अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 52
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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वेदिं॒ भूमिं॑ कल्पयि॒त्वा दिवं॑ कृ॒त्वा दक्षि॑णाम्। घ्रं॒सं तद॒ग्निं कृ॒त्वा च॒कार॒ विश्व॑मात्म॒न्वद्व॒र्षेणाज्ये॑न॒ रोहि॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठवेदि॑म् । भूमि॑म् । क॒ल्प॒यि॒त्वा । दिव॑म् । कृ॒त्वा । दक्षि॑णाम् । घ्रं॒सम् । तत् । अ॒ग्निम् । कृ॒त्वा । च॒कार॑ । विश्व॑म् । आ॒त्म॒न्ऽवत् । व॒र्षेण॑ । आज्ये॑न। रोहि॑त: ॥१.५२॥
स्वर रहित मन्त्र
वेदिं भूमिं कल्पयित्वा दिवं कृत्वा दक्षिणाम्। घ्रंसं तदग्निं कृत्वा चकार विश्वमात्मन्वद्वर्षेणाज्येन रोहितः ॥
स्वर रहित पद पाठवेदिम् । भूमिम् । कल्पयित्वा । दिवम् । कृत्वा । दक्षिणाम् । घ्रंसम् । तत् । अग्निम् । कृत्वा । चकार । विश्वम् । आत्मन्ऽवत् । वर्षेण । आज्येन। रोहित: ॥१.५२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(भूमिम्) भूमि को (वेदिम्) वेदि [यज्ञकुण्ड] रूप (कल्पयित्वा) रचकर, (दिवम्) आकाश को (दक्षिणाम्) दक्षिणा [प्रतिष्ठा का दान] रूप (कृत्वा) बनाकर, (तत्) फिर (अग्निम्) अग्नि को (घ्रंसम्) तापरूप (कृत्वा) सिरजकर, (रोहितः) सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] ने (वर्षेण) वृष्टिरूप (आज्येन) घी से (आत्मन्वत्) आत्मावाला (विश्वम्) सब जगत् (चकार) बनाया ॥५२॥
भावार्थ
परमात्मा ने भूमि, आकाश आदि आधार और अग्नि आदि पदार्थ बनाकर सब जगत् को आत्मबल देकर पुरुषार्थी बनाया है। उसी सर्वशक्तिमान् की भक्ति से पुरुषार्थी मनुष्य उच्च पद पावें ॥५२॥
टिप्पणी
५२−(वेदिम्) यज्ञकुण्डं यथा (भूमिम्) (कल्पयित्वा) रचयित्वा (दिवम्) आकाशम् (कृत्वा) विधाय (दक्षिणाम्) प्रतिष्ठादानं यथा (घ्रंसम्) म० ४६। तापं यथा (तत्) तदा (अग्निम्) सूर्यादिकम् (कृत्वा) (चकार) रचयामास (विश्वम्) सर्वं जगत् (आत्मन्वत्) अ० ४।१०।७। सात्मकं स्थावरजङ्गमात्मकम् (वर्षेण) वृष्टिरूपेण (आज्येन) घृतेन (रोहितः) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः ॥
विषय
सृष्टियज्ञ में यज्ञमय जीवन
पदार्थ
१. (रोहित:) = उस तेजस्वी, सदावृद्ध प्रभु ने वेदि भूमि (कल्पयित्वा) = भूमि को यज्ञवेदि के रूप में बनाकर (दिवं दक्षिणां कृत्वा) = द्युलोक को-प्रकाश को यज्ञ की दक्षिणा करके और (घ्रंसम्) = इस दीप्त आतपवाले सूर्य को (तत् अग्निं कृत्वा) = इस यज्ञवेदी की अग्नि बनाकर (वर्षेण आग्येन) = वृष्टिरूप घृत से (आत्मन्वत् विश्वं चकार) = प्रशस्त आत्मशक्तिवाले इस सृष्टियज्ञ को किया। २. प्रभु इस सृष्टियज्ञ में सब लोक-लोकान्तरों का निर्माण करके जीव को शरीररूप निवास स्थान प्राप्त कराते हैं। इसमें मन आदि साधनों के द्वारा यज्ञ की ओर झुकाववाला होकर यह प्रशस्त जीवनवाला बन पाता है।
भावार्थ
सृष्टि को हम प्रभु द्वारा किये जानेवाले यज्ञ के रूप में देखें। स्वयं भी यज्ञमयजीवनवाले होते हुए प्रशस्तजीवनवाले बनें।
भाषार्थ
