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यजुर्वेद अध्याय - 15

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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 43
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    3

    उ॒भे सु॑श्चन्द्र स॒र्पिषो॒ दर्वी॑ श्रीणीषऽआ॒सनि॑। उ॒तो न॒ऽउत्पु॑पूर्या उ॒क्थेषु॑ शवसस्पत॒ऽइष॑ स्तो॒तृभ्य॒ऽआ भ॑र॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भे इत्यु॒भे। सु॒श्च॒न्द्र॒। सु॒च॒न्द्रेति॑ सुऽचन्द्र। स॒र्पिषः॑। दर्वी॒ इति॒ दर्वी॑। श्री॒णी॒षे॒। आ॒सनि॑। उ॒तो इत्यु॒तो। नः॒। उत्। पु॒पू॒र्याः॒। उ॒क्थेषु॑। श॒व॒सः॒। प॒ते॒। इष॑म्। स्तो॒तृभ्य॒ इति॑ स्तो॒तृऽभ्यः॑। आ। भ॒र॒ ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभे सुश्चन्द्र सर्पिषो दर्वी श्रीणीषऽआसनि । उतो नऽउत्पुपूर्याऽउक्थेषु शवसस्पत इषँ स्तोतृभ्यऽआ भर ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उभे इत्युभे। सुश्चन्द्र। सुचन्द्रेति सुऽचन्द्र। सर्पिषः। दर्वी इति दर्वी। श्रीणीषे। आसनि। उतो इत्युतो। नः। उत्। पुपूर्याः। उक्थेषु। शवसः। पते। इषम्। स्तोतृभ्य इति स्तोतृऽभ्यः। आ। भर॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 43
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सः किं कुर्यादित्याह॥

    अन्वयः

    हे सुश्चन्द्र! त्वं सर्पिषो दर्वी श्रीणीष इवासन्युभे आ भर। हे शवसस्पते! त्वमुक्थेषु नोऽस्मभ्यमुतो अपि स्तोतृभ्य इषं चोत्पुपूर्याः॥४३॥

    पदार्थः

    (उभे) द्वे अध्ययनाध्यापनक्रिये (सुश्चन्द्र) शोभनश्चासौ चन्द्र आह्लादकारकश्च तत्सम्बुद्धौ (सर्पिषः) घृतस्य (दर्वी) ग्रहणाग्रहणसाधने (श्रीणीषे) पचसि (आसनि) आस्ये (उतो) अपि (नः) अस्मभ्यम् (उत्) (पुपूर्याः) पूर्णं कुर्य्याः (उक्थेषु) वक्तुं श्रोतुमर्हेषु वेदविभागेषु (शवसः) बलस्य (पते) पालक (इषम्) अन्नम् (स्तोतृभ्यः) विद्वद्भ्यः (आ) (भर)॥४३॥

    भावार्थः

    यथत्वर््िाजो घृतं संशोध्य दर्व्याऽग्नौ हुत्वा वायुवृष्टिजले रोगनाशके कृत्वा सर्वान् सुखयन्ति। तथैवाध्यापका विद्यार्थिमनांसि सुशिक्षा संशोध्य तत्र विद्या हुत्वाऽऽत्मनः पवित्रीकृत्य सर्वान् प्राणिनः सुखयेयुः॥४३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (सुश्चन्द) सुन्दर आनन्ददाता अध्यापक पुरुष! आप (सर्पिषः) घी के (दर्वी) चलाने पकड़ने की दो कर्छी से (श्रीणीषे) पकाने के समान (आसनि) मुख में (उभे) पढ़ने पढ़ाने की दो क्रियाओं को (आभर) धारण कीजिये। हे (शवसः) बल के (पते) रक्षकजन! तू (उक्थेषु) कहने-सुनने योग्य वेदविभागों में (नः) हमारे (उतो) और (स्तोतृभ्यः) विद्वानों के लिये (इषम्) अन्नादि पदार्थों को (उत्पुपूर्याः) उत्कृष्टता से पूरण कर॥४३॥

    भावार्थ

    जैसे ऋत्विज् लोग घृत को शोध कर्छी से अग्नि में होम कर और वायु तथा वर्षाजल को रोगनाशक करके सब को सुखी करते हैं, वैसे ही अध्यापक लोगों को चाहिये कि विद्यार्थियों के मन अच्छी शिक्षा से शोध कर उन को विद्यादान दे के आत्माओं को पवित्र कर सब को सुखी करें॥४३॥

