यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 52
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
2
अ॒यम॒ग्निर्वी॒रत॑मो वयो॒धाः स॑ह॒स्रियो॑ द्योतता॒मप्र॑युच्छन्। वि॒भ्राज॑मानः सरि॒रस्य॒ मध्य॒ऽउप॒ प्र या॑हि दि॒व्यानि॒ धाम॑॥५२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। अ॒ग्निः। वी॒रत॑म॒ इति॑ वी॒रऽत॑मः। व॒यो॒धा इति॑ वयः॒ऽधाः। स॒ह॒स्रियः॑। द्यो॒त॒ता॒म्। अप्र॑युच्छ॒न्नित्यप्र॑ऽयुच्छन्। वि॒भ्राज॑मान॒ इति॑ वि॒ऽभ्राज॑मानः। स॒रि॒रस्य॑। मध्ये॑। उप॑। प्र। या॒हि॒। दि॒व्यानि॑। धाम॑ ॥५२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमग्निर्वीरतमो वयोधाः सहस्रियो द्योततामप्रयुच्छन् । विभ्राजमानः सरिरस्य मध्यऽउपप्रयाहि दिव्यानि धाम ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। अग्निः। वीरतम इति वीरऽतमः। वयोधा इति वयःऽधाः। सहस्रियः। द्योतताम्। अप्रयुच्छन्नित्यप्रऽयुच्छन्। विभ्राजमान इति विऽभ्राजमानः। सरिरस्य। मध्ये। उप। प्र। याहि। दिव्यानि। धाम॥५२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
धार्मिकजनवदितरैर्वर्तितव्यमित्याह॥
अन्वयः
योऽयं वीरतमो वयोधाः सहस्रियः सरिरस्य मध्ये विभ्राजमानोऽप्रयुच्छन्नग्निरिव स भवान् द्योतताम्। दिव्यानि धाम धामानि त्वमुपप्रयाहि॥५२॥
पदार्थः
(अयम्) (अग्निः) पावक इव सेनापतिः (वीरतमः) वेति स्वबलेन शत्रुबलं व्याप्नोति सोऽतिशयितः (वयोधाः) यः सर्वेषां जीवनं दधाति सः (सहस्रियः) सहस्रेणासङ्ख्यातेन योद्धृसमूहेन सम्मितस्तुल्यः (द्योतताम्) प्रकाशताम् (अप्रयुच्छन्) अप्रमाद्यन् (विभ्राजमानः) विशेषेण विद्यान्यायाभ्यां देदीप्यमानः (सरिरस्य) अन्तरिक्षस्य (मध्ये) (उप) (प्र) (याहि) (प्राप्नुहि) (दिव्यानि) (धाम) जन्मकर्मस्थानानि॥५२॥
भावार्थः
मनुष्या धार्मिकैर्जनैः सहोषित्वा प्रमादं विहाय जितेन्द्रियत्वेन जीवनं वर्धयित्वा विद्याधर्मानुष्ठानेन पवित्रा भूत्वा परोपकारिणः सन्तु॥५२॥
हिन्दी (3)
विषय
धर्मात्माओं के तुल्य अन्य लोगों को वर्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
जो (अयम्) यह (वीरतमः) अपने बल से शत्रुओं को अत्यन्त व्याप्त होने तथा (वयोधाः) सब के जीवन को धारण करने वाला (सहस्रियः) असंख्य योद्धाजनों के समान योद्धा (सरिरस्य) आकाश के (मध्ये) बीच (विभ्राजमानः) विशेष करके विद्या और न्याय से प्रकाशित सो (अप्रयुच्छन्) प्रमादरहित होते हुए (अग्निः) अग्नि के तुल्य सेनापति आप (द्योतताम्) प्रकाशित हूजिये और (दिव्यानि) अच्छे (धाम) जन्म, कर्म और स्थानों को (उप, प्र, याहि) प्राप्त हूजिये॥५२॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि धर्मात्मा जनों के साथ निवास कर, प्रमाद को छोड़ और जितेन्द्रियता से अवस्था बढ़ा के विद्या और धर्म के अनुष्ठान से पवित्र होके परोपकारी होवें॥५२॥
