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यजुर्वेद अध्याय - 15

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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 65
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    5

    स॒हस्र॑स्य प्र॒मासि॑ स॒हस्र॑स्य प्रति॒मासि॑ स॒हस्र॑स्यो॒न्मासि॑ सा॒ह॒स्रोऽसि स॒हस्रा॑य त्वा॥६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑स्य। प्र॒मेति॑ प्र॒ऽमा। अ॒सि॒। स॒हस्र॑स्य। प्र॒ति॒मेति॑ प्रति॒ऽमा। अ॒सि॒। स॒हस्र॑स्य। उ॒न्मेत्यु॒त्ऽमा। अ॒सि॒। सा॒ह॒स्रः। अ॒सि॒। स॒हस्रा॑य। त्वा॒ ॥६५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रस्य प्रमासि सहस्रस्य प्रतिमासि सहस्रस्योन्मासि साहस्रोसि सहस्राय त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रस्य। प्रमेति प्रऽमा। असि। सहस्रस्य। प्रतिमेति प्रतिऽमा। असि। सहस्रस्य। उन्मेत्युत्ऽमा। असि। साहस्रः। असि। सहस्राय। त्वा॥६५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 65
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् विदुषि वा यतस्त्वं सहस्रस्य प्रमेवासि सहस्रस्य प्रतिमेवासि सहस्रस्योन्मेवासि साहस्रोऽसि तस्मात् सहस्राय त्वा त्वां परमेष्ठी सत्ये व्यवहारे सादयतु॥६५॥

    पदार्थः

    (सहस्रस्य) असंख्यपदार्थयुक्तस्य जगतः (प्रमा) प्रमाणं यथार्थविज्ञानम् (असि) (सहस्रस्य) असंख्यपदार्थविशेषस्य (प्रतिमा) प्रतिमीयन्ते परिमीयन्ते सर्वेः पदार्था यया सा (असि) (सहस्रस्य) असंख्यातस्य स्थूलवस्तुनः (उन्मा) ऊर्ध्वं मिनोति यया तुलया तद्वत् (असि) (साहस्रः) सहस्रमसंख्याताः पदार्था विद्या वा विद्यन्ते यस्य सः (असि) (सहस्राय) असंख्यप्रयोजनाय (त्वा) त्वाम्। [अयं मन्त्रः शत॰८.७.४.१० व्याख्यातः]॥६५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पूर्वमन्त्रात् परमेष्ठी सादयत्विति पदद्वयमनुवर्त्तते। मनुष्याणां त्रिभिः साधनैर्व्यवहाराः सिध्यन्ति। एकं प्रमा यद्यथार्थविज्ञानम्, द्वितीया प्रतिमा यानि परिमाणसाधनानि पदार्थतोलनार्थानि, तृतीयमुन्मा तुलादिकं चेति॥६५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् पुरुष वा विदुषी स्त्रि! जिस कारण तू (सहस्रस्य) असंख्यात पदार्थों से युक्त जगत् के (प्रमा) प्रमाण यथार्थ ज्ञान के तुल्य (असि) है, (सहस्रस्य) असंख्य विशेष पदार्थों के (प्रतिमा) तोलनसाधन के तुल्य (असि) है, (सहस्रस्य) असंख्य स्थूल वस्तुओं के (उन्मा) तोलने की तुला के समान (असि) है, (साहस्रः) असंख्य पदार्थ और विद्याओं से युक्त (असि) है, इस कारण (सहस्राय) असंख्यात प्रयोजनों के लिये (त्वा) तुझ को परमात्मा व्यवहार में स्थित करे॥६५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यहां पूर्वमन्त्र से परमेष्ठी, सादयतु इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। तीन साधनों से मनुष्यों के व्यवहार सिद्ध होते हैं। एक तो यथार्थविज्ञान, दूसरा पदार्थ तोलने के लिये तोल के साधन बाट और तीसरा तराजू आदि। यह शिशिर ऋतु का वर्णन पूरा हुआ॥६५॥

