यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 9
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - विराड ब्राह्मी जगती
स्वरः - निषादः
2
त्रि॒वृद॑सि त्रि॒वृते॑ त्वा प्र॒वृद॑सि प्र॒वृते॑ त्वा वि॒वृद॑सि वि॒वृते॑ त्वा स॒वृद॑सि स॒वृते॑ त्वाक्र॒मोऽस्याक्र॒माय॑ त्वा संक्र॒मोसि संक्र॒माय॑ त्वोत्क्र॒मोऽस्युत्क्र॒माय॒ त्वोत्क्रा॑न्तिर॒स्युत्क्रा॑न्त्यै॒ त्वाऽधिपतिनो॒र्जोर्जं॑ जिन्व॥९॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृऽत्। अ॒सि॒। त्रि॒वृत॒ इति॑ त्रि॒ऽवृते॑। त्वा॒। प्र॒वृदिति॑ प्र॒ऽवृत्। अ॒सि॒। प्र॒वृत॒ इति॑ प्र॒ऽवृते॑। त्वा॒। वि॒वृदिति॑ वि॒ऽवृत्। अ॒सि॒। वि॒वृत॒ इति॑ वि॒ऽवृते॑। त्वा॒। स॒वृदिति॑ स॒ऽवृत्। अ॒सि॒। स॒वृत॒ इति॑ स॒ऽवृते॑। त्वा॒। आ॒क्र॒म इत्या॑ऽक्र॒मः। अ॒सि॒। आ॒क्र॒मायेत्या॑ऽक्र॒माय॑। त्वा॒। सं॒क्र॒म इति॑ सम्ऽक्र॒मः। अ॒सि॒। सं॒क्र॒मायेति॑ सम्ऽक्र॒माय॑। त्वा॒। उ॒त्क्र॒म इत्यु॑त्ऽक्र॒मः। अ॒सि॒। उ॒त्क्र॒मायेत्यु॑त्ऽक्र॒माय॑। त्वा॒। उत्क्रा॑न्ति॒रित्युत्ऽक्रा॑न्तिः। अ॒सि॒। उत्क्रा॑न्त्या॒ इत्युत्ऽक्रा॑न्त्यै। त्वा॒। अधि॑पति॒नेत्यधि॑ऽपतिना। ऊ॒र्जा। ऊर्ज॑म्। जि॒न्व ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिवृदसि त्रिवृते त्वा प्रवृदसि प्रवृते त्वा विवृदसि विवृते त्वा सवृदसि सवृते त्वाक्रमोस्याक्रमाय त्वा सङ्क्रमोसि सङ्क्रमाय त्वोत्क्रमोस्युत्क्रमाय त्वोत्क्रान्तिरस्युत्क्रान्त्यै त्वाधिपतिनोर्जार्जञ्जिन्व ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्रिवृदिति त्रिऽवृऽत्। असि। त्रिवृत इति त्रिऽवृते। त्वा। प्रवृदिति प्रऽवृत्। असि। प्रवृत इति प्रऽवृते। त्वा। विवृदिति विऽवृत्। असि। विवृत इति विऽवृते। त्वा। सवृदिति सऽवृत्। असि। सवृत इति सऽवृते। त्वा। आक्रम इत्याऽक्रमः। असि। आक्रमायेत्याऽक्रमाय। त्वा। संक्रम इति सम्ऽक्रमः। असि। संक्रमायेति सम्ऽक्रमाय। त्वा। उत्क्रम इत्युत्ऽक्रमः। असि। उत्क्रमायेत्युत्ऽक्रमाय। त्वा। उत्क्रान्तिरित्युत्ऽक्रान्तिः। असि। उत्क्रान्त्या इत्युत्ऽक्रान्त्यै। त्वा। अधिपतिनेत्यधिऽपतिना। ऊर्जा। ऊर्जम्। जिन्व॥९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्य! यस्त्वं त्रिवृदसि तस्मै त्रिवृते त्वा, यत्प्रवृदसि तस्मै प्रवृत्ते त्वा, यद्विवृदसि तस्मै विवृते त्वा, य आक्रमोऽसि तस्मा आक्रमाय त्वा, यत सवृदसि तस्मै सवृते त्वा, यः संक्रमोऽसि तस्मै संक्रमाय त्वा, य उत्क्रमोऽसि तस्मा उत्क्रमाय त्वा, योत्क्रान्तिरसि तस्या उत्क्रान्त्यै त्वा त्वामहं परिगृह्णामि। तेन मयाधिपतिना सह वर्त्तमाना त्वमूर्जोर्जं जिन्व॥९॥
पदार्थः
