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यजुर्वेद अध्याय - 15

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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 14
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - ब्राह्मी जगती, ब्राह्मी त्रिष्टुप् स्वरः - निषादः, धैवतः
    3

    अधि॑पत्न्यसि बृह॒ती दिग्विश्वे॑ ते दे॒वाऽअधि॑पतयो॒ बृह॒स्पति॑र्हेती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता त्रि॑णवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ त्वा॒ स्तोमौ॑ पृथि॒व्या श्र॑यतां वैश्वदेवाग्निमारु॒तेऽउ॒क्थेऽअव्य॑थायै स्तभ्नीता शाक्वररैव॒ते साम॑नी॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानञ्च सादयन्तु॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑प॒त्नीत्यधि॑ऽपत्नी। अ॒सि॒। बृ॒ह॒ती। दिक्। विश्वे॑। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। बृह॒स्पतिः॑। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशौ। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाविति॑ त्रिनवऽत्रयस्त्रि॒ꣳशौ। त्वा॒। स्तोमौ॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒ता॒म्। वै॒श्व॒दे॒वा॒ग्नि॒मा॒रु॒त इति॑ वैश्वदेवाग्निमारु॒ते। उ॒क्थे इत्यु॒क्थे। अव्य॑थायै। स्त॒भ्नी॒ता॒म्। शा॒क्व॒र॒रै॒व॒त इति॑ शाक्वररैव॒ते। साम॑नी॒ इति॒ऽसाम॑नी। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रति॑स्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋष॑यः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽविदा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधिपत्न्यसि बृहती दिग्विश्वे ते देवाऽअधिपतयो बृहस्पतिर्हेतीनाम्प्रतिधर्ता त्रिणवत्रयस्त्रिँशौ त्वा स्तोमौ पृथिव्याँ श्रयताँवैश्वदेवाग्निमारुतेऽउक्थेऽअव्यथायै स्तभ्नीताँ शाक्वररैवते सामनी प्रतिष्ठित्याऽअन्तरिक्षऽऋषयस्त्वा प्रथमजा देवेषु दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथन्तु विधर्ता चायमधिपतिश्च ते त्वा सर्वे सँविदाता नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके यजमानञ्च सादयन्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अधिपत्नीत्यधिऽपत्नी। असि। बृहती। दिक्। विश्वे। ते। देवाः। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। बृहस्पतिः। हेतीनाम्। प्रतिधर्त्तेति प्रतिऽधर्त्ता। त्रिणवत्रयस्त्रिꣳशौ। त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशाविति त्रिनवऽत्रयस्त्रिꣳशौ। त्वा। स्तोमौ। पृथिव्याम्। श्रयताम्। वैश्वदेवाग्निमारुत इति वैश्वदेवाग्निमारुते। उक्थे इत्युक्थे। अव्यथायै। स्तभ्नीताम्। शाक्वररैवत इति शाक्वररैवते। सामनी इतिऽसामनी। प्रतिष्ठित्यै। प्रतिस्थित्या इति प्रतिऽस्थित्यै। अन्तरिक्षे। ऋषयः। त्वा। प्रथमजा इति प्रथमऽजाः। देवेषु। दिवः। मात्रया। वरिम्णा। प्रथन्तु। विधर्त्तेति विऽधर्त्ता। च। अयम्। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। च। ते। त्वा। सर्वे। संविदाना इति सम्ऽविदानाः। नाकस्य। पृष्ठे। स्वर्ग इति स्वःऽगे। लोके। यजमानम्। च। सादयन्तु॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रि! या त्वं बृहत्यधिपत्नी दिगिवासि, तस्यास्ते पतिर्विश्वे देवा अधिपतयः सन्ति, तद्वद्यो बृहस्पतिर्हेतीनां प्रतिधर्त्ता त्वा च त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ पृथिव्यामव्यथायै वैश्वदेवाग्निमारुते उक्थे च श्रयताम्। प्रतिष्ठित्यै शाक्वररैवते सामनी च स्तभ्नीताम्। यथा तेऽन्तरिक्षे प्रथमजा ऋषयो देवेषु दिवो मात्रया वरिम्णा त्वा प्रथन्ते तान् मनुष्याः प्रथन्तु। यथाऽयमधिपतिर्विधर्त्ता सूर्य्योऽस्ति, यथा संविदाना विद्वांसस्त्वा नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके सादयन्ति, यथा सर्वे ते यजमानं च सादयन्तु तथा त्वं पत्या सह वर्तेथाः॥१४॥

