Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 15

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 49
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    येन॒ऽऋष॑य॒स्तप॑सा स॒त्रमाय॒न्निन्धा॑नाऽअ॒ग्नि स्व॑रा॒भर॑न्तः। त॑स्मिन्न॒हं नि द॑धे॒ नाके॑ऽअ॒ग्निं यमा॒हुर्मन॑व स्ती॒र्णब॑र्हिषम्॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑। ऋष॑यः। तप॑सा। स॒त्रम्। आय॑न्। इन्धा॑नाः। अ॒ग्निम्। स्वः॑। आ॒ऽभर॑न्तः। तस्मि॑न्। अ॒हम्। नि। द॒धे॒। नाके॑। अ॒ग्निम्। यम्। आ॒हुः। मन॑वः। स्ती॒र्णब॑र्हिष॒मिति॑ स्ती॒र्णऽब॑र्हिषम् ॥४९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येनऽऋषयस्तपसा सत्रमायन्निन्धानाऽअग्निँ स्वराभरन्तः । तस्मिन्नहन्निदधे नाकेऽअस्ग्निँयमाहुर्मनव स्तीर्णबर्हिषम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    येन। ऋषयः। तपसा। सत्रम्। आयन्। इन्धानाः। अग्निम्। स्वः। आऽभरन्तः। तस्मिन्। अहम्। नि। दधे। नाके। अग्निम्। यम्। आहुः। मनवः। स्तीर्णबर्हिषमिति स्तीर्णऽबर्हिषम्॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 49
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    येन तपसेन्धानाः स्वराभरन्त ऋषयः सत्रमग्निमायंस्तस्मिन्नाके मनवो यं स्तीर्णबर्हिषमग्नि-माहुस्तमहं निदधे॥४९

    पदार्थः

    (येन) कर्मणा (ऋषयः) वेदार्थवेत्तारः (तपसा) धर्माऽनुष्ठानेन (सत्रम्) सत्रा सत्यं विद्यते यस्मिन् विज्ञाने तत् (आयन्) प्राप्नुयुः (इन्धानाः) प्रकाशमानाः (अग्निम्) विद्युदादिम् (स्वः) सुखम् (आभरन्तः) समन्ताद्धरन्तः (तस्मिन्) (अहम्) (निदधे) (नाके) अविद्यमानदुःखे सुखे प्राप्तव्ये सति (अग्निम्) उक्तम् (यम्) (आहुः) वदन्ति (मनवः) मननशीला विद्वांसः (स्तीर्णबर्हिषम्) स्तीर्णमाच्छादितं बर्हिरन्तरिक्षं येन तम्॥४९॥

    भावार्थः

    येन प्रकारेण वेदपारगाः सत्यमनुष्ठाय विद्युदादिपदार्थान् सम्प्रयुज्य समर्था भवन्ति तेनैव मनुष्यैः समृद्धियुक्तैर्भवितव्यम्॥४९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (येन) जिस (तपसा) धर्मानुष्ठानरूप कर्म से (इन्धानाः) प्रकाशमान (स्वः) सुख को (आभरन्तः) अच्छे प्रकार धारण करते हुए (ऋषयः) वेद का अर्थ जानने वाले ऋषि लोग (सत्रम्) सत्य विज्ञान से युक्त (अग्निम्) विद्युत् आदि अग्नि को (आयन्) प्राप्त हों, (तस्मिन्) उस कर्म के होते (नाके) दुःखरहित प्राप्त होने योग्य सुख के निमित्त (मनवः) विचारशील विद्वान् लोग (यम्) जिस (स्तीर्णबर्हिषम्) आकाश को आच्छादन करने वाले (अग्निम्) अग्नि को (आहुः) कहते हैं, उस को (अहम्) मैं (नि, दधे) धारण करता हूं॥४९॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार से वेदपारग विद्वान् लोग सत्य का अनुष्ठान कर बिजुली आदि पदार्थों को उपयोग में लाके समर्थ होते हैं, उसी प्रकार मनुष्यों को समृद्धियुक्त होना चाहिये॥४९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वोच्च पदपर ज्ञानी अग्रणी नेता की स्थापना ।

