यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 13
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - मरुतो देवताः
छन्दः - भुरिगब्रह्मी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
3
स्व॒राड॒स्युदी॑ची॒ दिङ्म॒रुत॑स्ते दे॒वाऽअधि॑पतयः॒ सोमो॑ हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्तैक॑वि॒ꣳशस्त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्या श्र॑यतु॒ निष्के॑वल्यमु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु वैरा॒जꣳसाम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु॥१३॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। उदी॑ची। दिक्। म॒रुतः॑। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। सोमः॑। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। एक॑विꣳश॒इत्येक॑ऽविꣳशः। त्वा॒। स्तोमः॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒तु॒। निष्के॑वल्यम्। निःऽके॑वल्य॒मिति॒ निःऽके॑वल्यम्। उ॒क्थम्। अव्य॑थायै। स्त॒भ्ना॒तु॒। वै॒रा॒जम्। साम॑। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रति॑स्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋष॑यः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽविदा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥१३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वराडस्युदीच्य्दिङ्मरुतस्ते देवाऽअधिपतयः सोमो हेतीनाम्प्रतिधर्तैकविँशस्त्वा स्तोमः पृथिव्याँ श्रयतु निष्केवल्यमुक्थमव्यथायै स्तभ्नातु वैराजँ साम प्रतिष्ठित्याऽअन्तरिक्षऽऋषयस्त्वा प्रथमजा देवेषु दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथन्तु विधर्ता चायमधिपतिश्च ते त्वा सर्वे सँविदाता नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके यजमानञ्च सादयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठ
स्वराडिति स्वऽराट्। असि। उदीची। दिक्। मरुतः। ते। देवाः। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। सोमः। हेतीनाम्। प्रतिधर्त्तेति प्रतिऽधर्त्ता। एकविꣳशइत्येकऽविꣳशः। त्वा। स्तोमः। पृथिव्याम्। श्रयतु। निष्केवल्यम्। निःऽकेवल्यमिति निःऽकेवल्यम्। उक्थम्। अव्यथायै। स्तभ्नातु। वैराजम्। साम। प्रतिष्ठित्यै। प्रतिस्थित्या इति प्रतिऽस्थित्यै। अन्तरिक्षे। ऋषयः। त्वा। प्रथमजा इति प्रथमऽजाः। देवेषु। दिवः। मात्रया। वरिम्णा। प्रथन्तु। विधर्त्तेति विऽधर्त्ता। च। अयम्। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। च। ते। त्वा। सर्वे। संविदाना इति सम्ऽविदानाः। नाकस्य। पृष्ठे। स्वर्ग इति स्वःऽगे। लोके। यजमानम्। च। सादयन्तु॥१३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्याह॥
अन्वयः
हे स्त्रि! यथा स्वराडुदीची दिग(स्य)स्ति तथा ते पतिर्भवतु यस्या दिशो मरुतो देवा अधिपतयः सन्ति तद्वद् य एकविंशः स्तोमः सोमो हेतीनां प्रतिधर्त्ता जनस्त्वा पृथिव्यां श्रयत्वव्यथायै निष्केवल्यमुक्थं प्रतिष्ठित्यै वैराजं साम च स्तभ्नातु यथा तेऽन्तरिक्षे स्थिता देवेषु प्रथमजा दिवो मात्रया वरिम्णा सह वर्त्तमाना ऋषयः सन्ति तथाऽयमेवैतेषां विधर्त्ता चाधिपतिरस्ति तत्र विषये ते सर्वे संविदाना विद्वांसस्त्वा प्रथन्तु नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके त्वा यजमानं च सादयन्तु॥१३॥