विषय
प्रमादरहित तेजस्वी नायक ।
भावार्थ
( अयम् अग्निः ) यह अग्रणी, नेता, राजा ( वीरतम: ) वीरों में सबसे अधिक वीर ( वयोधाः ) सबसे अधिक दीर्घायु अथवा अधीनों के जीवनों का पोषक या अनादि ऐश्वर्य का धारक, ( सहस्रियः ) हजारों योद्धाओं के बराबर बलवान् और ( अप्रयुच्छन् ) प्रमाद न करता हुआ ( द्योतताम् ) प्रकाशित हो । ( सरिरस्य मध्ये ) अन्तरिक्ष के बीच में सूर्य के समान ( सरिरस्य मध्ये ) इस लोक समूह के बीच ( विभ्राजमानः ) विशेष तेज से प्रकाशमान होकर हे राजन् ! तू ( दिव्यानि धामा ) दिव्य अधिकारों तेजों और पदों को ( उप प्र याहि ) भली प्रकार प्राप्त कर। शत० ८ । ६ । ३ । २१ ।।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
वीरतमः
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र के अन्तिम वाक्य के अनुसार शत्रुओं को पाँव तले कुचल डालनेवाला (अयम् अग्निः) = यह शत्रुदाहक प्रगतिशील व्यक्ति (वीरतमः) = सर्वोत्तम वीर है। जिसने बाह्य शत्रुओं को जीता वह 'वीर' है। जिसने अपनों को जीता तथा भौतिक कष्टों को जीता वह 'वीरतर' है। कामादि अन्तःशत्रुओं का विजेता यह 'वीरतम' है । २. (वयोधाः) = वस्तुत: जीवन का धारण तो इसी ने किया है, वासनाओं से ऊपर उठा हुआ जीवन ही तो जीवन है। वासनामय जीवन भी कोई जीवन है ? ३. यह सदा (सहस्त्रियः) = आमोद के साथ रहनेवाला है, सदा प्रसन्न रहता है [स + हस] । हास्य सदा इसके चेहरे पर स्थित होता है (always smiling)। ४. (द्योतताम्) = यह ज्ञान की ज्योति से चमकता है। ५. (अप्रयुच्छन्) = यह अपने कर्त्तव्यों में [अप्रमाद्यन्] कभी प्रमाद नहीं करता । ६. (सरिरस्य मध्ये) = 'इमे वै लोका: सरिरम्'- पञ्चकोशों में अवस्थित हुआ हुआ (विभ्राजमानः) = उस-उस कोश की शक्ति से चमकता है । ७. इस प्रकार के जीवनवाला अग्नि तू (दिव्यानि धाम) = [धामानि] दिव्य धामों को उप (प्रयाहि) = प्राप्त हो। [उप प्रयाहि स्वर्गलोकम् - श० ८।३।२।१] इस प्रकार के जीवनवाला बनकर ही तू स्वर्ग को सुखमयलोक को प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ- कामादि शत्रु - विजेता अग्नि वीरतम है, उत्कृष्ट जीवनवाला है, प्रसन्न, ज्ञानी, अप्रमत्त है। इन कोशों में यह दीप्त जीवनवाला है और तभी स्वर्ग को प्राप्त करता है।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी धर्मात्मा लोकांबरोबर राहावे. प्रमाद न करता जितेन्द्रिय बनून आयुष्य वाढवावे. विद्या आणि धर्माच्या अनुष्ठानाने पवित्र होऊन परोपकारी बनावे.