(त्रिवृत्) यत् त्रिभिः सत्त्वरजस्तमोगुणैः सह वर्त्तते तस्याव्यक्तस्य वेत्ता (असि) (त्रिवृते) (त्वा) त्वाम् (प्रवृत्) यत्कार्य्यरूपेण प्रवर्त्तते तस्य ज्ञाता (असि) (प्रवृते) (त्वा) (विवृत्) यद्विविधैराकारैर्वर्त्तते तज्जगदुपकर्त्ता (असि) (विवृते) (त्वा) (सवृत्) यः समानेन धर्मेण सह वर्त्तते तस्य बोधकः (असि) (सवृते) (त्वा) (आक्रमः) समन्तात् क्रमन्ते पदार्था यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्य विज्ञापकः (असि) (आक्रमाय) (त्वा) (संक्रमः) सम्यक् क्रमन्ते यस्मिँस्तस्य (असि) (संक्रमाय) (त्वा) (उत्क्रमः) उदूर्ध्वं क्रमः क्रमणं यस्मात् तस्य (असि) (उत्क्रमाय) (त्वा) (उत्क्रान्तिः) उत्क्राम्यन्त्युल्लंघयन्ति समान् विषमान् देशान् यया गत्या तद्विद्याज्ञात्री (असि) (उत्क्रान्त्यै) (त्वा) (अधिपतिना) अधिष्ठात्रा (ऊर्जा) पराक्रमेण (ऊर्जम्) बलम् (जिन्व) प्राप्नुहि॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि पृथिव्यादिपदार्थानां गुणकर्मस्वभावविज्ञानेन विना कश्चिदपि विद्वान् भवितुमर्हति तस्मात् कार्य्यकारणसंघातं यथावद्विज्ञायान्येभ्य उपदेष्टव्यो यथाऽध्यक्षेण सह सेना विजयं करोति तथा स्वस्वामिना सह स्त्री सर्वं दुःखं जयति॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्य! जो तू (त्रिवृत्) सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के सह वर्त्तमान अव्यक्त कारण का जानने हारा (असि) है, उस (त्रिवृते) तीन गुणों से युक्त कारण के ज्ञान के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (प्रवृत्) जिस कार्यरूप से प्रवृत्त संसार का ज्ञाता (असि) है, उस (प्रवृते) कार्यरूप संसार को जानने के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (विवृत्) जिस विविध प्रकार से प्रवृत्त जगत् का उपकारकर्त्ता (असि) है, उस (विवृते) जगदुपकार के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (सवृत्) जिस समान धर्म के साथ वर्त्तमान पदार्थों का जानने हारा (असि) है, उस (सवृते) साधर्म्य पदार्थों के ज्ञान के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (आक्रमः) अच्छे प्रकार पदार्थों के रहने के स्थान अन्तरिक्ष का जानने वाला (असि) है, उस (आक्रमाय) अन्तरिक्ष को जानने के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (संक्रमः) सम्यक् पदार्थों को जानता (असि) है, उस (संक्रमाय) पदार्थ-ज्ञान के लिये (त्वा) तुझ को, जो तू (उत्क्रमः) ऊपर मेघमण्डल की गति का ज्ञाता (असि) है, उस (उत्क्रमाय) मेघमण्डल की गति जानने के लिये (त्वा) तुझ को तथा हे स्त्रि! जो तू (उत्क्रान्तिः) सम-विषम पदार्थों के उल्लंघन के हेतु विद्या को जानने हारी (असि) है, उस (उत्क्रान्त्यै) गमनविद्या के जानने के लिये (त्वा) तुझ को सब प्रकार ग्रहण करते हैं। (अधिपतिना) अपने स्वामी के सह वर्त्तमान तू (ऊर्जा) पराक्रम से (ऊर्जम्) बल को (जिन्व) प्राप्त हो॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पृथिवी आदि पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभावों के जाने विना कोई भी विद्वान् नहीं हो सकता। इसलिये कार्य कारण दोनों को यथावत् जान के अन्य मनुष्यों के लिये उपदेश करना चाहिये। जैसे अध्यक्ष के साथ सेना विजय प्राप्त करती है, वैसे ही अपने पति के साथ स्त्री सब दुःखों को जीत लेती है॥९॥
