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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - जगती सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    स॒हस्र॑शृङ्गो वृष॒भो जा॒तवे॑दा घृ॒ताहु॑तः॒ सोम॑पृष्ठः सु॒वीरः॑। मा मा॑ हासीन्नाथि॒तो नेत्त्वा॒ जहा॑नि गोपो॒षं च॑ मे वीरपो॒षं च॑ धेहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑ऽशृङ्ग: । वृ॒ष॒भ: । जा॒तऽवे॑दा: । घृ॒तऽआ॑हुत: । सोम॑ऽपृष्ठ: । सु॒ऽवीर॑: । मा । मा॒ । हा॒सी॒त् । ना॒थि॒त: । न । इत् । त्वा॒ । जहा॑नि । गो॒ऽपो॒षम् । च॒ । मे॒ । वी॒र॒ऽपो॒षम् । च॒ । धे॒हि॒ ॥१.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रशृङ्गो वृषभो जातवेदा घृताहुतः सोमपृष्ठः सुवीरः। मा मा हासीन्नाथितो नेत्त्वा जहानि गोपोषं च मे वीरपोषं च धेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽशृङ्ग: । वृषभ: । जातऽवेदा: । घृतऽआहुत: । सोमऽपृष्ठ: । सुऽवीर: । मा । मा । हासीत् । नाथित: । न । इत् । त्वा । जहानि । गोऽपोषम् । च । मे । वीरऽपोषम् । च । धेहि ॥१.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (सहस्रशृङ्गः) बड़े तेजवाला, (वृषभः) महाशक्तिमान्, (जातवेदाः) वेदों का उत्पन्न करनेवाला, (घृताहुतः) प्रकाश का देनेवाला, (सोमपृष्ठः) ऐश्वर्य का सींचनेवाला, (सुवीरः) बड़ा वीर (नाथितः) प्रार्थना किया गया [परमेश्वर] (मा) मुझको (मा हासीत्) न छोड़े। (त्वा) तुझको (न इत्) कभी नहीं (जहानि) मैं छोड़ूँ, (मे) मुझको (गोपोषम्) विद्याओं की वृद्धि (च च) और (वीरपोषम्) वीरों की पुष्टि (धेहि) दान कर ॥१२॥

    भावार्थ

    मनुष्य उस महातेजस्वी, सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर की उपासना से अपने ज्ञानों और वीरों की वृद्धि करें ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(सहस्रशृङ्गः) अ० ४।५।१। बहुतेजाः (वृषभः) महाशक्तिमान् (जातवेदाः) जातानि उत्पन्नानि वेदांसि वेदा यस्मात् सः (घृताहुतः) प्रकाशप्रदः (सोमपृष्ठः) ऐश्वर्यसेचकः (सुवीरः) महाशूरः (मा) माम् (मा हासीत्) न त्यजतु (नाथितः) प्रार्थितः (नेत्) नैव (त्वा) (जहानि) त्यजानि (गोपोषम्) गवानां विद्यानां वृद्धिम् (च) (मे) मह्यम् (वीरपोषम्) शूराणां पोषणम् (च) (धेहि) देहि ॥

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    विषय

    सोमपृष्ठः सुवीरः

    पदार्थ

    १. (सहस्त्रशृङ्गः) = सूर्य के समान सहस्रों शृङ्गरूप किरणों से युक्त (वृषभ:) = सब सुखों का वर्षण करनेवाला (जातवेदा:) = सर्वज्ञ (घृताहुत:) = [घृतं आहुतं येन] सर्वत्र ज्ञानदीसि देनेवाला हृदयस्थरूपेण ज्ञान का प्रकाश देनेवाला (सोमपृष्ठः) [पृष सेचने] = शक्ति को उपासकों में सिक्त करनेवाला (सवीरः) = उत्तम वीर-शत्रुओं को सम्यक् कम्पित करनेवाला (नाथितः) = प्रार्थना किया हुआ वह प्रभु (मा) = मुझे (मा हासीत्) = न छोड़े जाए । २. हे प्रभो। (न इत् त्वा जहानि) = न ही मैं आपको छोड़ जाऊँ-मैं आपसे दूर न हो जाऊँ। आप मेरे लिए (गोपोषं च धेहि) = ज्ञान की वाणियाँ का पोषण धारण कीजिए (च) = तथा (वीरपोषम्) = वीरता का पोषण धारण कीजिए। आपकी कृपा से मैं वीर और विज्ञानी बनें। उत्तम गौ और वीर सन्तानोंवाला बनूं।

    भावार्थ

    हे प्रभो! आप प्रकाशमय व शक्तिसम्पन्न हैं। मैं आपकी आराधना करता हुआ आपसे दूर न होऊँ। आप मुझे ज्ञानी व वीर बनाएँ। मुझे गौओं व वीर सन्तानों से युक्त करें।