विषय
समाजातील इतर जनांनी धर्मात्मा लोकांप्रमाणे वागावे, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित आहे-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (अयम्) हा (सेनापती) (वीरतम:) आपल्या अपरिमित शक्तीने शत्रूंना स्तब्ध व भयभीत करणारा असून (वयोद्या:) सर्वांच्या जीवनाचा आधार आहे. (सहस्रिय:) सहस्र शत्रुसैनिकांएवढा एकटाच किंवा त्याहून अधिक बलवान असून (सरिरस्य) आकाशा(मध्ये) मध्ये (विभ्राजमान:) प्रकाशमान अथवा विद्या आणि न्यायाचरणामुळे कीर्तिमान आहे. हा सेनापती (अप्रयुच्छन्) कधीच प्रमाण करीत नाही (अग्नि अग्नीप्रमाणे याने (द्योतताम्) तेजस्वी व्हावे आणि (दिव्यानि) चांगले (धाम) स्थानावर आरुढ व्हावे, उत्तम कर्म आणि उत्तमपद प्राप्त करीत (या सेनापतीने आम्हा धार्मिकजनांना) (उप, प्र, याहि) प्राप्त व्हावे. (धर्मात्माजनांना सुरक्षा, शांती व निर्भयता मिळावी, सेनापतीने अशी व्यवस्था केली पाहिजे) ॥52॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी नेहमी धर्मात्माजनांच्या सहवासात राहावे आणि प्रमादाचा त्याग करून जितेंद्रियतेमुळे आपले आयुष्य वाढवावे. अशाप्रकारे विद्या आणि धर्म यांचे अनुष्ठानाद्वारे पवित्र व्हावे आणि परोपकार करत असावे ॥52॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May this commander of the army, most manly, supporter of the lives of all, powerful like thousand soldiers, shining with knowledge and justice like sun in the midst of heaven, free from carelessness, shine, and attain to nice birth, deeds and position.
Meaning
This Agni, power of fire and manliness, bravest of all, young and fresh lord of health and age, mighty a thousand fold, shines relentlessly without let up. Glorious on the earth and in the midst of the sky, he inspires and graces wonderful places and positions.
Translation
This fire divine is the bravest among brave; he is bestower of strength; he is able to face a thousand opponents at a time. May he shine all around, without negligence. May he, move gloriously over these worlds as well as the divine abodes. (1)
Notes
Vayodhaḥ, वय: बलं आयुर्वा दधाति य: स:, one who bestows strength or long life. Sahasriyaḥ, one that can face a thousand opponents. Also, that gives thousands. Aprayucchan,कर्मणि अप्रमाद्यन् never negligent in his du ties; unfailing. Sarirasya madhye, लोकंत्रयांत:, in all these three worlds. इमे वै लोका: सरिरं, these worlds are called sariram, (Satapatha, VIII. 6. 3. 21). Divyāni dhama, स्वर्गं लोकं, heaven; divine abodes.
बंगाली (1)
विषय
ধার্মিকজনবদিতরৈর্বর্তিতব্যমিত্যাহ ॥
ধর্মাত্মাদিগের তুল্য অন্য লোকদিগেরও ব্যবহার করা উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–যে (অয়ম্) এই (বীরতমঃ) স্বীয় বল দ্বারা শত্রুদিগকে অত্যন্ত ব্যাপ্ত হওয়ার তথা (বয়োধাঃ) সকলের জীবন ধারণকারী (সহিস্রিয়ঃ) অসংখ্য যোদ্ধাদিগের সমান যোদ্ধা (সরিরস্য) আকাশের (মধ্যে) মধ্যে (বিভ্রাজমানঃ) বিশেষ করিয়া বিদ্যা ও ন্যায় দ্বারা প্রকাশিত সুতরাং (অপ্রয়ুচ্ছৎ) প্রসাদরহিত হইয়া (অগ্নিঃ) অগ্নির তুল্য সেনাপতি আপনি (দ্যোততাম্) প্রকাশিত হউন এবং (দিব্যানি) উত্তম (ধাম) জন্ম, কর্ম্ম ও স্থান সকল কে (উপ, প্র, য়াহি) প্রাপ্ত হউন ॥ ৫২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, ধর্মাত্মাদিগের সহিত নিবাস করিয়া, প্রমাদ ত্যাগ করিয়া এবং জিতেন্দ্রিয়তা দ্বারা অবস্থা বৃদ্ধি করিয়া বিদ্যা ও ধর্মের অনুষ্ঠান দ্বারা পবিত্র হইয়া পরোপকারী হইবে ॥ ৫২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒য়ম॒গ্নির্বী॒রত॑মো বয়ো॒ধাঃ স॑হ॒স্রিয়ো॑ দ্যোততা॒মপ্র॑য়ুচ্ছন্ ।
বি॒ভ্রাজ॑মানঃ সরি॒রস্য॒ মধ্য॒ऽউপ॒ প্র য়া॑হি দি॒ব্যানি॒ ধাম॑ ॥ ৫২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অয়মগ্নিরিত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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