यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 1
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
28
अग्ने॑ जा॒तान् प्र णु॑दा नः स॒पत्ना॒न् प्रत्यजा॑तान् नुद जातवेदः। अधि॑ नो ब्रूहि सु॒मना॒ऽअहे॑डँ॒स्तव॑ स्याम॒ शर्म॑ꣳस्त्रि॒वरू॑थऽउ॒द्भौ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। जा॒तान्। प्र। नु॒द॒। नः॒। स॒पत्ना॒निति स॒ऽपत्ना॑न्। प्रतिं॑। अजा॑तान्। नु॒द॒। जा॒त॒वे॒द॒ इति॑ जातऽवेदः। अधि॑। नः॒। ब्रू॒हि॒। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। अहे॑डन्। तव॑। स्या॒म। शर्म॑न्। त्रि॒वरू॑थ इति॑ त्रि॒ऽवरू॑थे। उ॒द्भावित्यु॒त्ऽभौ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने जातान्प्रणुदा नः सपत्नान्प्रत्यजातान्नुद जातवेदः । अधि नो ब्रूहि सुमनाऽअहेडँस्तव स्याम शर्मँस्त्रिवरूथऽउद्भौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। जातान्। प्र। नुद। नः। सपत्नानिति सऽपत्नान्। प्रतिं। अजातान्। नुद। जातवेद इति जातऽवेदः। अधि। नः। ब्रूहि। सुमना इति सुऽमनाः। अहेडन्। तव। स्याम। शर्मन्। त्रिवरूथ इति त्रिऽवरूथे। उद्भावित्युत्ऽभौ॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अस्य प्रथममन्त्रे राजराजपुरुषैः किं किं कर्त्तव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे अग्ने! त्वं नो जातान् सपत्नान् प्रणुदा हे जातवेदस्त्वमजातान् शत्रून् नुद अस्मानहेडन् सुमनास्त्वं नोऽस्मान् प्रत्यधिब्रूहि यतो वयं तवोद्भौ त्रिवरूथे शर्मन् सुखिनः स्याम॥१॥
पदार्थः
(अग्ने) राजन् वा सेनापते (जातान्) उत्पन्नान् प्रसिद्धान् (प्र) (नुद) दूरे प्रक्षिप। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः (नः) अस्माकम् (सपत्नीन्) सॄपत्नीव वर्तमानानरीन् (प्रति) (अजातान्) अप्रकटान् (नुद) प्रेर्ष्व (जातवेदः) जातबल (अधि) (नः) अस्मान् (ब्रूहि) उपदिश (सुमनाः) प्रसन्नस्वान्तः (अहेडन्) अनादरमकुर्वन् (तव) (स्याम) (शर्मन्) गृहे (त्रिवरूथे) त्रीणि वरूथान्याध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकानि सुखानि यस्मिन् (उद्भौ) उदुत्कृष्टानि वस्तूनि भवन्ति यस्मिंस्तस्मिन्॥१॥
भावार्थः
राजादिसभ्यजनैर्गुप्तैश्चारैः प्रसिद्धाऽप्रसिद्धान् शत्रून् निश्चित्य वशं नेयाः। न कस्यापि धार्मिकस्यानादरोऽधार्मिकस्यादरश्च कर्त्तव्यः, यतः सर्वे सज्जना विश्वस्ताः सन्तो राष्ट्रे वसेयुः॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पन्द्रहवें अध्याय का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में राजा और राजपुरुषों को क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) राजन् वा सेनापते! आप (नः) हमारे (जातान्) प्रसिद्ध (सपत्नान्) शत्रुओं को (प्र, नुद) दूर कीजिये। हे (जातवेदः) प्रसिद्ध बलवान्! आप (अजातान्) अप्रसिद्ध शत्रुओं को (नुद) पे्ररणा कीजिये और हमारा (अहेडन्) अनादर न करते हुए (सुमनाः) प्रसन्नचित आप (नः) (प्रति) हमारे प्रति (अधिब्रूहि) अधिक उपदेश कीजिये, जिससे हम लोग (तव) आप के (उद्भौ) उत्तम पदार्थों से युक्त (त्रिवरूथे) आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीनों सुखों के हेतु (शर्मन्) घर में (स्याम) सुखी होवें॥१॥
भावार्थ
राजा आदि न्यायाधीश सभासदों को चाहिये कि गुप्त दूतों से प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध शत्रुओं को निश्चय करके वश में करें और किसी धर्मात्मा का तिरस्कार और अधर्मी का सत्कार भी कभी न करें, जिस से सब सज्जन लोग विश्वासपूर्वक राज्य में वसें॥१॥