    भावार्थ

    ( येन ) जिस ( तपसा ) तप, सत्य धर्म के अनुष्ठान और तपश्चर्या के बल से ( ऋषयः ) दीर्घदर्शी वेद मन्त्रार्थ के ज्ञाता (सत्रम् आयन् ) सत्य ज्ञान को प्राप्त होते हैं। और (यम) जिस (अग्निम् ) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ज्योति को ( इन्धानाः ) प्रज्वलित करते हुए (स्व:) सुखमय लोक और आत्मप्रकाश को ( आभरन्तः ) प्राप्त करते हुए ( सत्रम्) सत्य सुख को प्राप्त करते हैं । ( तस्मिन् ) उसी ( लोके ) सुखमय लोक या पद पर मैं (अग्निम्) अग्रणी और अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष को ( नि दधे ) स्थापित करता हूँ। ( यम् ) जिसको ( मनवः ) मनुष्य लोग (तीर्णबहिपम् ) एवं महान् आकाश को लांघ कर विराजमान सूर्य के समान समस्त प्रजाओं से ऊपर या इस लोक पर अधिष्ठाता रूप से विराजमान बतलाते हैं । शत० ८।६।३।१।१८ ॥ 'तीर्णबर्हिषम् ' प्रजा वै बर्हिः । कौ० ५।७ ॥ पशवो वै बर्हिः । ऐ० २ । ४ ॥ अयं लोको बर्हिः श० १।४ ॥ २४ ॥ क्षत्रं वै प्रस्तरो विश इतरं बर्हिः । श० १ । ३ । ४ । १९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    तप

    पदार्थ

    १. (येन) = जिस (तपसा) = धर्मानुष्ठान से [द०] या चित्त की एकाग्रता से [मनसश्चेन्द्रियाणां च एकाग्र्यं परमं तपः - म० ] (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग (सत्रम्) = [सत्रा सत्यं विद्यते यस्मिन् विज्ञाने - द० ] सत्य ज्ञान को (आयन्) = प्राप्त होते हैं । २. और जिस तप से (अग्निं इन्धाना:) = प्रतिदिन अग्निकुण्ड में अग्नि का समिन्धन करते हैं। ३. जिस तप से (स्वः आभरन्तः) = स्वर्गलोक को स्वीकार करनेवाले होते हैं। ४. (तस्मिन्) = उस तप के होने पर नाके मोक्षसुख के निमित्त मैं (अग्निम्) = उस-सब साधकों की उन्नति के साधक प्रभु को (निदधे) = स्थापित करता हूँ। उस प्रभु को स्थापित करता हूँ (यम्) = जिसको (मनवः) = ज्ञानी लोग (स्तीर्णबर्हिषम्) = आच्छादित किया है हृदयान्तरिक्ष को जिसने, ऐसा (आहुः) = कहते हैं। [ तस्मिन् तपसि सति स्वर्गलोकनिमित्तं अग्निमहं स्थापयामि - म०] ५. 'प्रभु स्तीर्णबर्हिषम्' हैं जब हमारा हृदय उस प्रभु से आच्छादित होता है तब इस हृदय में 'सत्य, यश व श्री' का ही निवास होता है, इसमें आसुर भावनाएँ प्रवेश नहीं कर पातीं। 'अमृतोपस्तरणम्-अमृतापिधानम्' के बाद 'सत्य, यशः, श्रीः' आते हैं। उस अमृत प्रभु से आच्छादित - पूर्ण रूप से सुरक्षित हृदय में अशुभ भावनाएँ आ ही कैसे सकती हैं? ६. इस प्रभु की प्राप्ति उस तप के द्वारा ही होती है जिस तप से ऋषि सत्यज्ञान को प्राप्त करते हैं, जिस तप से नियमित रूप से अग्निहोत्र होता है और जिस तप से सुख का आभरण होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-तप से ज्ञान, यज्ञ व सुख की प्राप्ति होती है। यही तप परमात्मा-प्राप्ति का साधन बनता है, उस परमात्मा की प्राप्ति का जो हृदय को आच्छादित करके आसुर वृत्तियों से बचाता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्या प्रकारे वेद पारंगत विद्वान लोक सत्याचे अनुसरण करून विद्युत इत्यादी पदार्थांचा उपयोग समर्थपणे करू शकतात त्याचप्रमाणे सर्व माणसांनी तसे वागून समृद्धीयुक्त बनावे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुढील मंत्रातही तोच विषय प्रतिपादित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (येन) ज्या (तपसा) धर्मानुष्ठानरुप कर्माद्वारे (इन्धाना:) प्रकाशमान म्हणजे श्रेष्ठ अशा (स्व:) सुखाला (आभरन्त:) उत्तमप्रकारे प्राप्त करीत (ऋषय:) वेदार्थज्ञाता ऋषिगण (सत्रम्) सत्य विज्ञानमय (अग्निम्) विद्युत आदी अग्नीला (आयन्) प्राप्त करीत आले आहे (वा प्राप्त करीत आहेत.) (तस्मिन्) त्या अग्नीला (नाके) दु:खनाश व सुखप्राप्तीसाठी (यम्) त्या अग्नीला (स्तीर्णबर्हिषम्) विस्तीर्ण आकाशाला व्याप्त करून राहणार्‍या शक्तीला (मनव:) विचाशील विद्वान लोक (अग्निम्) अग्नी (आहु:) म्हणतात. त्या अग्नीला (अहम्) मी (नि दधे) धारण करतो (त्यापासून विविध लाभ घेतो) ॥49॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्याप्रमाणे वेदज्ञाता विद्वज्जन सत्याचे अनुष्ठान करून (निसर्गातील अग्नी आदी शक्तीच्या गुण, कर्म, स्वभावाचे अध्ययन करून) विद्युत आदी पदार्थांचा योग्य उपयोग घेण्यात समर्थ होतात, त्याप्रमाणे पदार्थांचा उचित उपयोग घेऊन सर्व माणसांनी समृद्धिशाली व्हायला पाहिजे ॥49॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    With whatever penance, the sages, well-read in vedic lore, securing illuminating pleasure, and full of true knowledge, explore fire ; with similar devotion, for the acquisition of happiness, do I grasp the fire, described by the thoughtful learned persons as pervader of the atmosphere.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    By the austerity of discipline and action the seers come to the sessions of yajna and, lighting and exploring the agni, attain to ages of joy and happiness. By the same discipline, in similar session, at the same level of blissful existence, I commit myself to the pursuit of the same agni which people say pervades the skies.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    By that austerity, with which the seers come to the session of the sacrifice, kindling fire divine and obtaining the world of light, I place the fire in the sorrowless world, which the discerning sages describe as full of all provisions required for the sacrifice. (1)

