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यजुर्वेद अध्याय - 15

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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 44
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
    2

    अग्ने॒ तम॒द्याश्वं॒ न स्तोमैः॒ क्रतुं॒ न भ॒द्रꣳ हृ॑दि॒स्पृश॑म्। ऋ॒ध्यामा॑ त॒ऽओहैः॑॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। तम्। अ॒द्य। अश्व॑म्। न। स्तोमैः॑। क्रतु॑म्। न। भ॒द्रम्। हृ॒दि॒स्पृश॒मिति॑ हृदि॒ऽस्पृश॑म्। ऋ॒ध्याम॑। ते॒ ओहैः॑ ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने तमद्याश्वन्न स्तोमैः क्रतुं न भद्रँ हृदिस्पृशम् । ऋध्यामा तऽओहैः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। तम्। अद्य। अश्वम्। न। स्तोमैः। क्रतुम्। न। भद्रम्। हृदिस्पृशमिति हृदिऽस्पृशम्। ऋध्याम। ते ओहैः॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 44
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सः कीदृशः स्यादित्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्नेऽध्यापक! वयं ते तव सकाशादोहैः स्तोमैरद्याश्वं न भद्रं क्रतुं न तं हृदिस्पृशं प्राप्य सततमृध्याम॥४४॥

    पदार्थः

    (अग्ने) अध्यापक! (तम्) विद्याबोधम् (अद्य) अस्मिन् वर्त्तमाने समये (अश्वम्) सुशिक्षितं तुरङ्गम् (न) इव (स्तोमैः) विद्यास्तुतिविशेषैर्वेदभागैः (क्रतुम्) प्रज्ञानम् (न) इव (भद्रम्) कल्याणकरम् (हृदिस्पृशम्) यो हृद्यात्मनि स्पृशति तम् (ऋध्याम) वर्धेमहि। अत्र अन्येषामपि॰ [अ॰६.३.१३७] इति दीर्घः (ते) तव सकाशात् (ओहैः) विद्यासुखप्रापकैः॥४४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारौ। अध्येतारो यथा सुशिक्षितेनाश्वेन सद्योऽभीष्टं स्थानं गच्छन्ति, यथा विद्वांसः सर्वशास्त्रबोधसंपन्नया कल्याणकर्त्र्या प्रज्ञया धर्मार्थकाममोक्षान् प्राप्नुवन्ति तथा तेभ्योऽध्यापकेभ्यो विद्यापारं गत्वा प्रशस्तां प्रज्ञां प्राप्य स्वयं वर्धेरन्, अन्यांश्च वेदाध्यापनोपदेशाभ्यामेधयेयुः॥४४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अध्यापक जन! हम लोग (ते) आप से (ओहैः) विद्या का सुख देने वाले (स्तोमैः) विद्या की स्तुतिरूप वेद के भागों से (अद्य) आज (अश्वम्) घोड़े के (न) समान (भद्रम्) कल्याणकारक (क्रतुम्) बुद्धि के (न) समान (तम्) उस (हृदिस्पृशम्) आत्मा के साथ सम्बन्ध करने वाले विद्याबोध को प्राप्त हो के निरन्तर (ऋध्याम) वृद्धि को प्राप्त हों॥४४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। अध्येता लोगों को चाहिये कि जैसे अच्छे शिक्षित घोड़े से अभीष्ट स्थान में शीघ्र पहुंच जाते हैं, जैसे विद्वान् लोग सब शास्त्रों के बोध से युक्त कल्याण करने हारी बुद्धि से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फलों को प्राप्त होते हैं, वैसे उन अध्यापकों से पूर्ण विद्या पढ़ प्रशंसित बुद्धि को पा के आप उन्नति को प्राप्त हों तथा वेद के पढ़ाने और उपदेश से अन्य सब मनुष्यों की भी उन्नति करें॥४४॥