विषय
सेनापति और राजा के कर्त्तव्य । शत्रुओं का पराजय, प्रजा का शिक्षण ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी सेनापते ! राजन् ! तू ( नः ) हमारे जातान् सपत्नान् ) प्रकट हुए शत्रुओं को ( प्रणुद ) दूर भगा । और हे ( ज्ञातवेदः ) ऐश्वर्यवान् और शक्तिशालिन् ! तू ( अज्ञातान् सपत्नान् ) अभी तक प्रकट न हुए शत्रुओं को ( प्रतिनुद) मुकाबला करके परास्त कर । और (नः) हमारा ( अहेडम् ) अनादर न करता हुआ ( सुमनः ) उत्तम शुभ प्रसन्न चित्त होकर ( न: अधि ब्रूहि ) हमें अधिष्ठाता होकर आज्ञा कर, सन्मार्ग का उपदेश कर। हम ( तव ) तेरे ( त्रिवरूथे ) त्रिविध तापों के चारण करने वाले (उद) उत्तम सुखों के उत्पादक या उच्च ( शर्मन् ) गृह में या आश्रय में ( स्याम ) रहें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-६५ अध्याय परिसमाप्तेः परमेष्ठी ऋषिः ॥ अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
त्रिवरूथ शर्म
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = हमारे सब दोषों का दहन करनेवाले प्रभो ! (नः) = हमारे (जातान्) = इन्द्रियों, मन व बुद्धि में उत्पन्न हुए (सपत्नान्) = काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं को (प्रणुद) = प्रकर्षेण धकेल दीजिए। हमारे जीवन से इन्हें दूर कर दीजिए। आपने इस शरीर की रचना करके मुझे यहाँ अधिष्ठातृदेव के रूप में नियत किया है, परन्तु ये कामादि इसमें अपने किले बनाकर इसपर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं, इस प्रकार ये मेरे सपत्न हो जाते हैं। आप इन्हें हमसे दूर भगाने की कृपा कीजिए। २. हे (जातवेदः) = भविष्य में आविर्भूत होनेवाले और इस समय बीजरूप में अंकुरित हो रहे कामादि को भी जाननेवाले प्रभो! आप (अजातान्) = अभी पूर्ण रूप से विकसित न हुए इन कामादि को (प्रतिनुद) = एक-एक करके धकेल दीजिए और इस प्रकार इनके विकास को सम्भव ही न होने दीजिए। ३. (सुमनाः) = हमारे प्रति सदा उत्तम विचारवाले हे प्रभो! सदा जीव का शुभ चाहनेवाले प्रभो! (अहेडन्) = क्रोध न करते हुए आप (नः) = हमें (अधिब्रूहि) = अधिष्ठातृरूपेण हृदय में स्थित हुए उपदेश दीजिए। ४. उस उपदेश के अनुसार चलते हुए हम तव तेरी (त्रिवरूथे) = इन्द्रिय, मन व बुद्धि तीनों की रक्षक - [वरूथ = cover] - भूत अथवा आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक त्रिविध सुखों के हेतुभूत (उद्भौ) = [उत्कृष्टानि वस्तूनि भवन्ति यस्मिन् - द०] उत्तम पदार्थों से युक्त आपकी (शर्मन्) = शरण में (स्याम) = सदा सुख से रहें। ५. आपके सम्पर्क में रहते हुए सदा आगे बढ़नेवाले 'अग्नि' बनकर हम भी परम स्थान में स्थित हों और आपके अनुरूप बनकर प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'परमेष्ठी' बनें।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुकृपा से हमारे दोष दूर हों, हम प्रभु के सन्देश को सुनें और प्रभु की उस शरण में सदा निवास करें, जो 'काम, क्रोध व लोभ' इन तीनों का निवारण करके [त्रिवरूथ-निवारण] 'प्रेम, दया व दान' आदि उत्कृष्ट भावनाओं को हममें जन्म देती है और इसी कारण 'उद्भि' कहलाती है [ भवतेर्डि : ] ।
मराठी (2)
भावार्थ
राजा व न्यायाधीश यांनी ज्ञात व अज्ञात अशा शत्रूंना गुप्त दूतांमार्फत माहिती घेऊन ताब्यात घ्यावे. धर्मात्मा लोकांचा तिरस्कार व अधार्मिक माणसांचा सत्कार कधीही करू नये. त्यामुळे सर्व सज्जन राज्यात विश्वासपूर्वक निवास करतील.