    पदार्थः

    (अधिपत्नी) सर्वासां दिशामुपरि वर्त्तमाना (असि) (बृहती) महती (दिक्) (विश्वे) अखिलाः (ते) तव (देवाः) द्योतकाः (अधिपतयः) अधिष्ठातारः (बृहस्पतिः) पालकः सूर्यः (हेतीनाम्) वृद्धानाम् (प्रतिधर्त्ता) प्रतीत्या धर्त्ता (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) (त्वा) (स्तोमौ) स्तुतिसाधकौ (पृथिव्याम्) (श्रयताम्) (वैश्वदेवाग्निमारुते) वैश्वदेवाग्निमरुद्व्याख्यायिके (उक्थे) वक्तव्ये (अव्यथायै) अविद्यमानसार्वजनिकपीडायै (स्तभ्नीताम्) (शाक्वररैवते) शक्त्यैश्वर्य्यप्रतिपादिके (सामनी) (प्रतिष्ठित्यै) (अन्तरिक्षे) (ऋषयः) धनञ्जयादयः सूक्ष्मस्थूला वायवः प्राणाः (त्वा) (प्रथमजाः) आदिजाः (देवेषु) दिव्यगुणेषु पदार्थेषु वा (दिवः) (मात्रया) (वरिम्णा) (प्रथन्तु) (विधर्त्ता) (च) (अयम्) (अधिपतिः) (च) (ते) (त्वा) (सर्वे) (संविदानाः) कृतप्रतिज्ञाः (नाकस्य) (पृष्ठे) (स्वर्गे) (लोके) (यजमानम्) (च) (सादयन्तु)॥१४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कार। यथा सर्वासां मध्यस्था दिक् सर्वाभ्योऽधिकास्ति तथा सर्वेभ्यो गुणेभ्यः शरीरात्मबलमधिकमस्तीति वेद्यम्॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रि! जो तू (बृहती) बड़ी (अधिपत्नी) सब दिशाओं के ऊपर वर्त्तमान (दिक्) दिशा के समान (असि) है, उस (ते) तेरा पति (विश्वे) सब (देवाः) प्रकाशक सूर्य्यादि पदार्थ (अधिपतयः) अधिष्ठाता हैं, वैसे जो (बृहस्पतिः) विश्व का रक्षक (हेतीनाम्) बड़े लोकों का (प्रतिधर्त्ता) प्रतीति के साथ धारण करने वाले सूर्य्य के तुल्य वह तेरा पति (त्वा) तुझ को (च) और (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) त्रिणव और तेंतीस (स्तोमौ) स्तुति के साधन (पृथिव्याम्) पृथिवी में (अव्यथायै) पीड़ा रहितता के लिये (वैश्वदेवाग्निमारुते) सब विद्वान् और अग्नि वायुओं के व्याख्यान करने वाले (उक्थे) कहने योग्य वेद के दो भागों का (श्रयताम्) आश्रय करें, (च) और जैसे (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा होने के लिये (शाक्वररैवते) शक्वरी और रेवती छन्द से कहे अर्थों से (सामनी) सामवेद के दो भागों को (स्तभ्नीताम्) संगत करो। जैसे वे (अन्तरिक्षे) अवकाश में (प्रथमजाः) आदि में हुए (ऋषयः) धनञ्जय आदि सूक्ष्म स्थूल वायुरूप प्राण (देवेषु) दिव्य गुण वाले पदार्थों में (दिवः) प्रकाश की (मात्रया) मात्रा और (वरिम्णा) अधिकता से (त्वा) तुझ को प्रसिद्ध करते हैं, उन को मनुष्य लोग (प्रथन्तु) प्रख्यात करें, जैसे (अयम्) यह (अधिपतिः) स्वामी (विधर्त्ता) विविध प्रकार से सब को धारण करने हारा सूर्य है, जैसे (संविदानाः) सम्यक् सत्यप्रतिज्ञायुक्त ज्ञानवान् विद्वान् लोग (त्वा) तुझ को (नाकस्य) (पृष्ठे) सुखदायक देश के उपरि (स्वर्गे) सुखरूप (लोके) स्थान में स्थापित करते हैं, (ते) वे (सर्वे) सब (यजमानम्) तेरे पुरुष (च) और तुझ को (सादयन्तु) स्थित करें, वैसे तुम स्त्री-पुरुष दोनों वर्त्ता करो॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सब के बीच की दिशा सब से अधिक है, वैसे सब गुणों से शरीर और आत्मा का बल अधिक है, ऐसा निश्चित जानना चाहिये॥१४॥

