Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 59
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    0

    मा प्र गा॑म प॒थो व॒यं मा य॒ज्ञादि॑न्द्र सो॒मिनः॑। मान्त स्थु॑र्नो॒ अरा॑तयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । प्र । गा॒म॒ । प॒थ: । व॒यम् । मा । य॒ज्ञात् । इ॒न्द्र॒ । सो॒मिन॑: । मा । अ॒न्त: । स्थु॒: । न॒: । अरा॑तय: ॥१.५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा प्र गाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिनः। मान्त स्थुर्नो अरातयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । प्र । गाम । पथ: । वयम् । मा । यज्ञात् । इन्द्र । सोमिन: । मा । अन्त: । स्थु: । न: । अरातय: ॥१.५९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 59
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर ! (पथः) वैदिक मार्ग से (वयम्) हम (मा प्र गाम) कभी दूर न जावें, और (मा)(सोमिनः) ऐश्वर्ययुक्त (यज्ञात्) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान व्यवहार] से [दूर जावें]। (अरातयः) अदानी लोग (नः अन्तः) हमारे बीच (मा स्थुः) न ठहरें ॥५९॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग परमात्मा की उपासना करते हुए सदा वैदिक मार्ग पर चल कर श्रेष्ठ कर्म करें और सुपात्रों को योग्य दान देते रहें ॥५९॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है-म० १०।५७।१ ॥

    टिप्पणी

    ५९−(मा प्र गाम) नैव दूरे गच्छेम (पथः) वैदिकमार्गात् (वयम्) धार्मिकाः (मा) निषेधे (यज्ञात्) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारात् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन्, जगदीश्वर (सोमिनः) ऐश्वर्ययुक्तात् (अन्तः) मध्ये (मा स्थुः) न तिष्ठेयुः (नः) अस्माकम् (अरातयः) अदानशीलाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मार्ग पर मा प्र गाम

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! (वयम्) = हम (पथः मा प्रगाम) = मार्ग से विचलित न हों। मार्गभ्रष्ट होकर हम आपसे दूर न हो जाएँ। हे प्रभो! हम (सोमिन:) = अपने में सोम [वीर्यशक्ति] का रक्षण करनेवाले (यज्ञात) = यज्ञ से-देवपूजा, संगतिकरण व दानरूप उत्तम कर्म से दूर न हों। बड़ों के आदर, परस्पर प्रेम व दान की वृत्तिवाले बनकर हम शरीर में सोम का रक्षण कर पाएँ। ३. हे प्रभो! आप ऐसा अनुग्रह कीजिए कि (अरातयः) = काम-क्रोध-लोभादि शत्रु (नः अन्त: मा स्थुः) = हमारे अन्दर स्थित न हों। हमारा हृदय इन कामादि का अधिष्ठान न हो। इन शत्रुओं से अपने हृदय को शून्य करके ही हम आपके दर्शन के योग्य बन पाएंगे।

     

    भावार्थ

    हम मार्गभ्रष्ट न हों, यज्ञशील, 'काम-क्रोध-लोभ' से शुन्य हों।

     

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् परमेश्वर ! (पथः) तुझ द्वारा दर्शाए सत्पथ से (वयम्) हम (मा)(प्र गाम) दूर हो, और (मा)(सोमिनः यज्ञात्) ब्रह्मचर्य-जीवन रूपी यज्ञ से दूर हों, (नः) हमारे (अन्तः) जीवनों में (अरातयः) अदान भावनाएं रूपी शत्रु (मा स्थुः) स्थित न हो।

    टिप्पणी

    [सोमिनः= सोम = वीर्य, जो सन्तानोत्पादक है; षु प्रसवे (अथर्व० १४।१।१-५)। यज्ञात् = पुरुषो वाव यज्ञः" (छान्दोग्य० उप०)। इन्द्र= इदि परमैश्वर्ये। अरातयः = अ + रा (दाने) + ति]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हम लोग (पथः) सत्-मार्ग से (मा प्र गाम) कभी विचलित न हों। हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (सोमिनः) सोम वाले परमानन्दरूप (यज्ञात्) यज्ञ, परमेश्वर की उपासना से (वयम् मा) हम कभी च्युत न हों। और (अन्तः) भीतर (नः अरातयः) हमारे काम क्रोध आदि शत्रु लोग हम पर (मा स्थुः) कभी आक्रमण और वश न करें।

    टिप्पणी

    ऋग्वेदे बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपायना ऋषयः, विश्वेदेवा देवताः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    O Lord, Indra, let us not deviate from the divine path, let us not forsake the divine Soma-yajna, let no negativities and deprivations be and last in us.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O resplendent Lord, let us not depart from the righteous path, nor from the path of noble actions; let not malignity or miserliness dwell within us. (See also Rg. X.57.1)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O Almighty God! may not we leave the right path and may not we leave the practice of Soma-Yaga and may not our enemies within come into our way.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O God, let us never forsake the path of righteousness and Thy joy-bestowing contemplation. May our internal foes never have sway over us !

    Footnote

    internal foes: Lust, anger, avarice, infatuation, and pride. See Rig, 10-57-1.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५९−(मा प्र गाम) नैव दूरे गच्छेम (पथः) वैदिकमार्गात् (वयम्) धार्मिकाः (मा) निषेधे (यज्ञात्) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारात् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन्, जगदीश्वर (सोमिनः) ऐश्वर्ययुक्तात् (अन्तः) मध्ये (मा स्थुः) न तिष्ठेयुः (नः) अस्माकम् (अरातयः) अदानशीलाः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top