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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 53
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    व॒र्षमाज्यं॑ घ्रं॒सो अ॒ग्निर्वेदि॒र्भूमि॑रकल्पत। तत्रै॒तान्पर्व॑तान॒ग्निर्गी॒र्भिरू॒र्ध्वाँ अ॑कल्पयत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒र्षम् । आज्य॑म् । घ्रं॒स: । अ॒ग्नि: । वेदि॑: । भूमि॑: । अ॒क॒ल्प॒त॒ । तत्र॑ । ए॒तान् । पर्व॑तान् । अ॒ग्नि: । गी॒:ऽभि: ऊ॒र्ध्वान् । अ॒क॒ल्प॒य॒त् ॥१.५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वर्षमाज्यं घ्रंसो अग्निर्वेदिर्भूमिरकल्पत। तत्रैतान्पर्वतानग्निर्गीर्भिरूर्ध्वाँ अकल्पयत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वर्षम् । आज्यम् । घ्रंस: । अग्नि: । वेदि: । भूमि: । अकल्पत । तत्र । एतान् । पर्वतान् । अग्नि: । गी:ऽभि: ऊर्ध्वान् । अकल्पयत् ॥१.५३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 53
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (वर्षम्) वृष्टि (आज्यम्) घीरूप, (घ्रंसः) ताप (अग्निः) अग्निरूप, (भूमिः) भूमि (वेदिः) वेदिरूप (अकल्पत) बनाई गयी। (तत्र) उस [भूमि] पर (एतान् पर्वतान्) इन पर्वतों का (अग्निः) तेजःस्वरूप [परमेश्वर वा पार्थिव ताप] ने (गीर्भिः) वेदवाणियों द्वारा (ऊर्ध्वान्) ऊँचा (अकल्पयत्) बनाया ॥५३॥

    भावार्थ

    जैसे यज्ञ के लिये घृत आदि हव्य पदार्थ होते हैं, वैसे ही वृष्टि आदि बनाकर प्राणियों के सुख के लिये पार्थिव ताप द्वारा ईश्वरनियम से पहाड़ बने हैं ॥५३॥

    टिप्पणी

    ५३−(वर्षम्) वृष्टिः (आज्यम्) घृतं यथा (घ्रंसः) म० ४६। तापः (अग्निः) तेजोविशेषः (वेदिः) (भूमिः) (अकल्पत) अरच्यत (तत्र) भूमौ (एतान्) दृश्यमानान् (पर्वतान्) (अग्निः) तेजःस्वरूपः परमेश्वरः पार्थिवतापो वा (गीर्भिः) वेदवाणीभिः (ऊर्ध्वान्) उन्नतान् (अकल्पयत्) अकरोत् ॥

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    विषय

    सृष्टियज्ञ की सामग्री

    पदार्थ

    १. (अग्निः) = उस अग्रणी प्रभु ने वर्ष (आग्यं अकल्पयत्) = वृष्टि को ही इस सृष्टियज्ञ के लिए घृत के रूप में बनाया। इस यज्ञ में (घ्रंस:) = देदीप्यमान सूर्य ही (अग्नि:) = अग्नि हुआ। (भूमि: वेदिः) = यह पृथिवी ही सृष्टि-यज्ञ की वेदि हुई। २. (तत्र) = उस वेदि पर प्रभु ने (गीर्भिः) = वेदवाणियों के द्वारा (एतान् पर्वतान्) = इन पर्वतों को (ऊवान् अकल्पयत्) = ऊपर यज्ञस्तम्भों के रूप में खड़ा किया। ऐसा प्रतीत होता है कि पर्वतरूप यज्ञस्तम्भों पर वेदवाणियाँ अंकित हों। ये हिमाच्छादित पर्वत प्रभु की महिमा का प्रतिपादन तो कर ही रहे हैं।

    भावार्थ

    इस सृष्टि-यज्ञ में 'वृष्टि' घृत है। 'सूर्य' अग्नि और 'भूमि' वेदि है। यहाँ पर्वत यज्ञस्तम्भ हैं, जिनपर वेदवाणियाँ मानो अंकित हुई हैं।

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    भाषार्थ

    (वर्षम्, आज्यम्, अकल्पत) वर्षा हुई आज्य, (घ्रंसः अग्निः) गर्म सूर्य हुआ अग्नि, (भूमिः वेदिः) भूमि हुई वेदि। (तत्र) उस भूमि में (अग्निः) अग्नि ने, (गीर्भिः) शब्दों के साथ (पर्वतान्) पर्वतों को (ऊर्ध्वान्) ऊंचा (अकल्पयत्) रचा या बनाया है।

