अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 42
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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एक॑पदी द्वि॒पदी॒ सा चतु॑ष्पद्य॒ष्टाप॑दी॒ नव॑पदी बभू॒वुषी॑। स॒हस्रा॑क्षरा॒ भुव॑नस्य प॒ङ्क्तिस्तस्याः॑ समु॒द्रा अधि॒ वि क्ष॑रन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठएक॑ऽपदी । द्वि॒ऽपदी॑ । सा । चतु॑:ऽपदी । अ॒ष्टाऽप॑दी । नव॑ऽपदी । ब॒भू॒वुषी॑ । स॒हस्र॑ऽअक्षरा । भुव॑नस्य । प॒ङ्क्ति । तस्या॑: । स॒मु॒द्रा: । अधि॑ । वि । क्ष॒र॒न्ति॒ ॥१.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
एकपदी द्विपदी सा चतुष्पद्यष्टापदी नवपदी बभूवुषी। सहस्राक्षरा भुवनस्य पङ्क्तिस्तस्याः समुद्रा अधि वि क्षरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठएकऽपदी । द्विऽपदी । सा । चतु:ऽपदी । अष्टाऽपदी । नवऽपदी । बभूवुषी । सहस्रऽअक्षरा । भुवनस्य । पङ्क्ति । तस्या: । समुद्रा: । अधि । वि । क्षरन्ति ॥१.४२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(सा) वह [वेदवाणी] (एकपदी) एक [ब्रह्म] के साथ व्याप्तिवाली, (द्विपदी) दो [भूत भविष्यत्] में गतिवाली, (चतुष्पदी) चार [धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] में अधिकारवाली, (अष्टापदी) आठ पद [छोटाई, हलकाई, प्राप्ति, स्वतन्त्रता, बड़ाई, ईश्वरपन, जितेन्द्रियता और सत्यसङ्कल्प, आठ ऐश्वर्य] प्राप्त करानेवाली, (नवपदी) नौ [मन बुद्धि सहित दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख] से प्राप्ति योग्य, (सहस्राक्षरा) सहस्रों [असंख्यात] पदार्थों में व्याप्तिवाली (बभूवुषी) होकर के (भुवनस्य) संसार की (पङ्क्तिः) फैलाव शक्ति है, (तस्याः) उस [वेदवाणी] से (समुद्राः) समुद्र [समुद्ररूप सब लोक] (अधि) अधिक-अधिक (वि) विविध प्रकार से (क्षरन्ति) बहते हैं ॥४२॥
भावार्थ
यह मन्त्र गत मन्त्र का उत्तर है। वेदवाणी परमेश्वर से उत्पन्न होकर संसार में सब उत्तम ज्ञानों का भण्डार है, उसी को विचार कर विद्वान् लोग आनन्द भोगते हैं ॥४२॥ यह मन्त्र पहिले आ चुका है-अ० ९।१०।२१। और कुछ भेद से ऋग्वेद में भी है-म० १।१६४।४१, ४२ ॥
टिप्पणी
४२−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ९।१०।२१। (एकपदी) एकेन ब्रह्मणा पदं व्याप्तिर्यस्याः सा (द्विपदी) भूतभविष्यतोर्गतिर्यस्याः सा (सा) गौः। वेदवाणी (चतुष्पदी) चतुर्वर्गे धर्मार्थकाममोक्षेषु पदमधिकारो यस्याः सा (अष्टापदी) अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वं च तथा कामावसायिता ॥१॥ इत्यष्टैश्वर्याणि पदानि प्राप्तव्यानि यथा सा (नवपदी) मनोबुद्धिसहितैः सप्तशीर्षण्यच्छिद्रैः प्राप्या, (बभूवुषी) भवतेः क्वसु, ङीप्। भूतवती (सहस्राक्षरा) अशू व्याप्तौ-सर। असंख्यातेषु पदार्थेषु व्यापनशीला (भुवनस्य) संसारस्य (पङ्क्तिः) पचि व्यक्तीकरणे-क्तिन्। विस्तृतिः (तस्याः) वेदवाण्याः सकाशात् (समुद्राः) समुद्ररूपा लोकाः (अधि) अधिकम् (वि) विविधम् (क्षरन्ति) संचलन्ति ॥
विषय
एकपदी-नवपदी
पदार्थ
१. यह वेदवाणी (एकपदी) = [पद गतौ, गति: ज्ञानम्] उस अद्वितीय प्रभु का ज्ञान देती है। (द्विपदी) = जीव-परमात्मा का 'द्वा सुपर्णा' आदि मन्त्रों में चित्रण करती है। (सा चतुष्पदी) = यह वाणी 'सोऽयमात्मा चतुष्पाद', इन उपनिषद् शब्दों के अनुसार आत्मा के चार पदों का वर्णन करती है। (अष्टापदी) = 'भूमि, आपः, अनल, वायु, खं, मनः, बुद्धि व अहंकार' रूप प्रभु की आठ मूर्तियों का प्रतिपादन करती है तथा (नवपदी बभूवुषी) = शरीरस्थ आत्मा के इन्द्रियरूप नवद्वारों [अष्टाचक्रा नवद्धारा०] का वर्णन करनेवाली होती हुई यह वाणी (सहस्त्राक्षरा) = हजारों प्रकार से प्रभु के रूप का व्यापन कर रही है [अश् व्याप्ती]। २. प्रभु का प्रतिपादन करती हुई यह वाणी (भुवनस्य पङ्गिः) = इस ब्रह्माण्ड का विस्तार करनेवाली है [पच् विस्तारे]। सम्पूर्ण भुवन का विस्तृत प्रतिपादन करती है। (तस्याः) = उस वेदवाणी से ही (समुद्रा:) = सब विज्ञानों के समुद्र (अधिविक्षरन्ति) = प्रवाहित होते हैं। सब सत्यविद्याओं का आदिलोत यही तो है।