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    भावार्थ

    ( बृहती दिग् ) बृहती या सबसे ऊपर की दिशा जिस प्रकार सबसे ऊपर विराजमान है उसी प्रकार हे राज- शक्ते ! तू भी ( अधिपत्नी असि ) समस्त राष्ट्र में सर्वोपरि रह कर पालन करती है । ( विश्वेदेवाः ते अधिपतयः ) तेरे समस्त देव, विद्वान् गण अधिपति हैं । ( हेतीना प्रतिधर्त्ता बृहस्पतिः) शस्त्रों का धारणकर्ता 'बृहस्पति' है । ( त्रिनव-त्रय- स्त्रिशौ वा स्तौमौ त्वा पृथिव्यां श्रयताम् ) २७ या ३३ अंगों के समान २७ और ३३ विभागों के अधिकारीगण तुझे पृथ्वी पर स्थिर करें। (वैश्व-- देवाग्निमा उक्थे यथायै स्तनीताम् ) वैश्वदेव और चाग्निमारुत दोनों 'पद' राज्य कार्य में पीड़ा न पहुंचने देने के लिये स्तोम के समान सम्भालें उसकी रक्षा करें ( शाक्वररैवते सामनी प्रतिष्ठित्या) शाक्वर और रैवतः दोनों वल उसके आश्रय के लिये हो । ( अन्तरिक्षे ऋषयः त्वा० इत्यादि पूर्ववत् । शत० ८ । ६ । १ । १९ ॥ 'वैश्वदेव उक्थ' --- पांञ्चजन्यं वा एतद् उक्थं यद्वैश्वदेवम् । ऐ० ३।३२ ॥ शाक्वर मैत्रावरुणस्य । कौ० २५।११ ॥ रेवत्यः सर्वाः देवताः । ऐ० २/१/१६ वाग् वा रेवती । शत० २ ।३ ।८। १।१२॥

    टिप्पणी

    अधिपत्म्यसि ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋष्यादि पूर्ववत् । ( १ ) ब्राह्मी जगती।निषादः। ( २ ) बाह्मी त्रिष्टुप् । धैवत:॥