विषय
आता पंधरावा अध्यायाचा आरंभ होत आहे. या अध्यायाच्या पहिल्या मंत्रामधे राजा आणि राजपुरुषांच्या कर्तव्यांविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (अग्ने) राजा अथवा हे सेनापती, आपण (न:) आमच्या (आम्हा प्रजाजनांच्या) जातान्) ज्ञात वा प्रत्यक्ष (सपत्रान्) शत्रूंना (प्र नुद) दूर करा (आमच्यापासून दूर ठेवा वा आम्हाला त्याच्यापासून निर्भव ठेवा) हे (जातवेद:) अतिबलशाली (राजा) (अथवा, राज्यात कुठे काय चालले आहे, याची हेरांमार्फत) बित्तंबातमी माहिती असणारे हे शका) आपण (आजातान्) परोक्षपणे वा गुप्तपणे आमचे शत्रू असणार्या शत्रूंना (नुद) दूर जाण्याची प्रेरणा करा (आमच्यापासून दूर ठेवा) आपण आमचा (अथवा (आमच्या निवेदनाचा) (अहेहन्) अनादर वा उपेक्षा न करता (न) प्रति) आमच्याप्रत सदा (सुममा:) प्रसन्न वा अनुकूल रहा आणि आम्हांस (अथिब्रुहि) योग्य तो उपदेश करा की ज्यायोगे आम्ही प्रजाजन (तर) तुमच्या (तुम्ही दिलेल्या (उभ्द्रौ) उत्तम पदार्थांचा उपयोग घेत (त्रिवरुथे) आध्यात्मिक, आधि भौतिक आणि अधिदैविक या तीन प्रकारचे सुख अनुभवीत (शर्मन्) आमच्या घरामधे (स्थाम) आनंदी शकू शकू. ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - राजा, न्यायाधीश आणि सभासद यांना (लोकसभा व राज्यसभेचा सदस्यांना) आवश्यक आहे की त्यांनी गुप्तहेरांद्वारे ज्ञात व अज्ञात शत्रूंचा शोध घ्यावा (गुप्त वा उघड शत्रूविषयी अधिक माहिती मिळवा व शत्रूंचा शोधून काढा) आणि त्या शत्रूंना अवश्य निरस्त वा बंदिस्त करावे. तसेच हेही पहावे की त्यांच्याकडून कोण धर्मात्मा व्यक्तीचा अवमान व उपेक्षा होऊ नये आणि कोणा अधर्मी माणसाचा सत्कार त्यांनी कदापी करू नये. असे कैलास सर्व सज्जन लोक राज्यामधे सुखी आणि निर्भय राहतील. ॥1॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O King drive away our known enemies. O powerful king, put our unknown foes aright. Graciously minded, showing no disrespect, give us good instructions ; wherewith we may live happily in a thrice -guarded house, well-provided by thee with all necessary things.