पदार्थः
(स्वराट्) या स्वयं राजते (असि) अस्ति (उदीची) य उदङ्ङुत्तरं देशमञ्चति सा (दिक्) (मरुतः) वायवः (ते) तव (देवाः) दिव्यसुखप्रदाः (अधिपतयः) (सोमः) चन्द्रः (हेतीनाम्) वज्रवद्वर्त्तमानानां किरणानाम् (प्रतिधर्ता) (एकविंशः) एतत्संख्यापूरकः (त्वा) त्वाम् (स्तोमः) स्तुतिसाधकः (पृथिव्याम्) (श्रयतु) (निष्केवल्यम्) निरन्तरं केवलं स्वरूपं यस्ंिमस्तत्र साधुम्। अत्र केर्धातोर्बाहुलकादौणादिको वलच् प्रत्ययः (उक्थम्) वक्तुं योग्यम् (अव्यथायै) अविद्यमानेन्द्रियभयायै (स्तभ्नातु) (वैराजम्) विराट्प्रतिपादकम् (साम) (प्रतिष्ठित्यै) (अन्तरिक्षे) (ऋषयः) बलवन्तः प्राणाः (त्वा) (प्रथमजाः) (देवेषु) (दिवः) (मात्रया) (वरिम्णा) (प्रथन्तु) (विधर्त्ता) विविधस्य शीतस्य धर्त्ता (च) (अयम्) (अधिपतिः) अधिष्ठाता (च) (ते) (त्वा) (सर्वे) (संविदानाः) सम्यक् कृतप्रतिज्ञाः (नाकस्य) (पृष्ठे) (स्वर्गे) (लोके) (यजमानम्) (च) (सादयन्तु)॥१३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसः सोमं प्राणांश्च साधिष्ठानान् विदित्वा कार्येषूपयुज्य सुखं लभन्ते तथा अध्यापका अध्यापिकाश्च शिष्यान् शिष्याश्च विद्याग्रहणायोपयुज्यानन्दयन्तु॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे दोनों कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे स्त्रि! जैसे (स्वराट्) स्वयं प्रकाशमान (उदीची) उत्तर (दिक्) दिशा (असि) है, वैसा (ते) तेरा पति हो जिस दिशा के (मरुतः) वायु (देवाः) दिव्यरूप (अधिपतयः) अधिष्ठाता हैं, उन के सदृश जो (एकविंशः) इक्कीस संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति का साधक (सोमः) चन्द्रमा (हेतीनाम्) वज्र के समान वर्त्तमान किरणों का (प्रतिधर्त्ता) धारने हारा पुरुष (त्वा) तुझ को (पृथिव्याम्) भूमि में (श्रयतु) सेवन करे, (अव्यथायै) इन्द्रियों के भय से रहित तेरे लिये (निष्केवल्यम्) जिस में केवल एक स्वरूप का वर्णन हो, वह (उक्थम्) कहने योग्य वेदभाग तथा (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा के लिये (वैराजम्) विराट् रूप का प्रतिपादक (साम) सामवेद का भाग (स्तभ्नातु) ग्रहण करे (च) और जैसे तेरे मध्य में (अन्तरिक्षे) अवकाश में स्थित (देवेषु) इन्द्रियों में (प्रथमजाः) मुख्य प्रसिद्ध (दिवः) ज्ञान के (मात्रया) भागों से (वरिम्णा) अधिकता के साथ वर्त्तमान (ऋषयः) बलवान् प्राण हैं, वैसे (अयम्) यही इन प्राणों का (विधर्त्ता) विविध शीत को धारणकर्त्ता (च) और (अधिपतिः) अधिष्ठाता है (ते) वे (सर्वे) सब इस विषय में (संविदानाः) सम्यक् बुद्धिमान् विद्वान् लोग प्रतिज्ञा से (त्वा) तुझ को (प्रथन्तु) प्रसिद्ध करें और (नाकस्य) उत्तम सुखरूप लोक के (पृष्ठे) ऊपर (स्वर्गे) सुखदायक (लोके) लोक में (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) यजमान पुरुष को (सादयन्तु) स्थित करें॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग आधार के सहित चन्द्रमा आदि पदार्थों और आधार के सहित प्राणों को यथावत् जान के संसारी कार्यों में उपयुक्त करके सुख को प्राप्त होते हैं, वैसे अध्यापक स्त्री-पुरुष कन्या-पुत्रों को विद्या-ग्रहण के लिये उपयुक्त करके आनन्दित करें॥१३॥