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    विषय

    अधिपत्नी

    पदार्थ

    १. (अधिपत्नी असि) = हे स्त्रि ! तू इस घर की आधिक्येन पालयित्री है। २. (बृहती दिक्) = यह प्रौढ़ा बृहस्पतिरूप अधिष्ठातावाली-बढ़ी हुई ऊर्ध्वा तेरी दिशा है। तेरे जीवन का लक्ष्य सर्वोच्च स्थिति में पहुँचना है, तूने ऊर्ध्वा दिशा का अधिपति बनना है । ३. (ते देवाः विश्वे) = बारह विश्वेदेव ही तेरे देव हैं। इन बारह के बारह मासों के नामों से तुझे 'इस संसार - वृक्ष की विशिष्ट शाख बनना है, ज्येष्ठ बनना है, कामादि से पराभूत नहीं होना, शुभ उपदेश का श्रवण करना है, इसे ही कल्याण का मार्ग समझना है-इसपर चलने के लिए कल का प्रोग्राम नहीं बनाना - कामादि का कृन्तन करना है - इन्हें आत्मालोचन द्वारा ढूंढ-ढूंढ कर मारना है - इस प्रकार अपना पोषण करना है- यही तेरा ऐश्वर्य है। इस एश्वर्य के सामने सांसारिक ऐश्वर्य तो नितान्त तुच्छ हैं - यही तेरे जीवन का आश्चर्य होगा। ये देव, ये मास इन बातों का बोध दे रहे हैं। यह बोध देकर ये देव ही तेरे (अधिपतयः) = अधिष्ठातृरूपेण रक्षक होंगे। ४. (बृहस्पतिः) = ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान का पति गृहपति (हेतीनाम्) = घर पर आनेवाली घातक बातों का (प्रतिधर्त्ता) = प्रतीकार करनेवाला है। ५. (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) = ['त्रिणवस्तोमं पुष्टिरित्याहु: ' - श० १०।१।१।५] पुष्टि तथा तेतीस देवों का धारण ही (स्तोमौ) = तेरा प्रभु-स्तवन हो और यह पुष्टि व तेतीस देवों का धारणरूप प्रभु-स्तवन (त्वा) = तुझे (पृथिव्याम्) = इस शरीर में (श्रयताम्) = सेवित करनेवाले हों। तेरे शरीर को ये पूर्ण स्वस्थ बनाएँ। ६. (उक्थे वैश्वदेवाग्निमारुते) = प्रशंसनीय विश्वेदेव, अग्नि तथा मरुत ये सब अव्यथायै पीड़ा के अभाव के लिए तुझे (स्तभ्नीताम्) = थामें । तेरा मन दिव्य गुणों का अधिष्ठान बने तो तेरा देह वैश्वानर अग्नि व प्राणापानरूप मरुतों का स्थान बने। दिव्य गुण मन को स्वस्थ बनाएँ और यह वैश्वानर अग्नि व प्राणापान अन्न के ठीक पाचन से शरीर को स्वस्थ करें। ७. (शाक्वररैवते) = शक्ति को प्राप्त करने की भावना तथा धन और ज्ञानधन को प्राप्त करने की भावना (सामनी) = मेरे साम व उपासन हों। ये अन्तरिक्षे हृदयान्तरिक्ष में (प्रतिष्ठित्यै) = प्रतिष्ठिति के लिए हों। मेरे जीवन में ये सिद्धान्त बन जाएँ। इन्हें मैं अपने हृदय से कभी दूर न करूँ। ८. (देवेषु) = विद्वानों में (प्रथमजाः ऋषयः) = प्रथम कोटि के तत्त्वद्रष्टा विद्वान् (त्वा) = तुझे (दिवो मात्रया) = ज्ञान के अमुक-अमुक अंश से तथा (वरिम्णा) = हृदय की विशालता से (प्रथन्तु) = विस्तृत जीवनवाला बनाएँ। ९. विधर्त्ता च घर को आपत्तियों से बचानेवाला ज्ञानी गृहपति अयं च (अधिपतिः) = और ये आधिक्येन रक्षक 'विश्वेदेव' (ते च सर्वे) = और वे सब ज्ञानी (संविदाना:) = ऐकमत्यवालें होकर (त्वा) = तुझे (यजमानं च) = और यज्ञशील गृहपति को (नाकस्य पृष्ठे) = दुःखाभाववाले लोक के ऊपर (स्वर्गे लोके) = प्रकाशमय लोक में (सादयन्तु) = स्थापित करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- पत्नी घर की अधिपत्नी हो। उसका 'शरीर, मन व बुद्धि तीनों को नवीन [त्रि+ नव] व पुष्ट बनाये रखना व मन में सब गुणों को धारण करना' ये मौलिक सिद्धान्त हो जाएँ। वह शरीर को शक्तिशाली बनाये, मस्तिष्क को ज्ञानधन सम्पन्न करे' इन्हीं को वह प्रभु-उपासन जाने । पति ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञानी बनने का प्रयत्न करे ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी मधली दिशा सर्वात मोठी (विस्तृत) असते तसे सर्व गुणांनी युक्त शरीर व आत्मा यांचे बल अधिक असते हे जाणावे.

