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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 58
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    यो अ॒द्य दे॑व सूर्य॒ त्वां च॒ मां चा॑न्त॒राय॑ति। दुः॒ष्वप्न्यं॒ तस्मि॒ञ्छम॑लं दुरि॒तानि॑ च मृज्महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒द्य । दे॒व॒ । सू॒र्य॒ त्वाम् । च॒ । माम् । च॒ । अ॒न्त॒रा । अय॒ति । दु॒:ऽस्वप्न्य॑म् । तस्मि॑न् । शम॑लम् । दु॒:ऽइ॒तानि॑। च॒ । मृ॒ज्म॒हे॒ ॥१.५८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अद्य देव सूर्य त्वां च मां चान्तरायति। दुःष्वप्न्यं तस्मिञ्छमलं दुरितानि च मृज्महे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अद्य । देव । सूर्य त्वाम् । च । माम् । च । अन्तरा । अयति । दु:ऽस्वप्न्यम् । तस्मिन् । शमलम् । दु:ऽइतानि। च । मृज्महे ॥१.५८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 58
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (देव) हे प्रकाशमान ! (सूर्य) सूर्य [सूर्यसमान तेजस्वी विद्वान् !] (यः) जो कोई [शत्रु] (अद्य) आज (त्वाम्) तेरे (च च) और (माम् अन्तरा) मेरे बीच (अयति) चले। (तस्मिन्) उस विषय में [आये हुए] (दुःष्वप्न्यम्) बुरे स्वप्न, (शमलम्) मलिन व्यवहार (च) और (दुरितानि) दुर्गतियों को (मृज्महे) हम शुद्ध करते हैं ॥५८॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य दुष्टता के कारण शुभ गुणों के प्रकाशों को रोके, विद्वान् लोग उन सब विघ्नों को हटाने के लिये प्रयत्न करें ॥५८॥

    टिप्पणी

    ५८−(यः) शत्रुः (अद्य) अस्मिन् दिने (देव) हे प्रकाशमान (सूर्य) आदित्यवत्तेजस्विन् विद्वन् (त्वाम्) (च) (माम्) (च) (अन्तरा) मध्ये (अयति) गच्छति (दुःष्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्नम् (तस्मिन्) पूर्वोक्ते विषये (शमलम्) भ्रष्टव्यवहारम् (दुरितानि) कष्टानि (च) (मृज्महे) शोधयामः ॥

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    विषय

    'दु:ष्वप्न्य शमल व दुरित' दूरीकरण

    पदार्थ

    १. हे (देव सूर्य) = प्रकाशमय गतिशील प्रभो! (अद्य) = आज (य:) = जो भी बात (त्वां च मां च अन्तरा) = आपके और मेरे बीच में (अयति) = आती है, अर्थात् मुझे आपके दर्शन से रोकती है, (तस्मिन्) = उसके निमित्त-उसे दूर करने के लिए (दु:ष्वप्न्य) = अशुभ स्वप्नों के कारणभूत प्रत्येक वस्तु को, (शमलम्) = [sin, moral impurity] नैतिक दोषों को, दुरितानि च और अशुभ कर्मों को मृज्महे दूर करते हैं। २. ये 'दुःष्वप्न्य, शमल व दुरित' ही हमें प्रभु-दर्शन से वंचित करने का कारण बनते हैं। इन्हें दूर करके हम अपने जीवन का शोधन करते हुए अपने को प्रभु दर्शन के योग्य बनाते हैं।

     

    भावार्थ

    उस 'प्रकाशमय, गति के स्रोत' प्रभु का दर्शन उसे ही होता है जो 'दुःष्वप्नों, शमलों व दुरितों' को दूर कर पाता है।

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    भाषार्थ

    (देव सूर्य) हे सूर्य॑सम प्रकाशित परमेश्वर देव ! (यः) जो (अद्य) आज (त्वां च मां च अन्तरा अयति) तेरे और मेरे बीच अन्तराय रूप हो कर आता है, (तस्मिन्) उस में वर्तमान (दुष्वप्न्यम्) एतत्सम्बन्धी दुःस्वप्न अर्थात् दुर्विचार को, (शमलम्) शान्ति भङ्ग करने वाले विचार को (दुरितानि च) और दुष्कर्मो को (मृज्महे) हम धो डालते हैं, शुद्ध कर देते हैं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ५७ में तो ऐसे व्यक्ति के विनाश का वर्णन है, और वर्तमान मन्त्र में उस के संशोधन का। यदि संशोधन के लिये यत्न करने पर भी व्यक्ति शुद्ध नहीं होता तो फिर उस के लिये विनाश दण्ड ही विहित है। मृज्महे= मृजूष् शुद्धौ। रात्रि के समय निद्रावस्था में दुष्वप्न्य आते हैं, और सूर्योदय होने पर निद्राक्षय होने से दुष्वप्न्य दूर हो जाते हैं। इसलिये व्यक्ति के दुष्वप्न्य आदि के दूर करने के प्रसङ्ग में परमेश्वर को सूर्यपद द्वारा निर्दिष्ट किया है। अग्नि का काम है भस्म करना, अतः व्यक्ति के नाश के प्रसङ्ग में मन्त्र ५७ में परमेश्वर को अग्नि पद द्वारा निर्दिष्ट किया है]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (देव) परमेश्वर, राजन्, गुरो ! हे (सूर्य) सूर्य, सूर्य के समान प्रकाशक ! (येः) जो (अद्य) आज (त्वां च मां च अन्तरा) तेरे और मेरे बीच में (आयति) आ जाय (तस्मिन्) उसमें (दुष्वप्न्यं) बुरे स्वप्न देने वाले (शमलम्) पाप वासना और (दुरितानि च) दुष्ट संकल्पों को (मृज्महे) लगा दें।

    टिप्पणी

    ‘तस्मिन् दुष्वप्न्यं सर्वं’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    O divine Sun, whoever now stands as obstruction between you and me, we cleanse him of all evil dreams, dirt and evil thought and will in him, or, otherwise, we wash ourselves of him as such.

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    Translation

    O divine sun, whosoever stands today between you and me, to him we transfer evil dream, fault and troubles.

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    Translation

    We wipe away ill-dreams, troubles, impurity on him who comes between the sun and me as an obstacle.

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    Translation

    O learned Guru, whoever casts interruption between thee and me today, on him we wipe away ill-dream, troubles and impurity !

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५८−(यः) शत्रुः (अद्य) अस्मिन् दिने (देव) हे प्रकाशमान (सूर्य) आदित्यवत्तेजस्विन् विद्वन् (त्वाम्) (च) (माम्) (च) (अन्तरा) मध्ये (अयति) गच्छति (दुःष्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्नम् (तस्मिन्) पूर्वोक्ते विषये (शमलम्) भ्रष्टव्यवहारम् (दुरितानि) कष्टानि (च) (मृज्महे) शोधयामः ॥

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