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    विषय

    शक्तिमान् सर्वाल्हादक राजा ।

    भावार्थ

    हे ( सुश्चन्द्र ) शोभन आचारवान् और प्रजा के आह्लादक ! अथवा प्रजा को उत्तम गुणों से रंजन करने हारे ! अथवा उत्तम ऐश्वर्यवान् ! तू ( उभे दर्वी ) चमसों के समान फैलने वाले दोनों हाथों को जिस प्रकार पान करने वाला पुरुष अपने ( आसनि ) मुख पर घर लेता है उसी प्रकार तू भी ( उभे दर्बी ) शत्रु सेनाओं को विदारण करने में समर्थ दोनों तरफ विस्तृत दोनों पक्षों या बाहुओं ( Wings ) को अपने ( आसनि) मुख्य भाग पर ( श्रीणीषे ) आश्रित रखता, उनको नियुक्त करता है, उनको अपनी सेवा में लगाता है । हे ( शवसः पते ) बल के स्वामिन् ! तू (नः) हमें ( उवथेषु ) ज्ञानों और उत्तम स्तुति योग्य व्यवहारों में ( उत्पुपूर्याः ) ऊपर तक भर दे, या उत्तम पद तक पालन पोषण कर (इषं स्तोतृभ्यः आ भर) विद्वानों को अन्नादि भोग्य पदार्थ प्राप्त करा । गुरु के पक्ष में- हे गुरो ! आल्हादक ( उभे दर्वी) अज्ञान के नाशक दोनों ज्ञान और क्रिया योग दोनों को ( आसनि श्रेणीषे ) मुखाम, परिपक्व करा ( उक्थेषु ) विद्याओं में हमें पूर्ण कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । निचृत पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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    विषय

    अग्निहोत्र

    पदार्थ

    १. हे (सुश्चन्द्र) = [शोभनं चन्दति आह्लादते आह्लादयति वा] उत्तम आनन्द को प्राप्त करने व करानेवाले स्तोतः ! तू (उभे) = दोनों सन्ध्याकालों में सर्पिषः दर्वी घृत की भरी कछियों को (आसनि) = अग्निकुण्ड में प्रज्वलित अग्नि के मुख में (श्रीणीषे) = [श्रयसि आश्लेषसि - उ०] आश्रित करता है, अर्थात् घृत से अग्निहोत्र करता है। २. इस प्रकार प्रात: सायं अग्निहोत्र करते हुए तू यही प्रार्थना करता है कि हे अग्ने ! (उत उ) = और अब तू भी (नः) = हमें (उत्पुपूर्या:) = [उत्कर्षेण अन्नादिभिः पूरय-म०] उत्कृष्ट अन्नादि से पूर्ण करनेवाला हो। 'देहि मे ददामि ते' - 'तू मुझे दे तो मैं भी तुझे देता हूँ,' इस अपनी प्रतिज्ञा को तू अब पूरा कर । वस्तुतः अग्निहोत्र में डाला हुआ घृतादि पदार्थ नष्ट न होकर सूक्ष्म कणों में विभक्त होकर सारे वायुमण्डल में व्याप्त हो जाता है। वह वृष्टि - बिन्दुओं का केन्द्र बनकर इस पृथिवी पर आता है और अन्न के एक-एक कण को पौष्टिक बना देता है । ३. (उक्थेषु) = स्तुतियों के होने पर स्तोताओं में (शवसस्पते) = बल की रक्षा करनेवाले प्रभो! आप (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिए (इषम्) = प्रेरणा को (आभर) = प्राप्त कराइए।

    भावार्थ

    भावार्थ - नियम से अग्निहोत्र करनेवाला व्यक्ति सदा आनन्दमय जीवनवाला व सौमनस्यवाला होता है। वह अग्निहोत्र से अपने अन्न भण्डारों को पूर्ण करता है और प्रभु-स्तवन से सशक्त बनता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे ऋत्विज लोक घृत गाळून चिमट्याने तुपाचे भांडे धरून अग्नीत तूप घालून होम करतात व वायू आणि वृष्टी यांना रोगनाशक बनवितात आणि सर्वांना सुखी करतात तसे अध्यापकांनी विद्यार्थ्यांची मने चांगल्या शिक्षणाने संस्कारित करून विद्यादानाने त्यांच्या आत्म्यांना पवित्र करावे व सर्वांना सुखी करावे.

