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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 56
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    यश्च॒ गां प॒दा स्फु॒रति॑ प्र॒त्यङ्सूर्यं॑ च॒ मेह॑ति। तस्य॑ वृश्चामि ते॒ मूलं॒ न च्छा॒यां क॑र॒वोऽप॑रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । च॒ । गाम् । प॒दा । स्फु॒रति॑ । प्र॒त्यङ् । सूर्य॑म् । च॒ । मेह॑ति। तस्य॑ । वृ॒श्चा॒मि॒ । ते॒ । मूल॑म् । न । छा॒याम् । क॒र॒व॒: । अप॑रम् ॥१.५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यश्च गां पदा स्फुरति प्रत्यङ्सूर्यं च मेहति। तस्य वृश्चामि ते मूलं न च्छायां करवोऽपरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । च । गाम् । पदा । स्फुरति । प्रत्यङ् । सूर्यम् । च । मेहति। तस्य । वृश्चामि । ते । मूलम् । न । छायाम् । करव: । अपरम् ॥१.५६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 56
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो कोई (प्रत्यङ्) प्रतिकूलगामी पुरुष (गाम्) वेदवाणी को (पदा) पग से [तिरस्कार के साथ] (स्फुरति) ठोकर मारता है, (च च) और (सूर्यम्) सूर्य [समान प्रतापी विद्वान् मनुष्य] को (मेहति=मेधति) सताता है। (तस्य ते) उस तेरी (मूलम्) जड़ को (वृश्चामि) मैं काटता हूँ, तू (छायाम्) छाया [अन्धकार वा अविद्या] को (अपरम्) फिर (न)(करवः) फैलावे ॥५६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सत्य वेदवाणी का तिरस्कार करके विद्वानों को कष्ट देवे, उस को लोग दण्ड देकर नाश करें ॥५६॥

    टिप्पणी

    ५६−(यः) दुराचारी (च) (गाम्) वेदवाचम् (पदा) पादेन। तिरस्कारेण (स्फुरति) संचालयति (प्रत्यङ्) प्रतिकूलगामी (सूर्यम्) सूर्यवत्तेजस्विनं विद्वांसम् (च) (मेहति) मिधृ मेधृ मेधाहिंसनयोः, धस्य हः। मेधति हिनस्ति (तस्य) दुष्टस्य (वृश्चामि) छिनद्मि (ते) तव (मूलम्) (न) निषेधे (छायाम्) माछाससिभ्यो यः। उ० ४।१०९। छो छेदने-य, टाप्। छ्यति प्रकाशमप्रकाशं वा। छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनातपः-अमर० २३।२५७। अनातपम्। अन्धकारम्। अज्ञानम् (करवः) कॄ विक्षेपे लेट्, छन्दसि तनादित्वादु प्रत्ययः, गुणे च कृते, करु सिप्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इत्यटि गुणे च कृते सकारस्य विसर्गे च जाते रूपसिद्धिः। विक्षिप। विस्तारय (अपरम्) पुनः ॥

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    विषय

    गौ व सूर्य का आदर

    पदार्थ

    १. इस सृष्टि में मनुष्य को 'गौ व सूर्य' का आदर करना है। 'गौ' मनुष्य को सात्विक दूध प्राप्त कराके 'स्वस्थ शरीर, पवित्र मन व दीस मस्तिष्क' प्राप्त कराती है। इसीप्रकार सूर्य की किरणें सब रोगकृमियों का नाश करती हुई उसे स्वास्थ्य प्रदान करती हैं। आयुर्वेद में सूर्याभिमुख होकर मेहन से मूत्रकृच्छ' आदि रोग हो जाने का उल्लेख है। २. मन्त्र में कहते हैं कि (यः च गां पदा स्फुरति) = जो निश्चय से गौ को पाँव से कुचलने की करता है [to braise, destroy],(च) = और (सूर्य प्रत्यङ्) = सूर्याभिमुख होकर (मेहति) = मूत्र करता है, (तस्य ते) = उस तेरे (मूलं वृश्चामि) = मूल को काट डालता हूँ। तू (अपरम्) = इसके बाद (छायां न करव:) = [छाया beauty] जीवन के सौन्दर्य को करनेवाला न हो, तेरे जीवन का सौन्दर्य समाप्त हो जाए।

    भावार्थ

    हम जीवन में गौ का समुचित आदर करें, घर में गौ का प्रथम स्थान हो। गौ को घर का मूल समझें। हम सूर्य की किरणों को सदा शरीर पर लेनेवाले बनें। 'सूर्याभिमुख होकर मूत्र करने से रोग हो जाते हैं, इसे कभी न भूलें। 'सूर्याभिमुख मेहन' जीवन के सौन्दर्य को समाप्त करनेवाला है।