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    भाषार्थ

    (सहस्रशृङ्गः) हजारों जाज्वल्यमान किरणों वाले सूर्य के सदृश (वृषभः) सुखों की वर्षा करने वाला, (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों का ज्ञाता तथा उन में विद्यमान, (घृताहुतः) घृत की आहुतियों द्वारा सत्कृत, (सोमपृष्ठः) चन्द्रमा आदि का पृष्ठवत् आश्रय, (सुवीरः) उत्तम प्रेरणाओं का प्रदाता परमेश्वर है। (नाथितः) प्रार्थित हुआ परमेश्वर (मा मा) मुझे न (हासीत्) त्यागे, (नेत्) न ही (त्वा) तुझे (जहानि) मैं त्यागूं। (गोपोषम्) गौओं, राष्ट्रभूमि, तथा इन्द्रियों की पुष्टि (च) और (वीरपोषम्) वीर पुरुषों की पुष्टि (मे) मुझे (धेहि) दे।

    टिप्पणी

    [शृङ्गः, शृङ्गाणि ज्वलतो नाम (निघं० १।१७)। सुवीरः= सु+वि+ईर (गतौ)। मन्त्र में अभिषिक्त राजा द्वारा कथन प्रतीत होता है (मन्त्र- १,२)]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (जातवेदाः) समस्त पदार्थों को जानने हारा, वेदों का उत्पादक, वह परमेश्वर अग्नि के समान प्रकाशमान, (वृषभः) मेघ के समान समस्त काम्य सुखों का वर्षण करने वाला, (सहस्रशृङ्गः) सूर्य के समान सहस्रों शृङ्गरूप किरणों से युक्त, (घृताहुतः) घृत की आहुति से प्रदीप्त अग्नि के समान प्रकाशमान, तेजों को अपने भीतर धारण करने-हारा, (सोमपृष्ठः) जल को जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से खैंचता है उसी प्रकार आनन्द को अपने भीतर धारण करने वाला, (सुवीरः) उत्तम वीर्यवान् (नाथितः) सर्वैश्वर्यवान् परमेश्वर (मा) मुझको (मा हासीत्) परित्याग न करे। और हे परमात्मन् ! (त्वा) तुझको (इत्) भी (न जहानि) मैं कभी न छोडूं। और तू (मे) मुझे (गोपोषं) गौ आदि पशुओं की सम्पत्ति और (वीरपोषं च) वीर पुत्रों और वीर पुरुषों की बल सम्पत्ति (धेहि) प्रदान कर। इसी प्रकार राजा सहस्रों शक्तियों से युक्त विद्वान् तेजस्वी, वीर, राजपदारूढ मुझ प्रजाजन को नाश न करे मैं उसका त्याग करके अराजक न होऊं, और वह हमें समृद्ध करें।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘स्तोमपृष्ठो धृतवान्त्सु प्रतीकः’, (तृ० च०) मानो हासीन्मेनेत् त्वा जहाम गोपोषं नो वीरपोषं च यच्छ। इति तै० ब्रा०। (द्वि०) ‘घृताहुतिः सोमः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Lord of infinite rays of radiant light, giver of abundant showers of vitality and divine bliss, pervading, knowing and watching every thing in existence, served and worshipped with oblations of ghrta, seat as well as sustainer of peace and divine joy, holily most potent, may, I pray, never forsake me, nor must I, O Lord, ever turn off from you. Give me wealth of lands, cows and culture, bless me with strength and sensitivity of mind and senses, a strong community of the brave all round, and a long line of progeny worthy of the brave.

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    Translation

    May the thousand-homed showerer, cognizant of all the creatures, worshipped with oblations of purified butter, balmed with medicinal cure-juice, the great hero, not abandon me when prayed to; may not forsake you; may you grant me-plenty of cows and plenty of brave sons.

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    Translation

    This fire pervading all the produced and created objects, having thousands of flames, giving rains, accepting the oblations of molten ghee, served with oblation of Soma is very powerful. This controlled and harnessed in device etc never leave me. Let me not leave this fire. Let it be source of giving me abundant of men and herd of cattle.

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    Translation

    May the Refulgent, Mighty God, the Creator of the Vedas, the Giver of light, the Repository ofjoy, highly valiant, and supreme, ne’er quit me ; may I never forsake Thee. O God, give abundant knowledge and progeny

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(सहस्रशृङ्गः) अ० ४।५।१। बहुतेजाः (वृषभः) महाशक्तिमान् (जातवेदाः) जातानि उत्पन्नानि वेदांसि वेदा यस्मात् सः (घृताहुतः) प्रकाशप्रदः (सोमपृष्ठः) ऐश्वर्यसेचकः (सुवीरः) महाशूरः (मा) माम् (मा हासीत्) न त्यजतु (नाथितः) प्रार्थितः (नेत्) नैव (त्वा) (जहानि) त्यजानि (गोपोषम्) गवानां विद्यानां वृद्धिम् (च) (मे) मह्यम् (वीरपोषम्) शूराणां पोषणम् (च) (धेहि) देहि ॥

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