विषय
प्रतिपद् आदि पदाधिकारों का वर्णन ।
भावार्थ
५. (त्रिवृत् असि विवृते त्वा) तू त्रिगुण शक्तियों से वर्तमान होने से, या तीनों वेदों में, ज्ञानी 'तीनों लोकों में यशस्वी' एवं तीन कालों में तत्व- दर्शी होने से 'त्रिवृत्' है। तुझ को 'त्रिवृत्' पद के लिये ही नियुक्त करता हूँ । ६. ( प्रवृत् असि प्रवृते त्वा) तू प्रकृष्ट, दूर देश में भी व्यवहार करने में समर्थ होन से 'प्रवृत्' है। तुझे 'प्रवृत्' पद के लिये नियुक्त करता हूं । ७. (सवृत् असि सवृते त्वा) समस्त प्रजाओं में समान रूप से व्यवहार करने में समर्थ है. अतः तुझे 'सवृत्' पद पर नियुक्त करता हूं । ८. ( विवृत् असि विवृते त्वा) तू विविध दशा और प्रजाओं और कार्यों में व्यवहार करने में समर्थ होने से 'विवृत्' है अतः तुझे 'विवृत' पद के लिये नियुक्त करता हूं । ९. तू ( आक्रमः असि आक्रमाय त्वा ) सब तरफ आक्रमण करने में समर्थ है | अतः तुझे 'आक्रम' अर्थात् आक्रमण करने के पद पर नियुक्त करता हूँ । १०. ( संक्रमः असि संक्रमाय त्वा ) तू सब तरफ फैल जाने में सथर्म होने से 'संक्रम' है । तुझे 'संक्रम' नाम पद पर नियुक्त करता हूं । ११. ( उत्क्रमः असि उव्कनाय त्वा ) तू उन्नत पद या स्थानों पर क्रमण करने में समर्थ होने से 'उत्क्रम' है तुझे 'उत्क्रम' पद पर नियुक्त करता हूँ । १२. (उत्क्रान्तिः असिः उत्कान्त्यै त्वा) तु ऊंचे प्रदेशों में क्रमण करने में समर्थ होने 'उत्क्रान्ति' है । तुझे मैं उत्कान्ति पद पर ऊंचे स्थानों में चढ़ जाने के कार्य पर ही नियुक्त करता हूँ । हे राजन् ! इस प्रकार योग्य २ कार्यों के लिये योग्य २ पद पर योग्य २ पुरुषों को नियुक्त करके सू ( अधिपतिना ) अधिपति, अध्यक्ष रूप अपने ही ( ऊर्जा ) बल, वीर्य या पराक्रम से ( ऊर्जम्) अपने पराक्रम, बल वीर्य की ( जिन्व ) वृद्धि कर, उसे पुष्ट कर । इस प्रकार प्रतिपत्, अनुपत् सम्पत्, तेजस्, त्रिवृत्, प्रवृत् विवृत्, संवृत्, आक्रम, संक्रम, उत्क्रम, और उत्क्रान्ति । इन बारह कार्यों के लिये १२ पदाधिकारियों को और नियुक्त किया जाता है । १६ पहली और १२ ये मिलकर २८ राष्ट्र की सम्पदाओं या विभागों का वर्णन हो गया ।
टिप्पणी
जिन्व वेष श्री : क्षत्रं जिन्व' इति काण्व०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्राह्मी जगती । निषादः ॥
विषय
इक्कीस से उनतीस तक स्तोमभाग
पदार्थ
२१. (त्रिवृत् असि) = तू 'धर्म, अर्थ व काम' तीनों में वर्त्तनेवाला है, तीनों का समानुपात में सेवन करनेवाला है। मस्तिष्क की उन्नति से ज्ञान-वृद्धि द्वारा तू धर्म को अपनाता है, हृदय के नैर्मल्य से मधुर व्यवहारवाला बनकर तू सुपथा अर्थ का अर्जन करता है और शारीरिक उन्नति के द्वारा स्वस्थ बनकर उचित आनन्द [काम] को प्राप्त करनेवाला होता है। (त्रिवृते त्वा) = इस प्रकार धर्मार्थकाम तीनों में वर्त्तने के लिए मैं