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    विषय

    यज्ञ रूप, प्रजापति।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्रणी नेत: ! ( अश्वं न ) जिस प्रकार वेगवान् अश्व को शीघ्रता से पहुंचा देने के कारण उत्तम साधुवादों और अन्नों से समृद्ध करते हैं और ( स्तोमैः क्रतुं न ) जिस प्रकार स्तुति समूहों और वेद मन्त्रों से यज्ञ कर्म को समृद्ध करते हैं। उसी प्रकार ( भद्रं ) कल्याणकारी ( हृदिस्पृशम् ) हृदय में स्पर्श करने वाले अतिप्रिय ( तम् ) उस परम उपकारी तुझ को भी ( ते ) तेरे योग्य ( ओहैः ) नाना पुरस्कार योग्य पदार्थों से ( ऋध्याम ) समृद्ध करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । आर्षी गायत्री । षड्जः ॥

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    विषय

    स्तुति+यज्ञ-शक्ति+उत्तम संकल्प

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = हमारी उन्नतियों के साधक प्रभो! (ते ओहै:) = [तव प्रापणैः] आपको प्राप्त करानेवाले (स्तोमैः) = स्तुतिसमूहों के साथ (अद्य) = आज हम (तम्) = उस-गत मन्त्र में वर्णित यज्ञ को (ऋध्याम्) = समृद्ध करें। २. उसी प्रकार समृद्ध करें (न) = जैसे [न- इव] (अश्वम्) = क्रियाओं में व्याप्त होनेवाली इन्द्रियों को । 'इन्द्रियाणि हयानाहु:'- हमारे इन्द्रियरूप अश्व खूब शक्तिशाली हों। ३. हम यज्ञ को उसी प्रकार समृद्ध करें (न) = जैसे (हृदिस्पृशम्) = [ हृदिस्पृशति इति] हृदय में जँच जानेवाले (भद्रम्) = शुभ (क्रतुम्) = संकल्प को। हमारे संकल्प शुभ तो हों ही, ऐसे शुभ हों कि सुननेवाले को भी जँचें, उसके हृदय पर उनका उत्तम प्रभाव हो। ४. एवं मन्त्रार्थ से यह स्पष्ट हैं कि [क] हम स्तुति करें, वह स्तुति जो हमारे जीवनों में एक विशिष्ट परिवर्तन लाकर हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाली हो। [ख] इन स्तुतियों के साथ हम पिछले मन्त्र में वर्णित यज्ञ को सिद्ध करनेवाले हों। [ग] इन स्तुतियों व यज्ञों के द्वारा हम अपनी इन्द्रियों को उत्तम शक्ति सम्पन्न बनाएँ और [घ] साथ ही प्रभु-स्तवन व यज्ञों के कारण हमारे संकल्प भी सदा उत्तम हों, सुननेवाला भी उनकी प्रशंसा करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्तुति करें, यज्ञमय जीवनवाले हों, हमारी इन्द्रियाँ सशक्त हों, संकल्प उत्तम हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जसे प्रशिक्षित घोडे योग्य ठिकाणी वेगाने पोहोचतात व जसे विद्वान लोक सर्व शास्त्रांचा बोध करून घेऊन कल्याणकारी बुद्धी ठेवून धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करतात तसे विद्यार्थ्यांनी अध्यापकांकडून पूर्ण विद्या प्राप्त करून उत्तम बुद्धीने स्वतः उन्नती करून घ्यावी व वेदांचा उपदेश करून सर्व माणसांनाही उन्नत करावे.