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    विषय

    पुढक्षल मंत्रात तोच विषय आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे स्त्री (पत्नी) तू (बृहती) महान असून (अधिपत्नी) सर्व दिशापेक्षा वर असलेल्या (दिरु) ऊर्ध्वदिशेप्रमाणे (असि आहेस. (सर्वश्रेष्ठ आहेस) (ते) तुझा पती देखील (विश्वे) सर्व (देवा:) प्रकाशक सूर्य आदी पदार्थांप्रमाणे (अधिपतय:) अधिष्ठाता (वा कीर्तिमान महान पुरुष) आहे. (बृहस्पति:) जो सूर्य या विश्वाचा महान रक्षक आहे (हेतीनाम्) विशाल गृहनक्षत्रादीचा (प्रतिधर्ता धारणकर्ता आहे, त्याप्रमाणे विश्वास आणि धीर देणार्‍या तुझ्या पतीने (त्वा) तुला (च) आणि (त्रिवूत्रयत्रिंशौ) अकरा आणि तेहतीस प्रकारे (स्तोमौ) स्तुती करण्याच्या साधनांद्वारे (पृथिव्याम्) या पृथिवी (अन्यथायै) पीडारहित व सुखी करावे त्याने (वैश्वदेवाग्निमारूते) सर्व विद्वानांचा आणि अग्नी आदी वायूंविषयी ज्ञान सांगणार्‍या (उस्थे) वेदांतील भागांचा (श्रयताम्) आश्रय घ्यावा (तुझ्या पतीने सुख प्राप्त करण्यासाठी विविध प्रकारे विद्वज्जन आणि वेद यांचे अध्ययन-श्रवण करावे) तुम्ही (पती-पत्नी) दोघे (प्रतिष्ठित्यै) सम्मानित-प्रतिष्ठित होण्यासाठी (शाक्वररैवते) शक्वरी आणि रेवती छंदांतील मंत्रांत सांगितलेल्या (सामनी) सामवेदाच्या दोन भागांची (स्तभ्नीताम्) संगती करा (अभ्यास करा) (अन्तरिक्षे) अवकाशात (प्रथमजा:) आदिकाळी उत्पन्न झालेले (ऋषय:) धनंजय आदी स्थू आणि सुक्ष्म वायू आणि प्राणशक्ती आहे तसेच (देवेषु) दिव्य गुणवान पदार्थांमधे (दिव्य:) प्रकाशाची जी मात्रा आहे आणि विरिम्णा) जे अधिक्य आहे, त्याद्वारे (त्वा) ती प्राणशक्ती तुला वृद्धिंगत करतात, त्याप्रकारे (समाजातील इतर) मनुष्यांनादेखील तुला (प्रथन्तु) वाढवावे (तुझ्या प्राणशक्ती व ज्ञानामधे वृद्धी करावी) (अयम्) हा (अधिपति:) (सर्वांचा पालक, प्रेरक) स्वामी (विधर्त्ता) विविधप्रकारे सर्वांना धारण करणारा सूर्य आहे, त्याचप्रमाणे (संविदाना:) सत्य, सदाचारी, ज्ञानी विद्वज्जन (त्वा) तुला (साकस्य) (पृष्ठे) सुखकारक स्थानामधे (स्वर्गे) (लोके) आनंदमय प्रदेशामधे स्थापित करतात (तुला ज्ञान आणि उपदेश देऊन सुखप्राप्तीचा मार्ग दाखवितात) (ते) (सर्वे) त्या सर्व विद्वानांनी (आणि सूर्यादी प्राणदायक शक्तीनी) तुला आणि (यजमान) तुझ्या यजमान पतीला (सादयन्तु) स्थि करावे (सुखी होण्याचे उपाय सतत सांगावेत) तुम्ही दोघे त्या विद्वज्जनांच्या मार्गदर्शनाप्रमाणे आवरण करीत जा. ॥14॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे सर्वांच्या अंतर्गत असणारी (ऊर्ध्व) दिशा सर्व दिशांपेक्षा अधिक व श्रेष्ठ आहे, त्याप्रमाणे सर्व गुणांपेक्षा शरीराचे आणि आत्म्याची शक्ती अधिक असते, सर्वांनी हे नीट जाणून घ्यावे. ॥14॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O woman, thou art the lady paramount like the lofty region. All the shining bodies like the sun, are thy protectors. May thy husband, like the sun, the guardian of the world, and the sustainer of big planets, adore thee. For freedom from pain on this earth, through twenty-seven and thirty-three means of praise, let all the learned persons, knowing the sciences of fire and air, resort to two parts of the Veda. For progress let them have knowledge of the two parts of the Sama Veda, with verses in Shakvari and Raivati metres. Just as in the atmosphere, the first-born minute and bulky airs like Dhananjaya etc. residing in divine objects, make thee renowned, so should people make them known. This sun, the lord, and sustainer of all in diverse ways, and the learned persons with one mind establish thee and thy husband in a happy house on a comfortable part of the earth.