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    विषय

    राजा का स्वरूप।

    भावार्थ

    हे राजन् ! हे राष्ट्रशक्ते ! स्त्रि ! और हे पुरुष ! तू ( सहस्रस्य प्रमा असि ) हजारों पदार्थों से युक्त इस विश्व का यथार्थ ज्ञान करने वाला है। तू ( सहस्रस्य प्रतिमा असि ) सहस्रों ऐश्वर्यो का मापक अर्थात् सहस्रों के बल के तुल्य बलवान् है । ( सहस्रस्य उन्मा असि ) हजारों से अधिक ऊंचे पद मान प्रतिष्ठा और बल से युक्त है । इसी से तू ( साहस्र : असि ) सहस्त्रों के ऊपर अधिष्ठाता होने योग्य है ।( सहस्राय त्वा ) तुझे मैं 'सहस्र नाम उच्च पद के लिये नियुक्त करता हूं ।शत० ८।७।४।११ ॥

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    विषय

    अतुलनीय ईश्वर

    शब्दार्थ

    हे जीव ! तु (सहस्रस्य प्रमा असि) सहस्रों, असंख्य, सर्वपदार्थों से युक्त इस विश्व का यथार्थ ज्ञान करनेवाला है (सहस्रस्य प्रतिमा असि) तू सहस्रों पदार्थों का निर्माण करनेवाला है, सहस्रों की प्रतिमा = प्रतिकृति, नकल करनेवाला है (सहस्त्रस्य उन्मा असि) तू सहस्रों मनुष्यों की तोल है, अतः तू एक नहीं (सहस्रः असि) हज़ारों के तुल्य है, अत: (सहस्रस्य त्वा) तुझे असंख्य मनुष्यों के हित के लिए प्रेरित करता हूँ ।

    भावार्थ

    १. हे जीव ! तू प्रमा है । तू ज्ञान प्राप्त करनेवाला है । तू एक-दो पदार्थो का नही, अनेक पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति और सामर्थ्य रखता है, अतः तू पृथिवी, अन्तरिक्ष और लोक का ज्ञान प्राप्त कर । पशु-पक्षियों और कीट-पतङ्गों का ज्ञान प्राप्त कर । अधिक-से-अधिक ज्ञानी बन । २. तू प्रतिमा है । तु पदार्थों की प्रतिकृति करनेवाला है । संसार के पदार्थों का निरीक्षण कर और नाना प्रकार के आविष्कार कर । तू सृष्टि की नकल कर और अपनी जैवी सृष्टि रच डाल । ३. तू उन्मा है । तू सृष्टि के पदार्थों की तोल है । विद्वान् ही सभ्यता और संस्कृति की तोल, पैमाने, मापक होते हैं। किसी देश की संस्कृति और सभ्यता का अनुमान विद्वानों के शील और सदाचार से ही लगाया जा सकता है । ४. प्रमा, प्रतिमा और उन्मा होने के कारण मनुष्य सहस्र है, हज़ारों के बराबर है, सब-कुछ है । वह अपने लिए नहीं सोचता, सबके लिए सोचता है । ५. दुःखियों को सुखी कर । प्रभु तुझे सब प्राणियों के कल्याण के लिए नियुक्त करता है ।