    टिप्पणी

    [आज्य, अग्नि और वेदि से अतिरिक्त, याज्ञिक-यज्ञ में, यूप भी चाहिए (४७), जो कि पर्वतरूप हैं (४७)। इन यूपों के प्रतिनिधिरूप में पर्वतों का वर्णन हुआ है। ये पर्वत, भूमि के गर्भ में स्थित अग्नि द्वारा, उत्क्षिप्त हुए हैं, यह अभिप्राय प्रतीत होता है। ये पर्वत जब भूमिष्ठ अग्नि द्वारा उत्क्षिप्त हुए तो सम्भवतः साथ ही धड़ाके के शब्द भी हुए। इन्हें “गीर्भिः" द्वारा सूचित किया है। अथवा "अग्निः" द्वारा यदि घ्रंसाग्नि अर्थात् सूर्याग्नि अभिप्रेत हो तो अभिप्राय यह होगा कि पृथिवी जब द्रवावस्था में तथा तत्पश्चात् द्रव-और-दृढ़ावस्था के बीच की अवस्था में अर्थात् दधि समान पिच्छिलावस्था में थी, तब सूर्य की आकर्षण शक्ति द्वारा ऐसी पृथिवी पर, पार्थिव तत्व की ऊंची-ऊंची पर्वत समान लहरों का उत्थान और पतन होता रहता होगा, और शनैः शनैः ये लहरें जब ठण्डी होती गई तो पर्वत रूप में दृढ़ावस्था वाली पृथिवी पर, स्थिर हो गई; साथ ही इन लहरों के उत्थान और पतन में उग्र शब्द भी होते रहे, जैसे कि जलीय समुद्र में सूर्य द्वारा आकर्षण होने पर जलीय लहरें शब्द करती हुई उत्थान और पतन करती हैं। उत्थान और पतन= चढ़ाब-उत्तराव, लहरों का। गीर्भिः = याज्ञिक-यज्ञों में यूपछेदन, यूपनिर्माण तथा यूपस्थापन के लिये मन्त्र रूपी वाणियों के उच्चारण किये जाते हैं तब यज्ञ सफल होते हैं। इस लिये वर्तमान प्रतिपाद्य संसार यज्ञ में भी "गीर्भिः" द्वारा पर्वतों के उर्ध्वीभवन का वर्णन किया है]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    इस महान् यज्ञ में (वर्षम् आज्यम्) वर्षा ‘आज्य’ या घृत और वीर्य के समान है। (अग्निः घ्रंसः) घ्रंसः = ग्रीष्म का सूर्य ही अग्नि के समान है (वेदिः भूमि अकल्पयत्) और भूमि को वेदि बनाया गया है। (तत्र) और उस विश्वमय विराड् यज्ञ में (एतान् पर्वतान्) इन पर्वतों को (अग्निः) अग्निरूप परमेश्वर (गीर्भिः) अपनी उद्गिरण करने वाली शक्तियों से (ऊर्ध्वान्) ऊर्ध्व, ऊँचे स्थलों को (अकल्पयत्) बनाता है। पृथ्वी की भीतरी अग्नि ज्वालामुखी रूप से फूट फूट कर भूतल को विषम करती है। पृथ्वी के स्तर टूट टूट कर पर्वत और खोहें बनती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Agni, light of life, creator of cosmic yajna, created heat, ghrta and rain, made the earth into vedi, and, thereby on the earth, Agni created and shaped the high mountains with the chant of divine hymns of the Veda.

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    Translation

    Rain was made the sacrificial butter, the heat the sacrificial fire, the earth the sacrificial altar. There the adorable Lord made these high mountains rise up with words

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    Translation

    The rains made ghee, Ghransa, the heat fire, the earth Vedi. These fires with consuming powers make these clouds floating high in the sky.

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    Translation

    In this Yajna of creation of the universe, the earth became an altar, heat became Agni, and the rain became butter. There God through His vast powers, made these mountains rise and stand erect.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५३−(वर्षम्) वृष्टिः (आज्यम्) घृतं यथा (घ्रंसः) म० ४६। तापः (अग्निः) तेजोविशेषः (वेदिः) (भूमिः) (अकल्पत) अरच्यत (तत्र) भूमौ (एतान्) दृश्यमानान् (पर्वतान्) (अग्निः) तेजःस्वरूपः परमेश्वरः पार्थिवतापो वा (गीर्भिः) वेदवाणीभिः (ऊर्ध्वान्) उन्नतान् (अकल्पयत्) अकरोत् ॥

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