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    भाषार्थ

    प्रसिद्धार्थ:- “जो गौ को पैर से ठुकराता है और सूर्य के सम्मुख मूत्र करता है, उस तेरी जड़ को मैं काट देता हूं, 'ताकि अपर जगत् को आश्रय तू न कर सके, अर्थात् तू जीवित न रह सके। विशेषार्थ: – "जो (पदा) निज ज्ञान द्वारा (गाम्) वेदवाणी को (स्फुरति) स्फूर्ति देता है, उसे प्रसिद्ध करता है; और जो (सूर्यम्) सूर्यसम प्रकाशमान परमेश्वर के (प्रत्यङ्) सम्मुख भक्ति जल की (मेहति१) वर्षा करता है, (तस्य ते) उस तेरी अविद्यारूपी (मूलम्) जड़ को मैं (वृश्चामि) काट देता हूं, ताकि (अपरम्) अपर जगत् को अपना (छायाम्) आश्रय तू (न करवः) न करे [अपितु परब्रह्म को अपना आश्रय करे]।

    टिप्पणी

    [पदा = पद् (गतौ) + क्विप् + तृतीयैकवचन। गतेस्त्रयोऽर्थाः, 'ज्ञानं, गतिः प्रातिश्च। मन्त्र में ज्ञानार्थक "पदा" शब्द है। गाम्; गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। प्रत्यङ्= परमेश्वरं प्रति अञ्चति, गच्छति, प्राप्नोति। सूर्यम् = "सो अग्निः स उ सूर्यः स उ एव महायमः " (अथर्व० १३।४।५) में परमेश्वर को सूर्य कहा है। मेहति = मिह सेचने। हिन्दी में "मेह" शब्द है जो कि "मिह" धातु से व्युत्पन्न है, जिस का अर्थ है वर्षा करना, या मेह बरसना। मेघ शब्द भी "मिह" धातु का रूप है जिस का अर्थ है "बादल"। मेघ जल की वर्षा करता है। इस प्रकार "मेहति" का अर्थ "मूत्र करना" ही है, इस में कोई प्रमाण नहीं। “छाया" का अर्थ आश्रय भी है यथा "यस्य छायामृतम्" (यजु० २५।१३)। अपरम्= यथा पराविद्या तथा अपराविद्या, अर्थात् ब्रह्मविद्या तथा सांसारिक विद्या। इसी प्रकार परब्रह्म = परमेश्वर तथा अपरब्रह्म = जगत्, मूर्त तथा अमूर्त मन्त्र ४१)] [१. "तँयज्ञम्बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषञ्जातमग्रतः" (यजु० ३१।९) में हृदयान्तरिक्ष में यज्ञनामक परमेश्वर के प्रति भक्तिरसरूपी जल की वर्षा का वर्णन "प्रौक्षन्" शब्द द्वारा किया है।]

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो पुरुष (गां च) गौ को वाणी को, या पृथ्वी को (पदा) चरण से (स्फुरति) ठुकराता, उसका अपमान करता है और (सूर्यम् च) सूर्य के (प्रत्यङ्) सामने (मेहति) मूत्र करता है ऐसे (ते तस्य) तुझ पुरुष के (मूलं) मूल को मैं (वृश्चामि) विनाश करता हूं जिससे (परम्) उसके बाद (छायाम्) इस प्रकार की अपमानजनक क्रिया (न करवः) तू न कर पाये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Whoever desecrates the Gau, the cow, the earth, the environment, Nature, the Vedic Voice, and hurts it with the foot, whoever reviles the sun in front, I dissever him, O man, from the root of life, there shall be no growth, no branch, no leaf, no shade, nothing around.

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    Translation

    Whoso kicks a cow With the foot, and urinates facing the sun, as such of yours, I hack off the root, so that you may not cast shadow any more.

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    Translation

    I sever the root of that who kicks the cow with foot and who releases urine taking sun in his front- There-after you would not find even your shadow, O Man.

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    Translation

    O disagreeable sinner, if thou showest disrespect to Vedic knowledge, or tormentest a learned person glittering like the Sun, thy root I sever : so that nevermore mayst thou perform such a disgraceful act!

    Footnote

    To pass between the teacher and the pupil is a sign of disrespect. It is a mark of discourtesy to cast one’s shadow on the.Guru and go beyond him.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५६−(यः) दुराचारी (च) (गाम्) वेदवाचम् (पदा) पादेन। तिरस्कारेण (स्फुरति) संचालयति (प्रत्यङ्) प्रतिकूलगामी (सूर्यम्) सूर्यवत्तेजस्विनं विद्वांसम् (च) (मेहति) मिधृ मेधृ मेधाहिंसनयोः, धस्य हः। मेधति हिनस्ति (तस्य) दुष्टस्य (वृश्चामि) छिनद्मि (ते) तव (मूलम्) (न) निषेधे (छायाम्) माछाससिभ्यो यः। उ० ४।१०९। छो छेदने-य, टाप्। छ्यति प्रकाशमप्रकाशं वा। छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनातपः-अमर० २३।२५७। अनातपम्। अन्धकारम्। अज्ञानम् (करवः) कॄ विक्षेपे लेट्, छन्दसि तनादित्वादु प्रत्ययः, गुणे च कृते, करु सिप्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इत्यटि गुणे च कृते सकारस्य विसर्गे च जाते रूपसिद्धिः। विक्षिप। विस्तारय (अपरम्) पुनः ॥

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