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    विषय

    साहस्र= सहस्रभक्त

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र की समाप्ति पर 'तया देवतया''उस देवता के साथ, उस देवाधिदेव प्रभु के सम्पर्क में' ये शब्द थे। उन्हीं का व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि तू (सहस्रस्य) = सदा आनन्दस्वरूप [स+हस्] उस परमात्मा का (प्रमा असि) = ज्ञान प्राप्त करनेवाला है। २. उसका ज्ञान प्राप्त करके (सहस्त्रस्य प्रतिमा असि) = तू उसकी प्रतिमा बना है। उस प्रभु का ही छोटा रूप बनने का तू प्रयत्न करता है। ३. उसका रूप बनने के लिए ही तू (सहस्रस्य) = उस सदा आनन्दमय परमात्मा का (उन्मा असि) = उत्तोलन करता है। उसके गुणों का चिन्तन करता हुआ उन गुणों को अपने में लेने का प्रयत्न करता है। ४. और वस्तुतः इस प्रकार होने से ही तू (साहस्त्र:) = उस सहस्र प्रभु का सच्चा भक्त असि बनता है। भक्त तो वही है जो भक्तिभाजन के गुणों का उत्तोलन करके उन्हें अपने में धारण करे। ५. इस सहस्र के भक्त बने हुए (त्वा सहस्राय) = तुझे मैं उस सहस्र प्रभु को पाने के लिए नियुक्त करता हूँ, अर्थात् प्रभु-भक्त बनकर तू उस प्रभु को पानेवाला हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम आनन्दमय प्रभु का ज्ञान प्राप्त करें और प्रभु के अनुरूप बनने के लिए यत्नशील हों, प्रभु के गुणों का उत्तोलन करें और सच्चे प्रभु-भक्त बनकर प्रभु को पाने के पात्र बनें। यहाँ पञ्चदशाध्याय की समाप्ति पर 'साहस्र' बनने का उल्लेख है। 'साहस्र' आनन्दमय प्रभु का भक्त है। यह साहस्र १६वें अध्याय में प्रभु का स्तवन करता हुआ कहता है कि

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पूर्वीच्या मंत्रातील ‘परमेष्ठी’, ‘सादयतु’ या दोन पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे. तीन साधनांनी मानवी व्यवहार सिद्ध होतात-एक यथार्थ विज्ञान, दुसरे पदार्थांचे वजन करण्याचे माप व तिसरा तराजू. येथे शिशिर ऋतूचे वर्णन पूर्ण होते.

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    विषय

    मनुष्यांनी काय करावे (कर्तव्यें कोणती?) पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान पुरुष, वा हे विदुषी स्त्री, तू (सहस्रस्य) असंख्य पदार्थांनी भरलेल्या या जगाच्या (प्रमा) यथार्थ ज्ञानाचा अधिकारी अधिकारिणी (असि) आहेस. (सहस्रस्य) अगणित पदार्थांना (प्रतिमा) तोलण्या-मापण्याची शक्ती तुझ्यात (असि) आहे. (सहस्रस्य) तू जगातील (असंख्य पदार्थांना (उन्मा) तोलणार्‍या तुलाप्रमाणे (असि) आहेस. तू (साहस्र:) असंख्य पदार्थ आणि पदार्थ विद्येने संपन्न (असि) आहेस. यामुळे (सहस्राय) जगातील असंख्य प्रयोजनांच्या पूर्तीसाठी परमेश्वराने (त्वा) तुला स्थिर वा स्थापित करावे. (परमेश्वराने मनुष्याला पदार्थांचे गुण, क्रिया, जाणण्याची, त्या पदार्थांचे माप, परिमाण, तोलन आदीचे ज्ञान दिले आहे, म्हणून परमेश्वराने मानवाला या मंत्राद्वारे उपदेश केला आहे की त्याने त्या ज्ञानाचा सदुपयोग करावा आणि सृष्टि निर्माण करून परमेश्वराने मनुष्यासाठी जे कार्य वा प्रयोजन निश्चित केले आहे, त्याची पूर्तता करावी. ॥65॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा आहे. या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातून (64 वा मंत्र) ‘परमेष्ठी’ ‘सादयतु’ या दोन शब्दांची अनुवृत्ती केली आहे. माणसांचे व्यवहार, (दैनंदिन कामकाज, खरेदी-विक्री आदी) या तीन साधनांद्वारे संपन्न होतात. एक यथार्थ विज्ञान (भौतिकशास्त्र) दुसरे -पदार्थ तोलणे-मोजणेसाठीची साधने शेर अच्छेरची वजनें आणि से साधन आहे- तराजू आदी । येथे शिशिर ऋतूचे वर्णन पूर्ण होत आहे ॥65॥