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    Meaning

    You are the supreme mistress of the home like great directions in the upper spaces. All the divine powers and nobilities are your protectors. Brihaspati, lord of the wide world, is your guardian against all pain and suffering. May the Trinava (twenty-seven part) and Trayastrinsha (thirty-three part) stoma hymns settle you on the earth. May the Vaishvadevagni and Maruta Uktha hymns firmly stabilize you against doubt and disturbance. May the Shakvara and Raivata Sama hymns extend your honour and fame to the skies. May the foremost Rishis, saints and sages spread your honour and reputation with the measure of your heavenly excellence among the noblest people. May this lord of yours and the Lord sustainer of the world and all those powers that know well, together in unison, establish you and the yajamana on the heights of the heavenly regions of bliss.

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    Translation

    You are adhipatni (paramount ruler); the region is upward; Visvedevas (all Nature's Bounties) are your warder off of the hostile weapons. May the trinava (of twenty-seven verses) and the trayastrimsa (of thirtythree verses) praise-song help to establish you on the earth. May the vaisvadeva and the agnimaruta (evening) litanies keep you firm against slipping. May the sakvara and raivata samans (chants) establish you securely in the mid-space. May the seers, foremost among the enlightned ones, extol you to the greatness of the heaven. May this sustainer and overlord of yours and all the others, with one mind, place you as well as the sacrificer on the top of the sorrowless abode in the world of light. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ একই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! তুমি (বৃহতী) বড় (অধিপত্নী) সকল দিকগুলি হইতে উপর বর্ত্তমান (দিক্) দিকের সমান (অসি) হও, সেই তোমার পতি (বিশ্বে) সমস্ত (দেবাঃ) প্রকাশক সূর্য্যাদি পদার্থ (অধিপতয়ঃ) অধিষ্ঠাতা । সেইরূপ যে (বৃহস্পতিঃ) বিশ্বের রক্ষক (হেতীনাম্) বড় লোকান্তরের (প্রতিধর্ত্তা) প্রতীতি