Meaning
Agni, Lord omniscient and protector of life and society, throw out the adversaries arisen against our life. Keep off the negative forces not yet arisen but impending against us all. Kind at heart and favourable, speak to us from above and grant our prayer so that, secure from triple suffering, happy and advancing under your care and love, all may live in a home of triple bliss.
Translation
О adorable Lord, drive away our rivals, who are born; and prevent those, who are yet to be born, O omniscient. Grace us with your friendly words free from anger. May we have happiness under your thrice-guarding and prosperous shelter. (1)
Notes
Sapatnan, समानपतित्वदर्शिन: शत्रून्, the enemies, who try to be the husbands of one's own wife; the cause of enmity being the suduction of wife. There are many words for enemy in the Veda, अरि: अराति: शत्रु: etc. according to the cause of enmity. Sapatna is one that tries to seduce or abduct one's wife. Jatan ajatàn, already born and those who are not yet born. Also, who have become and those who have not become our en emies due to this cause. Pranuda and pratinuda, drive away and prevent from coming. Ahedan, अक्रुध्यन्, not being angered. Udbhau, in the rich and prosperous: द्विपदश्चतुष्पदधनधान्यादिभि: समृध्यते इति उद्भि: तस्मिन्, rich with men, cattle, money and food prains. Sarman, शर्मणि गृहे , in the house. Trivarüthe, वरूथं सुखं गृहं वा, full of three types of pleasures; thrice guarding. Also may be three-storeyed.
बंगाली (1)
विषय
॥ ও৩ম্ ॥
অথ পঞ্চদশাऽধ্যায়ারম্ভঃ
ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩
অস্য প্রথমমন্ত্রে রাজরাজপুরুষৈঃ কিং কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
এখন পঞ্চদশ অধ্যায়ের আরম্ভ । ইহার প্রথম মন্ত্রে রাজা ও রাজপুরুষদিগকে কী কী করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ করিয়াছেন ।
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) রাজন্ বা সেনাপতে ! আপনি (নঃ) আমাদের (জাতান্) প্রসিদ্ধ (সপত্নান্) শত্রুদিগকে (প্র, নুদ) দূর করুন । হে (জাতবেদঃ) প্রসিদ্ধ বলবান্ রাজন্ ! আপনি (অজাতান্) অপ্রসিদ্ধ শত্রুদিগকে (নুদ) প্রেরণা করুন এবং আমাদের (অহেডন্) অনাদর না করিয়া (সুমনাঃ) প্রসন্নচিত্ত আপনি (নঃ) (প্রতি) আমাদের প্রতি (অধিব্রূহি) অধিক উপদেশ করুন যাহাতে আমরা (তব) আপনার (উদ্ভৌ) উত্তম পদার্থসকলের দ্বারা যুক্ত (ত্রিবরূথে) আধ্যাত্মিক, আধিভৌতিক ও আধিদৈবিক এই তিনের সুখ হেতু (শর্মন্) গৃহে (স্যাম্) সুখী হই ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- রাজাদি ন্যায়াধীশ সভাসদ্গণের উচিত যে, গুপ্ত দূত দ্বারা প্রসিদ্ধ ও অপ্রসিদ্ধ শত্রুদিগকে নিশ্চয় করিয়া বশে করুন এবং কোন ধর্মাত্মার তিরস্কার এবং অধর্মের সৎকারও করিবেন না যাহাতে সব সজ্জনগণ বিশ্বাসপূর্বক রাজ্যে বসবাস করে ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অগ্নে॑ জা॒তান্ প্র ণু॑দা নঃ স॒পত্না॒ন্ প্রত্যজা॑তান্ নুদ জাতবেদঃ ।
অধি॑ নো ব্রূহি সু॒মনা॒ऽঅহে॑ডঁ॒স্তব॑ স্যাম॒ শর্ম॑ꣳস্ত্রি॒বরূ॑থऽউ॒দ্ভৌ ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নে জাতানিত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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