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    विषय

    पुनश्च अध्यापक कसा असावा, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) अध्यापक महोदय, (ते) आपल्या जवळ जे (औहे:) विद्या देणारे (स्तोमै:) विद्येची स्तुती करणारे (ज्ञानाची महती सांगणारे) जे वेदज्ञान आहे, (त्या ज्ञानाला आम्ही प्राप्त करावे) एका (अश्वम्) (न) घोड्याप्रमाणे आणि (भद्रम्) कल्याणकारक (क्रतुम्) बुद्धीप्रमाणे आम्ही (तम्) त्या (हृदिस्पृशम्) आत्म्याला स्पर्श करणारे (जागृत करणारे) विद्या ज्ञान प्राप्त करून निरंतर (ऋध्याम) वृद्धींगत होत राहू (आपल्या सहवासात राहून आम्ही सामान्यजन वेदादी ज्ञानाने संपन्न होऊ, अशी आमची इच्छा आहे) ॥44॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात दोन उपमा अलंकार आहेत. अध्येताजनांचे कर्तव्य आहे की ज्याप्रमाणे एक प्रशिक्षित अश्वावर आरूढ होऊन घोडेस्वार शीघ्रच इच्छित स्थानाला पोहचतात, त्याप्रमाणे अध्येता (विद्वज्जना सर्व शास्त्रांचे ज्ञान प्राप्त करून कल्याणकारी भावना ठेऊन धर्म, अर्थ, काम आणि क्षेम, या फळांची प्राप्ती करतात. त्या अध्यापकांकडून पूर्ण विद्या प्राप्त करून, उत्तम बुद्धीमान होऊन इतर लोकांनी स्वत:ची उन्नती साधावी आणि वेदांचे अध्यापक व उपदेशाद्वारे अन्य लोकांचीही उन्नती करावी ॥44॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O teacher, we derive today from thee like a disciplined horse, the pleasant knowledge of the Vedas. May we always make progress, having received the knowledge which touches our soul, and is blissful like intellect.

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    Meaning

    Agni, lord of light and knowledge, like the horse broke in to perfection by training, like the holy yajna completed and perfected with the hymns of divine worship, may we now receive that knowledge and virtue which touches the heart and, with you close by us and revelations of that sacred knowledge, come to prosperity and perfection.

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    Translation

    We exalt and glorify you this day, O adorable Lord, with hymns and benevolent acts, You are swift as a horse, and propitious like a benefactor and full of touching affection. (1)

    Notes

    Asvain na, like a horse. Stomaiḥ, with hymns. Ohaih, वहन्ति फलं प्रापयन्ति ये तैः, with those that bring us fruit (of our actions); fruitful. Ṛdhyāma, समर्धयाम, we accomplish; we bring to you. Hrdispṛśam, touching the heart; full of affection. Kratum, यज्ञं संकल्पं वा, the sacrifice, or resolve.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ সঃ কীদৃশঃ স্যাদিত্যাহ ॥
    পুনঃ সে কেমন হইবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) অধ্যাপক ! আমরা (তে) আপনার হইতে (ওহৈঃ) বিদ্যার সুখদাতা (স্তোমৈঃ) বিদ্যার স্তুতিরূপ বেদের অংশগুলি হইতে (অদ্য) আজ (অশ্বম্) অশ্বের (ন) সমান (ভদ্রম্) কল্যাণকারক (ক্রতুম্) বুদ্ধির (ন) সমান (চম্) সেই (হৃদিস্পৃশম্) আত্মা সহ সম্পর্ককারী বিদ্যাবোধ প্রাপ্ত হইয়া নিরন্তর (ঋধ্যাম্) বৃদ্ধিকে প্রাপ্ত হই ॥ ৪৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে দুই উপমালঙ্কার আছে । অধ্যেতাগণের উচিত যে, যেমন উত্তম শিক্ষিত অশ্ব দ্বারা অভীষ্ট স্থানে পৌঁছান যায়, যেমন বিদ্বান্গণ সকল শাস্ত্রের বোধের সঙ্গে যুক্ত কল্যাণকারিণী বুদ্ধি দ্বারা ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষ ফল সমূহকে প্রাপ্ত হন, সেইরূপ সেই সব অধ্যাপকদিগের হইতে পূর্ণ বিদ্যা পাঠ করিয়া প্রশংসিত বুদ্ধি লাভ করিয়া স্বয়ং উন্নতি লাভ কর এবং বেদের পাঠন ও উপদেশ দ্বারা অন্য সব মনুষ্যদিগেরও উন্নতি করিবে ॥ ৪৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অগ্নে॒ তম॒দ্যাশ্বং॒ ন স্তোমৈঃ॒ ক্রতুং॒ ন ভ॒দ্রꣳ হৃ॑দি॒স্পৃশ॑ম্ ।
    ঋ॒ধ্যাম॑ ত॒ऽওহৈঃ॑ ॥ ৪৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নে তমিত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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