तुझे स्वीकार करता हूँ । २२. (प्रवृत् असि) = तू सदा उत्कृष्ट कार्यों में प्रवृत्त होनेवाला है [ प्रवर्त्तते], (प्रवृते त्वा) = सदा कार्य - प्रवृत्त होने के लिए, यज्ञादि उत्तम कर्मों में आलस्यशून्यता से सदा प्रवृत्त होने के लिए ही मैं तुझे स्वीकार करता हूँ। २३. (विवृत् असि) = [विशेषेण वर्त्तते भूतेषु] तू विशिष्टरूप से यज्ञादि उत्तम कर्मों से प्राणियों के हित में प्रवृत्त होनेवाला है। (विवृते त्वा) = इस विशिष्ट वर्त्तन के लिए ही मैं तुझे स्वीकार करता हूँ। पति-पत्नी प्राणिमात्र के प्रीति - [आनन्द] - वर्धक कार्यों में प्रवृत्त होने के लिए ही परस्पर सङ्गत हों । २४. (सवृत् असि) = [सह वर्त्तते ] तू सदा साथ मिलकर चलनेवाली है, (सवृते त्वा) = इस सह वृत्ति के लिए ही मैं तुझे अङ्गीकार करता हूँ। २५. (आक्रमः असि) = [आक्रामति पराभवति अशुभम् ] तू उद्योग से सब अशुभों का पराभव करनेवाला है, इस (आक्रमाय त्वा) = अशुभ- पराभवन के लिए ही मैं तुझे स्वीकार करता हूँ। २६. (संक्रमोऽसि) = [संक्रामति] सदा मिलकर क़दम रखनेवाला है, अकेला ही तेज़ी से आगे बढ़ जानेवाला नहीं, अतः (संक्रमाय त्वा) = इस मिलकर उन्नति के मार्ग में क़दम रखने के लिए मैं तुझे स्वीकार करता हूँ। २७. (उत्क्रमः असि) = तू [उत् = out] विषयों से बाहर निकलने के लिए व विघ्नों के पार होने के लिए क़दम रखनेवाला है अतः (उत्क्रमाय त्वा) = इस उत्क्रमवृत्ति के लिए मैं तुझे स्वीकार करता हूँ। २८. (उत्क्रान्तिः असि) = [उत्कृष्ट क्रान्तिर्गमनं यस्य] तू सदा उत्कृष्ट क्रान्तिवाला है, अच्छाई के लिए क्रान्ति करनेवाला है। (उत्क्रान्त्यै त्वा) = अपने जीवन में उत्कृष्ट क्रान्ति लाने के लिए ही मैं तुझे स्वीकार करता हूँ। २९. और तू सदा (अधिपतिना) = [अधिकं पाति] अधिष्ठातृरूपेण वर्त्तमान उस सर्वाधिक रक्षक प्रभु के साथ प्रातः सायं सङ्गत होकर (उर्जा) = बल और प्राणशक्ति के प्रवाह के द्वारा (ऊर्जं जिन्व) = अपने बल व प्राण को प्रीणित करनेवाला बन। यह सन्धि-वेला की सन्ध्या तुझे उस सर्वशक्तिमान् प्रभु से संहित करके फिर-फिर शक्ति से भरनेवाली होगी और अपने को शक्ति से भरने की क्रिया ही तेरे प्रभु स्तवन की चरम कला होगी, जो तुझे अवश्य प्रभु-प्राप्ति के योग्य बना देगी। ('नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः') प्रभु निर्बल को नहीं मिलते, शक्ति सम्पन्न बनकर उसे पाया जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'त्रिवृत्, प्रवृत्, विवृत् व सवृत्' बनकर 'आक्रम, संक्रम व उत्क्रम' हों और एक विशिष्ट [उत्कृष्]) क्रान्ति के लिए प्रभु- सम्पर्क से अपने में शक्ति का सञ्चार करें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पृथ्वी इत्यादी पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणल्याखेरीज कोणीही विद्वान बनू शकत नाही. त्यासाठी कार्य व कारणभाव हे दोन्ही यथायोग्य जाणावेत व इतरांनाही बोध करून द्यावा.