भावार्थ
( उदीची दिग् ) उत्तर दिशा जिस प्रकार ध्रुव प्रदेश में स्वयं उत्पन्न विद्युत धाराओं से स्वतः प्रकाशमान है, उसी प्रकार हे राजाशक्ते ! तू ( स्वराड् असि ) स्वयं दीप्तिमती होने से 'स्वराट्' है । ( ते अधिपतयः ) तेरे स्वामी ( मरुतः देवाः ) वायुओं के समान तीव्र गतिशील, शरीर में प्राणों के समान जीवनप्रद विद्वान् हैं । ( सोमः हेतीनां प्रतिधर्त्ता ) शस्त्रों के धारणकर्ता, वशयिता 'सोम' है । ( एकविंशः त्वा स्तोमः पृथिव्यां श्रयतु ) शरीर गत २१ अंगों के समान २१ विभागों के अधिकारीगण तुझको पृथ्वी पर स्थिर रखें। (निष्केवल्यम् उक्थम् अव्यथायैस्तभ्नातु ) पीड़ा कष्ट न होने देने के लिये 'निष्केवल्य उक्थ' अर्थात् एकमात्र राजा का ही बल उसको पुष्ट करे । ( वैराजं साम प्रतिष्ठित्यै ) 'वैराज साम अर्थात् सर्वोपरि राजा की आज्ञा का बल ही उसकी प्रतिष्ठा के लिये पर्याप्त है । ( अन्तरिक्षे ऋषयः ० इत्यादि ) पूर्ववत् ॥ शत० ८। ६ ।१। ८ ॥ निष्केवल्यम् उक्थम् अथैतदिन्द्रस्यैव निष्केवल्यम् । तनिष्केवल्यस्य निष्केवल्यत्वम् ॥ कौ० १५ । ४ ॥ आत्मा यजमानस्य 'निष्केवल्यम् ॥ ऐ० ८ ।२ ॥ राजा का अपना ही सर्वोपरि प्रधान पदाधिकार 'निष्केवल्य । उसके अधिकारों का विधान निष्केवल्य उक्थ है । 'वैराजं साम' – स वैराजमसृजत तदग्रेर्घोषोऽन्वसृज्यत । तां० ७ ।८।१। प्रजापतिर्वैराजम् । तां० १६ । २ । १७ ॥
टिप्पणी
१ स्वराडस्युदीची । २ प्रथमजा ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋष्यादि पूर्ववत् ॥
विषय
स्वराट्
पदार्थ
१. सम्राट् औरों का शासन करता है। पत्नी को सम्राट् तो होना ही है, पर सम्राट् बनने के लिए तू (स्वराड् असि) = अपना शासन करनेवाली बनी है। (उदीची दिक्) = उत्तर तेरी दिशा हुई है। 'उद् अञ्च' ऊपर, और ऊपर उठते जाना ही तूने उदीची से सीखा है । ३. (मरुतः ते देवाः) = मरुत् तेरे आराध्य देव हैं- तूने उनकी भाँति ही [मितराविणः] मितभाषिणी बनने का संकल्प किया है। ये मरुत् ही तेरे (अधिपतयः) = अधिष्ठातृरूपेण रक्षक हैं। मितभाषिता जीवन को दीर्घ करनेवाली है। ४. (सोमः) = सौम्य व शान्त स्वभाववाला तेरा पति (हेतीनां प्रतिधर्ता) = घर पर होनेवाले घातक आक्रमणों से तेरी रक्षा करे। उसकी सौम्यता ही वस्तुतः घर की रक्षक बन जाए । ५. (एकविंशः स्तोमः) = शरीर का भरण करनेवाली इक्कीस शक्तियों का समूह तुझे पृथिव्यां श्रयतु इस पृथिवीरूप शरीर में सेवित करे। इन इक्कीस शक्तियों से तेरी शारीरिक स्थिति उत्तम हो । ६. (उक्थम्) = प्रशंसनीय (निष्केवल्यम्) = [निः = बाहर, केवल = सुखरूप प्रभु में विचरना] विषयों से बाहर होकर उस आनन्दमय प्रभु में विचरना (अव्यथायै) = तुझे पीड़ा के अभाव के लिए स्तभ्नातु दृढ़ करे, अर्थात् विषयासक्ति का अभाव तेरे जीवन को सुखी करे। ७. (वैराजं साम) = जीवन को विशिष्टरूप से व्यवस्थित बनाने