(भूमिम्) भूमि को (वेदिम् कल्पयित्वा) वेदि कल्पित कर के, (दिवम्) द्युलोक को (दक्षिणाम्, कृत्वा) दक्षिणारूप कर के, (तत्) उस (घ्रंसम्) गर्म सूर्य को (अग्निम्) अग्नि (कृत्वा) कर के, (रोहितः) सर्वोपरि आरुढ़ परमेश्वर ने, (वर्षेण आज्येन) वर्षा रूपी घृत द्वारा, (विश्वम्) सब [प्राणियों] को (आत्मन्वत्) आत्मावाला अर्थात् जीवित (चकार) किया है।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि सांसारिक जीवन को, यदि यज्ञ-भावनाओं से संमिश्रित कर निभाया जाय, अर्थात् अभ्युदय और निश्रेयस की दृष्टि से यदि जीवन निभाया जाय, तो इस यज्ञ के फलरूप में दैवी जीवन प्राप्त होता है। यज्ञमय जीवन की यह दक्षिणा है। मृत्यु के पश्चात् दैवी जीवन मिलना दक्षिणारूप है। दैवी जीवन को "दिवम्" कहा है। यज्ञ के लिये तीन वस्तुए चाहिये, वेदि, अग्नि और आज्य। ये हैं भूमि, सूर्य और वर्षा। यद्यपि इस यज्ञ के लिये दो अग्नियां चाहिए (४६-५१), परन्तु याज्ञिक यज्ञ में मुख्याग्नि होती है गार्हपत्य, इसी से आहवनीयाग्नि ली जाती है, इसी प्रकार मुख्याग्नि है सूर्य, इसी से चान्द्राग्नि चमकती है। अतः मन्त्र में मुख्याग्नियों, अर्थात् गार्हपत्य और सूर्य का ही वर्णन हुआ है]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(भूमिम्) भूमि को (वेदिम्) वेदि (कल्पयित्वा) बनाकर और (दिवम्) द्यौलोक को (दक्षिणाम्) ‘दक्षिणा’ वेदि (कृत्वा) कर के और (घ्रंसम्) ‘घ्रंस’ को (तदग्निम्) दक्षिणवेदि में अग्नि (कृत्वा) बनाकर(रोहितः) सर्वोत्पादक परमात्मा (वर्षेण आज्येन) वर्षारूप ‘आज्य’ या घृत से (विश्वम्) समस्त विश्व को (आत्मन्वद्) अपनी चेतना शक्ति से युक्त (चकार) करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Having made earth as vedi and heaven as dakshina, the ritual gift, and the sun as fire with its complementarity of cool such as the moon, Rohita, lord and spirit of existential beauty and bliss, made the world evolve to a living entity with a soul, with the vitality of rain and ghrta.
Translation
Forming the earth as the sacrificial altar, making the heaven as the sacrificial fee, using that heat as sacrificial fire, the ascendant Lord created all the beings that have soul, making the rain as the sacrificial butter.
Translation
The All-creating Divinity making the earth Vedi and hea venly region as Dakshina, making heat (Ghransa) fire with rain as molten ghee creates the living creatures.
Translation
God made the earth to be His altar, heaven His Dakshina. Then heat He took for Agni, and with rain for molten butter He created every living being.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५२−(वेदिम्) यज्ञकुण्डं यथा (भूमिम्) (कल्पयित्वा) रचयित्वा (दिवम्) आकाशम् (कृत्वा) विधाय (दक्षिणाम्) प्रतिष्ठादानं यथा (घ्रंसम्) म० ४६। तापं यथा (तत्) तदा (अग्निम्) सूर्यादिकम् (कृत्वा) (चकार) रचयामास (विश्वम्) सर्वं जगत् (आत्मन्वत्) अ० ४।१०।७। सात्मकं स्थावरजङ्गमात्मकम् (वर्षेण) वृष्टिरूपेण (आज्येन) घृतेन (रोहितः) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः ॥
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