the learned persons, unanimously settle thee and thy husband in a happy place on this comfortable Earth.
Meaning
You are the queen refulgent like the East direction. All the Vasu havens of life are your divine protectors. Agni, Lord of flames and wielder of the thunderbolt, wards off your adversities. May the Trivrit stoma hymns settle you on the earth. May the yajna libations of ghee and Uktha hymns firmly stabilise you against disturbance. May the Rathantara Sama hymns expand your honour to the skies. May the foremost Rishis, saints and scholars spread your honour and reputation with the measure of your heavenly excellence among the noblest people. May this lord of yours and the Lord sustainer of the world and all those powers who know, together in unison, establish you and the yajamana on the heights of the heavenly regions of bliss.
Translation
You are rajni (queen); the region is eastern; Vasus (planetary abodes) are your overlord Nature's bounties. Agni (adorable Lord) is your warder off of the hostile weapons. May the trivrt (of three verses) praise-song help to establish you on the earth. May the ajya (early morning) litany keep you firm against slipping. May the rathantara saman (chant) establish you securely in the mid-space. May the seers, foremost among the enlightened ones, extol you to the greatness of the heaven. May this sustainer and overlord of yours and all the others, with one mind, place you as well as the sacrificer on the top of the sorrowless abode in the world of light. (1)
बंगाली (1)
विषय
অগ্ন্যাদিপদার্থাঃ কীদৃশা ইত্যাহ ॥
অগ্নি আদি পদার্থ কেমন গুণযুক্ত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! (তে) তোমার (অধিপতিঃ) স্বামী যেমন যাহার (বসবঃ) অগ্নাদিক (দেবাঃ) প্রকাশমান (অদিপতয়ঃ) অধিষ্ঠিতা, সেইরূপ তুমি (প্রাচী) পূর্ব (দিক্) দিকের সমান (রাজ্ঞী) রাণী (অসি) হও, যেমন (হেতীনাম্) বজ্রাদি শস্ত্রাস্ত্রসমূহের (প্রতিধর্ত্তা) প্রত্যক্ষ ধারণ করিয়া, (ত্রিবৃৎ) বিদ্যুৎ ভূমিস্থ এবং সূর্য্যরূপ দ্বারা তিন প্রকার বর্ত্তমান (স্তোমঃ) স্তুতিযুক্ত গুণগুলির সহিত (অগ্নিঃ) মহাবিদ্যুৎ ধারণকারিণী সেইরূপ (ত্বা) তোমাকে তোমার পতি আমি ধারণ করি । তুমি (পৃথিব্যাম্) ভুমিতে (অব্যথায়ৈ) পীড়া না হওয়ার জন্য (উক্থম্) প্রশংসনীয় (আজ্যম্) ঘৃতাদি পদার্থ সমূহকে (শ্রয়তু) ধারণ কর, (প্রতিষ্ঠিত্যৈ) প্রতিষ্ঠার (রথন্তরম্) রথাদি দ্বারা উত্তীর্ণকারী (সাম) সিদ্ধান্ত কর্মকে (স্তভ্নাতু) ধারণ কর, যেমন (অন্তরিক্ষে) আকাশে (দিবঃ) বিদ্যুতের (মাত্রয়া) লেশ সম্বন্ধ এবং (বরিম্ণা) মহাপুরুষার্থ দ্বারা (দেবেষু) বিদ্বান্দিগের মধ্যে (প্রথমজাঃ) প্রথমজাত (ঋষয়ঃ) বেদার্থবিৎ বিদ্বান্ (ত্বা) তোমাকে (প্রথন্তু) শুভ গুণগুলি দ্বারা বিশাল বুদ্ধি করুক (চ) এবং যেমন (অয়ম্) এই (বিধর্ত্তা) বিবিধ রীতিপূর্বক ধারণকর্ত্তা (তে) তোমার পতি তোমার সহিত আচরণ করুক সেইরূপ তৎসহ তুমি আচরণ কর (এবং) এবং যেমন (সর্বে) সব (সংবিদানাঃ) উত্তম বিদ্বান্ গণ (নাকস্য) অবিদ্যমান দুঃখের (পৃষ্ঠে) মধ্যে (স্বর্গে) যে স্বর্গ অর্থাৎ অত্যন্ত সুখের প্রাপ্তি (লোকে) দর্শনীয় তাহাতে (ত্বা) তোমাকে (চ) এবং (য়জমানম্) তোমার পতিকে (সাদয়ন্তু) স্থাপন করে । সেইরূপ তোমরা উভয়ে স্ত্রী-পুরুষ আচরণ কর ॥ ১০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । পূর্ব দিককে এইজন্য উত্তম বলা হয় যে, যাহাতে সূর্য্য প্রথম সেখানে উদয় প্রাপ্ত হয় । যে পূর্ব দিক্ হইতে বায়ু প্রবাহিত হয় সে কোন দেশে মেঘকে সঞ্চার করে, কোথাও নয় এবং এই অগ্নি সকল পদার্থকে ধারণ করিয়া তথা বায়ুর সংযোগ দ্বারা বৃদ্ধি পায় । যে পুরুষ এই বায়ু ও অগ্নিকে যথার্থ জানে তাহারা সংসারে প্রাণিদিগকে সুখ পৌঁছাইয়া থাকে ॥ ১০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
রাজ্ঞ্য॑সি॒ প্রাচী॒ দিগ্বস॑বস্তে দে॒বাऽঅধি॑পতয়ো॒ऽগ্নির্হে॑তী॒নাং প্র॑তিধ॒র্ত্তা ত্রি॒বৃত্ত্বা॒ স্তোমঃ॑ পৃথি॒ব্যাᳬंশ্র॑য়॒ত্বাজ্য॑মু॒ক্থমব্য॑থায়ৈ স্তভ্নাতু রথন্ত॒রꣳসাম॒ প্রতি॑ষ্ঠিত্যাऽঅ॒ন্তরি॑ক্ষ॒ऽঋষ॑য়স্ত্বা প্রথম॒জা দে॒বেষু॑ দি॒বো মাত্র॑য়া বরি॒ম্ণা প্র॑থন্তু বিধ॒র্ত্তা চা॒য়মধি॑পতিশ্চ॒ তে ত্বা॒ সর্বে॑ সংবিদা॒না নাক॑স্য পৃ॒ষ্ঠে স্ব॒র্গে লো॒কে য়জ॑মানং চ সাদয়ন্তু ॥ ১০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
রাজ্ঞ্যসীত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । বসবো দেবতাঃ । পূর্বস্য বিরাড্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । প্রথমজা ইত্যুত্তরস্য ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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