की भावना ही तेरी प्रभु-उपासना हो और यह (अन्तरिक्षे प्रतिष्ठित्यै) = हृदयान्तरिक्ष में प्रतिष्ठा के लिए हो। यह भावना हृदय में सदा प्रतिष्ठित रहे। यह तेरे जीवन का एक मूलभूत सिद्धान्त बन जाए। ८. (देवेषु) = विद्वानों में (प्रथमजाः ऋषयः) = प्रथम कोटि के तत्त्वद्रष्टा लोग (त्वा) = तुझे (दिवो मात्रया) = उस-उस ज्ञान के अंश से तथा (वरिम्णा) = हृदय की विशालता से (प्रथन्तु) = प्रसिद्ध करें व विस्तृत जीवनवाला बनाएँ। ९. (विधर्त्ता च) = अपने सौम्य स्वभाव से घर का विशिष्टरूप से धारण करनेवाला पति 'मरुत्' (अयं अधिपतिः च) = ये मितरावी (अधिष्ठातृरूपेण) = रक्षक मरुत् ते च सर्वे और वे सब तत्त्वद्रष्टा ऋषि (संविदाना) = ऐकमत्य को प्राप्त हुए-हुए (त्वा) = तुझे और (यजमानम्) = यज्ञशील गृहपति को (नाकस्य पृष्ठे) = दुःखाभाववाले लोक के ऊपर स्वर्गे लोके-देदीप्यमान प्रकाशमय लोक में सादयन्तु स्थापित करें। ये सब तेरे घर को स्वर्ग बनानेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- पत्नी स्वराट् - पूर्ण जितेन्द्रिय हो, मितभाषिता उसके दीर्घ जीवन का कारण बने। वह विशिष्टरूप से जीवन को व्यवस्थित करनेवाली हो। वह ज्ञान के साथ हृदय की विशालतावाली हो। पति सौम्य व शान्त स्वभाव हो यही घर को स्वर्ग बनाने का मार्ग है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक चंद्र व प्राणशक्ती यांना योग्य रीतीने जाणून त्यांना प्रत्यक्ष उपयोगात आणतात व सुख प्राप्त करतात तसे अध्यापक स्त्री-पुरुषांनी मुला-मुलींना विद्या संपादन करण्यायोग्य बनवावे.
विषय
ते दोघे (स्त्री-पुरुष वा पति-पत्नी) कसे असावेत, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे स्त्री (पत्नी), जशी (स्वराट्) स्वयंप्रकाशमान (सामाजिकजन गृहाश्रमी पति-पत्नीला उद्देशून म्हणत आहेत) ही (उदीची) उत्तर (दिक्) दिशा (असि) आहे, तसा (ते) तुझा पती (कीर्तीमान) होवो. ज्या (उत्तर दिशेचे (मरूत:) विविध वायू (देवो:) दिव्य लाभकारी असून (अधिपतय:) ते त्या दिशेचे स्वामी आहेत, त्या वायूंप्रमाणे जो (एकविंश:) एकवीस वेळा वा एकवीस पद्धतीने (स्तोम:) स्तवनीय असा (सोम:) चंद्र आहे. आणि (हेतीनाम्) वज्राप्रमाणे तीव्र किरणे वा प्रकाश (प्रतिधर्ता) अश्वशक्ती धारण करणारा (चंद्र आणि विद्युत याप्रमाणे ज्योतिष्मान् व कीर्तिमान) (असा जो तुझा पती आहे) त्याने (त्वा) तुला (पृथिव्याम्) या भूमीवर (या गृहश्रमात) (श्रयतु) स्थिर करावे (तुला आधार द्यावा) (तुझ्या पतीने) (अन्यथाभै) जिची इंद्रियें सर्वथा निर्भय आहेत, अशा तुझ्यासाठी (निष्केवल्यम्) केवळ एक स्वरूप का विषयाचे वर्णन असलेल्या आणि (उक्यम्) श्रवणीय अशा वेदभागाचा (तुला उपदेश करावा) तसेच (प्रतिष्ठित्यै) तुझी गुण प्रतिष्ठा वाढविण्यासाठी (वैराजम्) विराट रुपाचे (ईश्वराचे) प्रतिपादन करणार्या (साम) सामवेदाचा भाग तुला (स्तभ्नातु) सांगावा. (च) आणि ज्याप्रमाणे तुझ्यात (अन्तरिक्षे) अवकाशातील (वा) (शरीरातील) (देवेषु) इंद्रियांमध्ये असणार्या अतीव महत्त्वपूर्ण अशा (दिव:) ज्ञानाच्या (मात्रया) मातेने वा (वरिम्णा) अधिक्याने संयुक्त (ऋषय्:) असे बलवान प्राण (प्राणशक्ती) आहेत, त्याचप्रमाणे (अयम्) हा या प्राणांचा (आणि तुझा) (विधर्ता) धारणकर्ता, शीत-उष्ण आदी सहन करणारा (च) आणि (अधिष्ठता) जो तुझा स्वामी आहे, (ते) ते (सर्वे) सर्व (तुझा पती, वायू, चंद्र, वेद, परमेश्वर आणि प्राण, हे सर्व) प्रतिष्ठा-गुणवृद्धीच्या कामी (तुला सहाय्य करोत) तसेच सर्व सद्बुद्धियुक्त विद्वानांनी आपल्या प्रतिज्ञेद्वारे (दृढनिश्चयाद्वारे) (त्वा) तुला (प्रथन्तु) यशवंत विद्वान करावे. (विद्वानांनो) (नाकस्य) (पृष्ठे) श्रेष्ठ सुखमय लोकामधे (आनंदमय वातावरणामधे) आणि स्वर्गे) (लोके) सुखदायक जगात (त्वा) तुला (च) आणि (यजमानम्) तुझ्या यजमान पतीला (सादयन्तु) स्थिर करावे (विद्वानांनी आपल्या ज्ञानमग्न मार्गदर्शनाद्वारे तुम्हा दोघांना सदा आनंदी वातावरण ठेवावे) ॥13॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वज्जन चंद्रमा आदी पदार्थांचे मूळ वा संपूर्ण ज्ञान मिळवतात आणि शरीरातील प्राणशक्तीची (योभाग्यासादीद्वारे) पूर्ण माहित घेतात आणि त्या ज्ञानाचा लोकोपकारासाठी उपयोग करतात आणि स्वत: सुखी होऊन सर्वांना सुखी करतात, त्याचप्रमाणे अध्यापक-अध्यापिकाजनांनी आपल्या मुलामुलींना विद्याग्रहणासाठी उपयुक्त करावे आणि स्वत: आनंदित राहून त्यांनाही आनंदी ठेवावे.
इंग्लिश (3)
Meaning
O woman, Just as North is self luminous, so is thy husband. The beautiful airs are the presiding forces of the North. May thy husband worthy of praise like the moon that preserves rays in twenty one ways, live with thee on this earth. Being free from the sway of passions, may he, for thee, learn that part of the Veda which deals with the unity of God. For stability, may he study that portion of the Sama Veda, that deals with the universal aspect of God. In thy body there are many chief strong vital airs, in the organs, coupled with perception. He is the sustainer and lord of those airs. May all the learned persons, with one mind make thee renowned, and establish thee and thy husband in a happy place on a comfortable part of the earth.
Meaning
You are self-refulgent like the light of the North. The Maruts, powers of wind and storm, are your divine protectors. Soma, moon, lord of peace and beauty, is your saviour against violence and evil. May the Ekavinsha (twenty-one part) stoma settle you on the earth. May the Nishkevalya Uktha firmly stabilize you in love and faith against disturbance. May the Vairaja Sama hymns and related Karma carry your honour and fame to the skies. May the foremost Rishis, saints and sages spread your honour and reputation with the measure of your heavenly excellence among the noblest people. May this lord of yours and the Lord sustainer of the world and all those powers that know, together in unison, establish you and the yajamana on the heights of the heavenly regions of bliss.