विषय
मनुष्यांनी काय केले पाहिजे, याविषयी पुढील मंत्रात वाचन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (विद्वान पती आणि विदुषी पत्नी, यांना उद्देशून सामाजिक जनांनी व्यक्त केलेली अपेक्षा वा स्तुती) हे मनुष्य (पती) (त्रिवृत्) सत्त्वगुण, रजोगुण आणि तमोगुण या तीन गुणांसह विद्यमान सृष्टीचे जे अव्यक्त कारण (प्रकृती) आहे, त्यास तू जाणरारा (असि आहेस. (त्रिवृते) तीन गुणांनी युक्त त्या अव्यक्त कारणाचे (प्रकृतीचे) ज्ञान प्राप्त करण्यासाठी (त्वा) तुला (आम्ही सर्वसामाजिकजन ग्रहण करीत आहोत-मान्यता देत आहोत) तू (प्रवृत्त) कार्यरुपेण विद्यमान या संसाराचा जाणकार (असि) आहेस, म्हणून त्या (प्रवृत्ते) कार्यरुप संसाराचे अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करण्यासाठी आम्ही (त्वा) तुम्हा (ग्रहणकरीत आहोत) तू (विवृत्) विविध प्रकारच्या या जगावर (आपल्या ज्ञान-विज्ञानाद्वारे) उपकार करणारा (असि) आहेस, म्हणून (विवृते) जगावर अधिकाधिक उपकार करण्यासाठी आम्ही (त्वा) तुला (ग्रहण करीत आहोत वा मान्य करीत आहोत.) तू (सवृत्) कमान गुणधर्म असणार्या पदार्थांचा ज्ञात (असि) आहेस, म्हणून (सवृते) साधर्म्य असणार्या पदार्थांविषयी अधिक शोध करण्यासाठी आम्ही (त्वा) तुला (मान्य करीत आहोत) (उपक्रम:) चांगल्या उपकारक पदार्थांचे स्थान जे अंतरिक्ष, तू त्या अंतरिक्षाचे ज्ञान असणारा (असि) आहेस. म्हणून (आक्रमाय) अंतरिक्षाविषयी अधिक ज्ञान संपादित करण्यासाठी आम्ही (त्वा) तुला (मान्य करीत आहोत) तू (संक्रम:) पदार्थांचे सम्यक्ज्ञान असरणारा (असि) आहेस, म्हणून संक्रमाय) पदार्थांच्या अधिकज्ञान मिळविण्यासाठी आम्ही (त्वा) तुला (मान्य करीत आहोत) तू (उत्क्रम:) आकाशातल्या मेघमंडळाच्या प्रवाह आदीविषयी ज्ञानी (असि) आहेस, म्हणून (उत्क्रमाय) मेघमंडळाच्या गतीचे ज्ञान प्राप्त करण्यासाठी आम्ही (त्वा) तुला (मान्य करीत आहोत) हे विदुषी पत्नी, तू देखील (उत्क्रान्ति:) सम विषम (पदार्थांला) प्रदेशाला (उंच, अतिउंच प्रदेशाला) (पर्वतीय वा डोंगरी प्रदेशाला) ओलांडून जाण्याची जी (उड्डयन) विद्या, तू ती विद्या जाणणारी (असि) आहेस. त्या (उत्क्रान्त्यै) अवकाश-गमन विद्या अधिक उपकारकरीतीने जाणण्यासाठी आम्ही (त्वा) तुला सर्वप्रकारे सर्वमताने ग्रहण व मान्य करीत आहोत. (अधिपतिमा) आपल्या पतीसह तू (ऊर्जा) आपल्या वा दोघांच्या पराक्रम-पुरूषार्थाने (ऊर्जम्) शत्ती (जिन्व) प्राप्त कर ॥9॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. पृथ्वी आदी पदार्थांचे गुण, कर्म आणि स्वभाव यांचे ज्ञान प्राप्त केल्याशिवाय कोणीही विद्वान होऊ शकत नाही, म्हणून कार्य (हे जग) आणि कारण (प्रकृती) या दोन्हीचे यथावत ज्ञान प्राप्त करूनच विद्वानाने अन्य मनुष्यांना ते सांगावे ॥9॥