সহ ধারণ কারী সূর্য্যের তুল্য সেই তোমার পতি (ত্বা) তোমাকে (চ) এবং (ত্রিণবত্রয়স্ত্রিংশৌ) ত্রিণব ও তেত্রিশ (স্তোমৌ) স্তুতির সাধন (পৃথিব্যাম্) পৃথিবীতে (অব্যথায়ৈ) পীড়া রহিততার জন্য (বৈশ্বদেবাগ্নিমারুতে) সব বিদ্বান্ এবং অগ্নি বায়ুদিগের ব্যাখ্যানকারী (উক্থে) বলিবার যোগ্য বেদের দুই অংশের (শ্রয়তাম্) আশ্রয় করুক (চ) এবং যেমন (প্রতিষ্ঠিত্যৈ) প্রতিষ্ঠা হওয়ার জন্য (শাক্বররৈবতে) শক্বরী ও রেবতী ছন্দে কথিত অর্থের দ্বারা (সামনী) সামবেদের দুই অংশকে (স্তভ্নীতাম্) সংগত কর । যেমন তাহারা (অন্তরিক্ষে) অবকাশে (প্রথমজাঃ) প্রথমে জাতঃ (ঋষয়ঃ) ধনঞ্জয়াদি সূক্ষ্ম স্থূল বায়ুরূপ প্রাণ (দেবেষু) দিব্যগুণযুক্ত পদার্থসকলের মধ্যে (দিবঃ) প্রকাশের (মাত্রয়া) মাত্রা এবং (বরিম্ণা) আধিক্যপূর্বক (ত্বা) তোমাকে প্রসিদ্ধ করে তাহাদিগকে মনুষ্যগণ (প্রথন্তু) প্রখ্যাত করুক যেমন (অয়ম্) এই (অধিপতিঃ) স্বামী (বিধর্ত্তা) বিবিধ প্রকারে সকলকে ধারণকারী সূর্য্য, যেমন (সংবিদানাঃ) সম্যক্ সত্য প্রতিজ্ঞাযুক্ত জ্ঞানবান্ বিদ্বান্গণ (ত্বা) তোমাকে (নাকস্য) (পৃষ্ঠে) সুখদায়ক দেশোপরি (স্বর্গে) সুখরূপ (লোকে) স্থানে স্থাপিত করে (তে) তাহারা (সর্বে) সকল (য়জমানম্) তোমার পুরুষ (চ) এবং তোমাকে (সাদয়ন্তু) স্থিত করুক সেইরূপ তোমরা স্ত্রীপুরুষ উভয়ে ব্যবহার কর ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন সকলের মধ্য দিক্ সর্বাপেক্ষা বৃহৎ সেইরূপ সকল গুণগুলির অপেক্ষা শরীর আত্মার বল সর্বাধিক এমন নিশ্চিত জানা দরকার ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অধি॑পত্ন্যসি বৃহ॒তী দিগ্বিশ্বে॑ তে দে॒বাऽঅধি॑পতয়ো॒ বৃহ॒স্পতি॑র্হেতী॒নাং প্র॑তিধ॒র্ত্তা ত্রি॑ণবত্রয়স্ত্রি॒ꣳশৌ ত্বা॒ স্তোমৌ॑ পৃথি॒ব্যাᳬं শ্র॑য়তাং বৈশ্বদেবাগ্নিমারু॒তেऽউ॒ক্থেऽঅব্য॑থায়ৈ স্তভ্নীতাᳬं শাক্বররৈব॒তে সাম॑নী॒ প্রতি॑ষ্ঠিত্যাऽঅ॒ন্তরি॑ক্ষ॒ऽঋষ॑য়স্ত্বা প্রথম॒জা দে॒বেষু॑ দি॒বো মাত্র॑য়া বরি॒ম্ণা প্র॑থন্তু বিধ॒র্ত্তা চা॒য়মধি॑পতিশ্চ॒ তে ত্বা॒ সর্বে॑ সংবিদা॒না নাক॑স্য পৃ॒ষ্ঠে স্ব॒র্গে লো॒কে য়জ॑মানঞ্চ সাদয়ন্তু ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অধিপত্ন্যসীত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । পূর্বস্য ব্রাহ্মী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ । প্রতিষ্ঠিত্যা ইত্যুত্তরস্য ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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