Translation
You are svarat (independent ruler); the region ts northern; Maruts (cloud-bearing winds) are your overlord Nature’s bounties. Soma (blissful Lord) is your warder off of the hostile weapons. May the ekavimsa (of twenty-one verses) praise-song help to establish you on the earth. May the niskaivalya (afternoon) litany keep you firm against slipping. May the vairaja saman (chant) establish you securely in the mid-space. May the seers, foremost among the enlightened ones, extol you to the greatness of the heaven. May this sustainer and overlord of yours and all the others, with one mind, place you as well as the sacrificer on the top of the sorrowless abode in the world of light. (1)
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তৌ কীদৃশাবিত্যাহ ॥
পুনরায় তাহারা উভয়ে কেমন হইবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! যেমন (স্বরাট্) স্বয়ং প্রকাশমান (উদীচী) উত্তর (দিক্) দিক (অসি) হয় সেইরূপ (তে) তোমার পতি হউক, যে দিকের (মরুতঃ) বায়ু (দেবাঃ) দিব্যরূপ (অধিপতয়ঃ) অধিষ্ঠাতা সকল তাহাদের সদৃশ যে (একবিংশঃ) একুশ সংখ্যার পূরক (স্তোমঃ) স্তুতির সাধক (সোমঃ) চন্দ্র (হেতীনাম্) বজ্রের সমান বর্ত্তমান কিরণগুলির (প্রতিধর্ত্তা) ধারক পুরুষ (ত্বা) তোমাকে (পৃথিব্যাম্) ভূমিতে (শ্রয়তু) সেবন করুক্ (অব্যথায়ৈ) ইন্দ্রিয়সকলের ভয় হইতে রহিত তোমার জন্য (নিষ্কেবল্যম্) যাহাতে কেবল একটা স্বরূপের বর্ণনা হয় উহা (উক্থম) বলিবার যোগ্য বেদভাগ তথা (প্রতিষ্ঠিত্যৈ) প্রতিষ্ঠা হেতু (বৈরাজম্) বিরাট রূপের প্রতিপাদক (সাম) সামবেদের অংশ (স্তভ্নাতু) গ্রহণ করুক (চ) এবং যেমন তোমার মধ্যে (অন্তরিক্ষে) অবকাশে স্থিত (দেবেষু) ইন্দ্রিয় সকলের মধ্যে (প্রথমজাঃ) মুখ্য প্রসিদ্ধ (দিবঃ) জ্ঞানের (মাত্রয়া) অংশ দ্বারা (বরিম্ণা) আধিক্য সহ বর্ত্তমান (ঋষয়ঃ) বলবান প্রাণ, সেইরূপ (অয়ম্) এই সব প্রাণ সকলের (বিধর্ত্তা) বিবিধ শীতের ধারণকর্তা (চ) এবং (অধিপতিঃ) অধিষ্ঠাতা, (তে) তাহারা (সর্বে) সমস্ত এই বিষয়ে (সংবিদানাঃ) সম্যক্ বুদ্ধিমান বিদ্বান্ লোক প্রতিজ্ঞা দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (প্রয়ত্নু) প্রসিদ্ধ করুক এবং (নাকস্য) উত্তম সুখরূপ লোকান্তরের (পৃষ্ঠে) উপর (স্বর্গে) সুখদায়ক (লোকে) লোকে (ত্বা) তোমাকে (চ) এবং (য়জমানম্) যজমান পুরুষকে (সাদয়ন্তু) স্থিত করুক ॥ ১৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদ্বান্গণ আধার সহিত চন্দ্রাদি পদার্থ সকল এবং আধার সহিত প্রাণদেরকে যথাবৎ জানিয়া সংসারী কার্য্যে উপযুক্ত করিয়া সুখকে প্রাপ্ত হয় । সেইরূপ অধ্যাপক স্ত্রী পুরুষ কন্যা-পুত্রাদিগকে বিদ্যাগ্রহণ হেতু উপযুক্ত করিয়া আনন্দিত করুক ॥ ১৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স্ব॒রাড॒স্যুদী॑চী॒ দিঙ্ম॒রুত॑স্তে দে॒বাऽঅধি॑পতয়ঃ॒ সোমো॑ হেতী॒নাং প্র॑তিধ॒র্ত্তৈক॑বি॒ꣳশস্ত্বা॒ স্তোমঃ॑ পৃথি॒ব্যাᳬं শ্র॑য়তু॒ নিষ্কে॑বল্যমু॒ক্থমব্য॑থায়ৈ স্তভ্নাতু । বৈরা॒জꣳসাম॒ প্রতি॑ষ্ঠিত্যাऽঅ॒ন্তরি॑ক্ষ॒ऽঋষ॑য়স্ত্বা প্রথম॒জা দে॒বেষু॑ দি॒বো মাত্র॑য়া বরি॒ম্ণা প্র॑থন্তু বিধ॒র্ত্তা চা॒য়মধি॑পতিশ্চ॒ তে ত্বা॒ সর্বে॑ সংবিদা॒না নাক॑স্য পৃ॒ষ্ঠে স্ব॒র্গে লো॒কে য়জ॑মানং চ সাদয়ন্তু ॥ ১৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
স্বরাডসীত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । মরুতো দেবতাঃ । পূর্বস্য ভুরিগ্ব্রাক্ষী ত্রিষ্টুপ্ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ । প্রথমজা ইত্যুত্তরস্য ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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