भावार्थ
यह वेदवाणी आत्मा व परमात्मा का विविध रूपों में वर्णन करती हुई भुवन की विद्याओं का भी विस्तृत वर्णन करती है। यह सब सत्यविद्याओं का आदिस्रोत है।
भाषार्थ
[गौ अर्थात् वेदवाणी] (एकपदी) एक पाद वाली, (द्विपदी) दो पादों वाली (सा) वह (चतुष्पदी) चार पादों वाली, (अष्टापदी) आठ पादों वाली, तथा (नवपदौ) नौ पादों वाली होती हुई (सहस्राक्षरा) तथा हजारों अक्षरों वाली होती हुई, (भुवनस्य) उत्पन्न जगत् का (पंङ्क्तिः) विस्तार पूर्वक वर्णन करती है, (तस्याः अधि) उस वेदवाणी से (समुद्राः) नाना ज्ञान समुद्र (विक्षरन्ति) विविधरूप में क्षरित होते हैं। [अथवा (एकपदी) एक प्रकृति में जिस का पदन्यास है, (द्विपदी) दो प्रकृति और जीवात्माओं में जिस का पदन्यास है, (चतुष्पदी) चार अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार में जिस का पदन्यास है, (अष्टापदी) आठ अर्थात् शरीरस्थ आठ चक्रों में जिस का पदन्यास है, (नवपदी) नव द्वारा शरीरपुरी के नौ द्वारों में जिस का पदन्यास है, तथा हजारों न-क्षीण होने वाले तारों वाली, तथा भुवन का विस्तार करने वाली या उसे अभिव्यक्त करने वाली या उसे अभिव्यक्त करने वाली पारमेश्वरी-माता है। उस माता से वेदरूपी ज्ञान समुद्र प्रवाहित होते हैं।]
टिप्पणी
[पंङ्क्ति= पचि विस्तारवचने (चुरादि)। 'अथवा पचि व्यक्तीकरणे (भ्वादि), अभिव्यक्त करती है] [अथवा यजुर्वेद में कहा है "पादोऽस्य विश्वा भूतानि" (३१।३), तथा "पादोऽस्येहाभवत्पुनः" (३१।४), अर्थात् “सब भूतभौतिक जगत इस परम पुरुष के "एकपाद" रूपी शक्ति से उत्पन्न हुए हैं" तथा "इस का एकपाद इस संसार में पुनः पुनः प्रकट होता है"। इसी एकपाद द्वारा वह "अमृतत्व का भी ईशान" है, "उतामृतत्वस्येशानः (३१।२)। आठ चक्र तथा नौ द्वार= अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या" (अथर्व० १०।२।३१; १०।८।४३)। परमेश्वर है चतुष्पाद (माण्डूक्योपनिषद्)। शेष तीन पाद उस के अमृतरूप हैं। उन का सम्बन्ध मरणधर्मा जगत् की उत्पत्ति आदि के साथ नहीं]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
वह (एकपदी) एक चरण वाली, एक रूप, एकपाद्, एक मात्र है और वह (द्विपदी) दो पदों वाली है अर्थात् चेतन और अचेतन, सत्, त्यत्, निरुक्त अनिरुक्त, सत् असत् या व्यक्त अव्यक्त ये दो स्वरूप उसके दो पद हैं। (सा चतुष्पदी) वह चार पद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष वाली अथवा चतुष्पाद् ब्रह्मरूप है। वही (अष्टापदी) आठ पदों वाली चार वर्ण, चार आश्रमों से सम्पन्न अथवा भूमि, आपः आदि आठ प्रकृतियों से युक्त है, और (सा) वह (नवपदी) नव प्राणरूप, नव पदों से युक्त (बभूवुषी) रहती हुई (भुवनस्य) समस्त संसार के लिये (सहस्राक्षरा) हज़ारों अक्षय शक्तियों को देने वाली है। वही (भुवनस्य) भुवन, सृष्टि की (पंक्तिः) परिपाक क्रिया करनेहारी है। (तस्याः अधि) उससे ही ये (समुद्राः) बड़े बड़े रससागर समुद्र भी (विक्षरन्ति) बह रहे हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