    Notes

    Satram, यज्ञं, session of the sacrifice. Svaḥ ābharantaḥ, obtaining the world of light. Nake, नाक: स्वर्गो लोकः, heaven; न अकः दु:खं यत्र, the world where there is no sorrow. Manavah, मननशीला: विद्वांसः, descening sages. Stirnabarhisam, आच्छादितं बर्हिः यत्र तं, यज्ञसाधनसहितं, where all the provisions required for the sacrifice have been ar ranged. Also, सर्वयज्ञसाधनैः सम्पादितसुखं, where all the comforts have been provided by the sacrifice.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(য়েন) যে (তপসা) ধর্মানুষ্ঠানরূপ কর্ম্ম দ্বারা (ইন্ধানাঃ) প্রকাশমান (স্বঃ) সুখকে (আভরন্তঃ) উত্তম প্রকার ধারণ করিয়া (ঋষয়ঃ) বেদের অর্থ জ্ঞাতা ঋষিগণ (সত্রম্) সত্য বিজ্ঞানের সহিত যুক্ত (অগ্নিম্) বিদ্যুৎ আদি অগ্নিকে (আয়ন্) প্রাপ্ত হয় (তস্মিন্) সেই কর্ম্ম হওয়ার জন্য (নাকে) দুঃখরহিত প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য সুখের নিমিত্ত (মনবঃ) বিচারশীল বিদ্বান্গণ (য়ম্) যে (স্তীর্ণবর্হিষম্) আকাশকে আচ্ছাদনকারী (অগ্নিম্) অগ্নিকে (আহুঃ) বলেন তাহাকে (অহম্) আমি (নি, দধে) ধারণ করি ॥ ৪ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে প্রকারে বেদপারগ বিদ্বান্গণ সত্যের অনুষ্ঠান করিয়া বিদ্যুদাদি পদার্থসকলের উপযোগে আনিতে সক্ষম হয় সেই প্রকার মনুষ্যদিগকে সমৃদ্ধিযুক্ত হওয়া উচিত ॥ ৪ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়েন॒ऽঋষ॑য়॒স্তপ॑সা স॒ত্রমায়॒ন্নিন্ধা॑নাऽঅ॒গ্নিᳬं স্ব॑রা॒ভর॑ন্তঃ ।
    তস্মি॑ন্ন॒হং নি দ॑ধে॒ নাকে॑ऽঅ॒গ্নিং য়মা॒হুর্মন॑ব স্তী॒র্ণব॑র্হিষম্ ॥ ৪ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়েন ঋষয় ইত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top