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    विषय

    पुनश्च, त्या अध्यापकाने काय करावे (त्याचे कर्तव्य काय आहे?) याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (सुश्चन्द्र) शुभ आनन्दादायक अध्यापक महोदय, ज्याप्रमाणे लोक (सर्पिष:) तुपाला (दर्वी) (लोणी शिजवून तूप करताना किंवा तूप गरम करताना) उलथणें किंवा मोठ्या चमच्याने हालवतात आणि (श्रीणिषे) शिजविण्यासाठी दोन टोक असलेल्या (षक्कड किंवा चिमट्याने धरतात,) त्याप्रमाणे (आसनि) आपण आपल्या मुखात (बुद्धीत) उभे) अध्ययन आणि अध्यापन या दोन्ही क्रिया (आभर) धारण करा (आणि आपल्या शिष्याला द्या) तसेच हे (शवस:) शक्तीचे (पते) रक्षण करणारे आपण (उक्थेषु) सांगणे आणि ऐकणे या दोन्ही कार्यासाठी योग्य जी वेदविद्या, त्या विद्येने (न:) आम्हाला (उतो) आणि (स्तोतृभ्य:) विद्वज्जनांला (इषम्) अन्न आदी पदार्थांनी (उत्पुपूर्वा:) उत्कृष्टपणे पूर्ण करा. (विद्या दान तसेच आवश्यक अन्न-जलादी पदार्थांची व्यवस्था करा) ॥43॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्याप्रमाणे ऋत्विज्जन कडछी, चिमय चमचा आदी) साधनांनी तूप शुद्ध करतात, चमचा व द्वारे अग्नीमधे तुपाची आहुती देतात आणि त्याद्वारे वायू तसेच वर्षाजलामधे रोगनाशकशक्ती उत्पन्न करतात व सर्वांना सुखी करतात, त्याप्रमाणे अध्यापकांनी देखील विद्यार्थ्यांची मनें उत्तम विद्या देऊन शुद्ध करावीत आणि त्यांना विद्यादान करून त्यांचा आत्मा पवित्र करावा व सर्वांना आनंदित करावे ॥43॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O beautiful, pleasurable teacher, just as two ladels of ghee cook food, so fill in thy mouth both the practices of reading and teaching. O lord of strength, teach us the vedic lore, and give food to us and the learned.

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    Meaning

    Graceful power of heat, light and knowledge, you bum two ladles of ghee in the mouth (vedi of yajna) and diffuse the light and fragrance in the air through the cross currents of the wind. Lord of strength and power of creation, fill the stores of food with grain for us and the minds with knowledge for those who offer oblations and chant the hymns of praise in yajna. Brilliant holy Sire of knowledge and power, just as the holy fire burns two ladlefuls of ghee in the vedi to diffuse the light and fragrance in the air, similarly you hold for us the two-fold knowledge of nature and spirit to disseminate it among the disciples who come to the school of yajna for education and sing the songs of the Vedas in praise of Agni, omniscient Lord of light and knowledge. Fill our minds with knowledge and the power of knowledge.

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    Translation

    O adorable, Lord of strength, and bestower of bliss, in order that you fulfil our aspirations, may you accept our devotion as the fire receiving in its mouth the oblations of butter, two ladlefuls at our solemn rites. May you, О Lord, grant nourishment to those, who adore you. (1)

    Notes

    Suscandra, सुचन्द्र, शोभनं चन्द्रं धनं आह्लादो वा यस्य, one that has got plenty of wealth, gold or happiness. Also bestower of bliss. Ubhe darvi, two ladle-fuls (of ghee). āsani, आस्ये मुखे, in the mouth. Śavasaspate, बलस्य पते स्वामिन्, O Lord of strength. Uktheṣu, यज्ञेषु, at the sacrifices. Işam, food, nourishment.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ সঃ কিং কুর্য়াদিত্যাহ ॥
    পুনঃ সে কী করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (সুশ্চন্দ) সুন্দর আনন্দদাতা অধ্যাপক পুরুষ! আপনি (সর্পিষঃ) ঘৃতের (দর্বী) গ্রহণাগ্রহণ সাধন দ্বারা (শ্রীণীষে) রন্ধন করিবার সমান (আসনি) মুখে (উভে) পঠন-পাঠনের দুটি ক্রিয়াকে (আভর) ধারণ করুন । হে (শবসঃ) বলের (পতে) রক্ষকগণ! তোমরা (উক্থেষু) বলিবার শুনিবার যোগ্য বেদবিভাগে (নঃ) আমাদের (উতো) এবং (স্তোতৃভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের জন্য (ইষম্) অন্নাদি পদার্থসকলকে (উৎপুপূর্য়াঃ) উৎকৃষ্টতা পূর্বক পূরণ কর ॥ ৪৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যেমন ঋত্বিক্ লোক ঘৃতকে সংশোধন করিয়া অগ্নিতে আহুতি দিয়া এবং বায়ু তথা বর্ষা জলকে রোগনাশক করিয়া সকলকে সুখী করে সেইরূপ অধ্যাপকগণের উচিত যে, বিদ্যার্থীদিগের মন উত্তম শিক্ষা দ্বারা সংশোধন করিয়া তাহাদিগকে বিদ্যা দান দিয়া আত্মাগুলিকে পবিত্র করিয়া সুখী করিবে ॥ ৪৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒ভে সু॑শ্চন্দ্র স॒র্পিষো॒ দর্বী॑ শ্রীণীষऽআ॒সনি॑ । উ॒তো ন॒ऽউৎপু॑পূর্য়া উ॒ক্থেষু॑ শবসস্পত॒ऽইষ॑ᳬं স্তো॒তৃভ্য॒ऽআ ভ॑র ॥ ৪৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উভে ইত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃৎপংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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