टिप्पणी
(टीप : या मंत्रातील ‘उत्क्रान्ति’ या शब्दाचा अर्थ हिंदी भाषेत ‘सम-विषम पदार्थों के’ असा दिला आहे. ‘पदार्थ’ या शब्दाऐवजी ‘प्रदेश’ च्या शब्द पाहिजे. कारण तो शब्द सार्थक व उचित आहे. शिवाय महर्षींनी संस्कृत भाष्यात ‘समात् विषमा देशान्’ हाच अर्थ दिला आहे.)
इंग्लिश (3)
Meaning
O husband, thou knowest the primordial matter with three qualities. For knowing that matter, do I accept thee. Thou knowest this world the effect of matter. For knowing this world do I accept thee. Thou art the manifold benefactor of the world. I accept thee for doing good to humanity. Thou knowest all objects similar in nature. For knowing them do I accept thee. Thou possessest the knowledge of atmosphere, for knowing the atmosphere, do I accept thee. Thou accurately knowest all the objects. For knowing them do I accept thee. Thou knowest the movements of clouds on high. For knowing them do I accept thee. O wife, thou knowest the science wherewith we cross the accessible and inaccessible regions. For knowing the art of flying, do I accept thee. Living with thy husband, with thy energy attain to strength.
Meaning
You know the threefold world of matter (tamas), motion (rajas) and mind (sattva). I love and respect you for the threefold world of nature. You are the power of initiative. I follow you for the sake of initiative. You are the versatile man of all-round action. I accept you for the variety of action. You are the man of constant Dharma. I dedicate myself to you for the observance of Dharma. You are the great leap forward in life. I follow you for the great leap forward. You are the man of balanced and comprehensive progress. I dedicate myself to you for balanced and comprehensive progress. You are the man of onward advance. I follow you for the advance upward. You are for change and ascendance in life. I admire and follow you for growth in the higher direction. Lady of the house, dedicate yourself to the head of the family and with vigour and enthusiasm, advance the power and excellence of the family.