This speech, the holy ‘Cow’, evolves, corresponding to the evolution of Prakrti and life, by one step, two steps, four steps, eight steps, nine steps, and still evolves over many more. It evolves over a thousand imperishable elements in correspondence with the evolution of the universe and the interaction of humanity and its environment. From this as from Prakrti flow out oceans, oceans of existence and treasures of knowledge of infinite divine awareness, words and meanings. (The steps of the evolution of Prakrti, as those of corresponding speech, are to be worked out from Mahat, the first existential mode of indescribable Prakrti, to the two, Mahat and Ahankara, then to four, Mahat, Ahankara, Tanmatras and mind-sense complex, then to eight, five gross elements from ether to earth, herbs, food, and vitality, and then to nine, extending to the evolution of life forms. Another suggestion is: One, Prakrti, two, Prakrti and Purusha; four, mana, buddhi, chitta and ahankara (mind, intelligence, memory and I-sense or sense of identity); eight, the eight chakras or centres of vital energy and awareness; and nine, the ‘nine-door’ entrances and exits of the human bodily system. Sahasrakshara Pankti is the boundless expansion of galaxies, stars and planets and the corrosponding words of speech.)
Translation
One-footed, two-footed (is) she, four-footed; having become eight-footed, nine-footed, thousand-syllabled, a series of existence; out from her flow apart the ocean. (Also Av. IX. 10.21, Rg. 1.164.41).
Translation
The Vedic speech becoming one-worded, two-worded, four- worded, eight-worded and nine-worded is the thousand- syllabled Panktih, the demarcating line of the objects of the world. Samudrah, the various voice-media flow from that.
Translation
This Vedic speech pervades the One solitary God. It deals with the animate and inanimate life. It expatriates on religion (Dharma), worldly prosperity (Artha), fulfillment of desire (Kama), and salvation (Moksha). It gives us the instructions for guidance in four Ashramas and four Varnas. Its knowledge is acquired through nine organs. It grants us thousands of imperishable forces. It perfects the universe. Oceans of knowledge flow forth from her in all directions.
Footnote
Four Ashramas: Brahmcharya, Grihastha, Ban Prastha, Sanyasa. Four Varunas: Brahman, Kshatriya, Vaisha, Shudra, Nine Organs: Mind, intellect, two eyes, two ears, mouth, two nostrils. Through nostrils yogis perform Pranayam and Yoga, and thereby acquire Vedic knowledge. See Atharva, 9-10-21, Rig, 1-164-41, 42
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४२−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ९।१०।२१। (एकपदी) एकेन ब्रह्मणा पदं व्याप्तिर्यस्याः सा (द्विपदी) भूतभविष्यतोर्गतिर्यस्याः सा (सा) गौः। वेदवाणी (चतुष्पदी) चतुर्वर्गे धर्मार्थकाममोक्षेषु पदमधिकारो यस्याः सा (अष्टापदी) अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वं च तथा कामावसायिता ॥१॥ इत्यष्टैश्वर्याणि पदानि प्राप्तव्यानि यथा सा (नवपदी) मनोबुद्धिसहितैः सप्तशीर्षण्यच्छिद्रैः प्राप्या, (बभूवुषी) भवतेः क्वसु, ङीप्। भूतवती (सहस्राक्षरा) अशू व्याप्तौ-सर। असंख्यातेषु पदार्थेषु व्यापनशीला (भुवनस्य) संसारस्य (पङ्क्तिः) पचि व्यक्तीकरणे-क्तिन्। विस्तृतिः (तस्याः) वेदवाण्याः सकाशात् (समुद्राः) समुद्ररूपा लोकाः (अधि) अधिकम् (वि) विविधम् (क्षरन्ति) संचलन्ति ॥
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