    टिप्पणी

    या अध्यायामध्ये ऋतुविद्येचे प्रतिपादन असल्यामुळे या अध्यायाची संगती पूर्वीच्या अध्यायाशी आहे, हे जाणून असावे.^पंधरावा अध्याय समाप्त

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned man or woman, thou knowest the world full of countless objects; thou measurest the intrinsic worth of countless precious objects, thou servest as balance for judging the nature of countless material objects. Thou art the master of innumerable sciences. God sets thee in life for numberless achievements.

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    Meaning

    Learned man, you are the master of a thousand facts of life and nature. You are the measure of a thousand confirmations of knowledge. You are the reference and judge for a thousand doubts and questions. You are the lord and authority over a thousand problems of science and existence. May the Lord Omniscient of existence grant you your rightful place in the world for a thousand achievements.

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    Translation

    O adorable Lord, you are the measure of thousands. (1) You are the symbol of thousands. (2) You are equivalent to thousands. (3) You are having thousands. (4) I invoke you for the sake of thousands. (5)

    Notes

    Pramā, प्रमाणं, measure. Pratimā, प्रतिमानं, symbol; representative; statue. Unma, तुलामानं, weigher. Or, equivalent. Sahasraḥ, सहस्रार्ह:, worth the thousands. Sahasraya, for the sake of thousands. अनंत फलप्राप्त्यै, to obtain the eternal gain (Mahidhara). To achieve numberless ends (Dayā. ).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যৈঃ কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে কী করা উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বন্ পুরুষ বিদুষী স্ত্রী বা যে কারণে তুমি (সহস্রস্য) অসংখ্যাত পদার্থসকল যুক্ত জগতের (প্রমা) প্রমাণ যথার্থ জ্ঞানের তুল্য (অসি) আছো, (সহস্রস্য) অসংখ্য বিশেষ পদার্থ সকলের (প্রতিমা) তৌল সাধন তুল্য (অসি) আছো, (সহস্রস্য) অসংখ্য স্থূল বস্তুগুলির (উন্মা) তৌলের তুল্য সম (অসি) আছো । (সাহস্রঃ) অসংখ্য পদার্থ এবং বিদ্যাসকল যুক্ত (অসি) আছো এই কারণে (সহস্রায়) অসংখ্যাত প্রয়োজন হেতু (ত্বা) তোমাকে পরমাত্মা ব্যবহারে স্থিত করুক ॥ ৬৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । এখানে পূর্বমন্ত্রের দ্বারা পরমেষ্ঠী, সাদয়তু এই দুটি পদের অনুবৃত্তি আইসে । তিন সাধন দ্বারা মনুষ্যদিগের ব্যবহার সিদ্ধ হয়, প্রথম–যথার্থ বিজ্ঞান, দ্বিতীয়–পদার্থ তৌল করিবার জন্য তৌলের সাধন বাট এবং তৃতীয়–দাঁড়িপাল্লা ইত্যাদি । এই শিশির ঋতুর বর্ণন পূর্ণ হইল ।
    এই অধ্যায়ে ঋতুবিদ্যার প্রতিপাদন হওয়ায় এই অধ্যায়ের অর্থের পূর্ব অধ্যায়ের অর্থ সহ সঙ্গতি জানা দরকার ॥
    ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে য়জুর্বেদভাষ্যে পঞ্চদশোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগাৎ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স॒হস্র॑স্য প্র॒মাসি॑ স॒হস্র॑স্য প্রতি॒মাসি॑ স॒হস্র॑স্যো॒ন্মাসি॑ সা॒হ॒স্রো᳖ऽসি স॒হস্রা॑য় ত্বা ॥ ৬৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সহস্রস্যেত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । বিদ্বান্ দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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