Translation
О desirable lady, you are trivrt (endowed with three qualities - Satva, Rajas and Tamas); for the three qualities I invoke you. (1) You are pravrt (exhorter for activities); for exhortation I invoke you. (2) You are vivrt (expander of activities); for expansion I invoke you. (3) Your are savrt (harmonizer of activities); for harmonization I invoke you. (4) You are akrama (aggressive); for aggression's sake, I invoke you. (5) You are samkrama (unifier); for unification's sake, I invoke you. (6) You are utkrama (ascending); for ascendance's sake I invoke you. (7) You utkranti (radical revolution); for revolution's sake I invoke you. (8) With energy as the lord, promote energy. (9)
Notes
Trivet, त्रिभिर्गुणैर्वृता युक्ता, endowed with three qualities. Or त्रि: आवृता, thrice protected. Akramah, agression. Also, endeavour. Adhipatinà ūrjā, with the overlording energy or vigour.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদিগকে কী করা উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্য ! তুমি (ত্রিবৃৎ) সত্ত্বগুণ, রজোগুণ ও তমোগুণ সহ বর্ত্তমান অব্যক্ত কারণের জ্ঞাতা (অসি) হও, সেই (ত্রিবৃত্তে) তিন গুণে যুক্ত কারণের জ্ঞানের জন্য (ত্বা) তোমাকে, তুমি (প্রবৃৎ) যে কার্য্যরূপ দ্বারা প্রবৃত্ত সংসারের জ্ঞাতা (অসি) হও, সেই (প্রবৃতে) কার্য্যরূপ সংসারকে জানিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে, তুমি (বিবৃৎ) যে বিবিধ প্রকার দ্বারা প্রবৃত্ত জগতের উপকারকর্ত্তা (অসি) হও, সেই (বিবৃতে) জগদুপকারের জন্য (ত্বা) তোমাকে, তুমি (সবৃৎ) যে সমান ধর্ম সহ বর্ত্তমান পদার্থ সমূহের জ্ঞাতা (অসি) হও সেই (সবৃতে) সাধর্ম্য পদার্থ সকলের জ্ঞান হেতু (ত্বা) তোমাকে, তুমি (আক্রমঃ) উত্তম প্রকার পদার্থগুলির থাকিবার স্থান অন্তরিক্ষের জ্ঞাতা (অসি) হও, সেই (আক্রমায়) অন্তরিক্ষকে জানিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে, তুমি (সক্রমঃ) সম্যক্ পদার্থসকলকে জান সেই (সংক্রমায়) পদার্থ জ্ঞান হেতু (ত্বা) তোমাকে, তুমি (উৎক্রমঃ) ঊপর মেঘ মন্ডলের গতির জ্ঞাতা (অসি) হও, সেই (উৎক্রমায়) মেঘমন্ডলের গতি জানিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে তথা হে স্ত্রী! যেহেতু তুমি (উৎক্রান্তিঃ) সম বিষম পদার্থ সমূহের উল্লঙ্ঘন হেতু বিদ্যার জ্ঞাতা (অসি) হও, সেই (উৎক্রান্তৈ) গমন-বিদ্যা জানিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে সর্ব প্রকারে গ্রহণ করি (অধিপতিন) নিজ স্বামী সহ বর্ত্তমান তুমি (ঊর্জা) পরাক্রম দ্বারা (ঊর্জম্) বলকে (জিন্ব) প্রাপ্ত হও ॥ ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । পৃথিবী আদি পদার্থ সকলের গুণ, কর্মও স্বভাব না জানিয়া কেহ বিদ্বান্ হইতে পারে না এইজন্য কার্য্য কারণ উভয়কে যথাবৎ জানিয়া মনুষ্যদিগের জন্য উপদেশ করা উচিত । যেমন অধ্যক্ষ সহ সেনা বিজয় প্রাপ্ত করে সেইরূপ স্বীয় পতি সহ স্ত্রী সকল দুঃখকে জিতিয়া লয় ॥ ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ত্রি॒বৃদ॑সি ত্রি॒বৃতে॑ ত্বা প্র॒বৃদ॑সি প্র॒বৃতে॑ ত্বা বি॒বৃদ॑সি বি॒বৃতে॑ ত্বা স॒বৃদ॑সি স॒বৃতে॑ ত্বাऽऽক্র॒মো᳖ऽস্যাক্র॒মায়॑ ত্বা সংক্র॒মো᳖ऽসি সংক্র॒মায়॑ ত্বোৎক্র॒মো᳖ऽস্যুৎক্র॒মায়॒ ত্বোৎক্রা॑ন্তির॒স্যুৎক্রা॑ন্ত্যৈ॒ ত্বাऽধি॑পতিনো॒র্জোর্জং॑ জিন্ব ॥ ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ত্রিবৃদসীত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । বিরাড্ ব্রাহ্মী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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