अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 38
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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य॒शा या॑सि प्र॒दिशो॒ दिश॑श्च य॒शाः प॑शू॒नामु॒त च॑र्षणी॒नाम्। य॒शाः पृ॑थि॒व्या अदि॑त्या उ॒पस्थे॒ऽहं भू॑यासं सवि॒तेव॒ चारुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय॒शा: । या॒सि॒ । प्र॒ऽदिश॑: । दिश॑: ।च॒ । य॒शा: । प॒शू॒नाम् । उ॒त । च॒र्ष॒णी॒नाम् । य॒शा: । पृ॒थि॒व्या: । अदि॑त्या: । उ॒पऽस्थे॑ । भू॒या॒स॒म् । स॒वि॒ताऽइ॑व । चारु॑: ॥१.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
यशा यासि प्रदिशो दिशश्च यशाः पशूनामुत चर्षणीनाम्। यशाः पृथिव्या अदित्या उपस्थेऽहं भूयासं सवितेव चारुः ॥
स्वर रहित पद पाठयशा: । यासि । प्रऽदिश: । दिश: ।च । यशा: । पशूनाम् । उत । चर्षणीनाम् । यशा: । पृथिव्या: । अदित्या: । उपऽस्थे । भूयासम् । सविताऽइव । चारु: ॥१.३८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमेश्वर !] (यशाः) यशस्वी तू (प्रदिशः) बड़ी दिशाओं (च) और (दिशः) मध्य दिशाओं में (यासि) चलता है, और तू (पशूनाम्) पशुओं [गौ सिंह आदिकों] (उत) और (चर्षणीनाम्) मनुष्यों में (यशाः) यशस्वी है। (अहम्) मैं (पृथिव्याः) पृथिवी की ओर (आदित्याः) अखण्ड वेदवाणी की (उपस्थे) गोद में (यशाः) यशस्वी होकर (सविता इव) सबके चलानेवाले शूर [अथवा सूर्य] के समान (चारुः) शोभायमान (भूयासम्) होऊँ ॥३८॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर अपनी महिमा से समस्त लोकों का राजा है, वैसे ही मनुष्य ईश्वर की उपासना से पृथिवी पर प्रिय होकर अपनी उन्नति करते रहें ॥३८॥
टिप्पणी
३८−(यशाः) अ० ६।३९।३। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। यशस्-क्यच्, ततः क्विप्, अलोपयलोपौ। यशस्कामः। यशस्वी (यासि) गच्छसि (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः (दिशः) अन्तर्दिशाः (च) समुच्चये (यशाः) (पशूनाम्) गवादीनाम् (उत) अपि (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (यशाः) (पृथिव्याः) (अदित्याः) अदितिर्वाङ्नाम-निघ० १।११। अखण्डिताया वेदवाण्याः (उपस्थे) क्रोडे (अहम्) उपासकः (भूयासम्) (सविता इव) सर्वप्रेरकः शूरः सूर्यो वा यथा (चारुः) शोभायमानः ॥
विषय
यशाः
पदार्थ
१. हे प्रभो! (यशा:) = [यशः अस्ति अनेन] उपासक के जीवन को यशस्वी बनानेवाले आप (दिशः प्रदिशः च यासि) = सब दिशाओं व प्रदिशाओं में व्याप्त हैं। आप ही (पशूनाम् यशा:) = उस उस पशु में उस-उस यश को स्थापित करनेवाले हैं। मक्खियों को फूलों से रस लेकर शहद के निर्माण की शक्ति आप ही प्राप्त कराते हैं। चील को निष्कम्प पक्षों से आकाश में गति की शक्ति आप ही देते हैं। सिंह को नदी को कुशलता से तैरने की शक्ति आप ही देते हैं (उत) = और (चर्षणीनाम्) = मनुष्यों के यश भी आप ही है। बुद्धिमानों की बुद्धि आप हैं तो तेजस्वियों के तेज आप ही हैं। बलवानों का कामरागविवर्जित बल भी आप ही हैं। २.हे प्रभो! आपकी कृपा से (पृथिव्याः) = इस पृथिवी माता की तथा (अदित्या:) = अखण्डित वेदवाणी की (उपस्थे) = गोद में (अहम्) = मैं (यशा:) = यशस्वी जीवनवाला (भूयासम्) = होऊँ। मैं (सविता इव चारु:) = सूर्य की भौति दीस, सुन्दर जीवनवाला बनूं। पृथिवीमाता की गोद में रहता हुआ, स्वाभाविक जीवन बिताता हुआ मैं स्वस्थ बनूं तथा वेदवाणी की गोद में मैं ज्ञानदीस बनूँ। इसप्रकार सूर्य के समान चमकनेवाला होऊँ।
भावार्थ
दिशाओं में, पशुओं व मनुष्यों में, सर्वत्र प्रभु के ही यश का विस्तार है। हम पृथिवीमाता की गोद में वेदवाणी को अपनाते हुए स्वस्थ, ज्ञानदीप्त बनकर यशस्वी जीवनवाले हो।
भाषार्थ
[हे सवितः अर्थात् हे सूर्य !] (यशाः) यशस्वी हुआ तू (प्रदिशः) अवान्तर दिशाओं में (च) तथा (दिशः) मुख्य दिशाओं में (यासि) जाता है, (यशाः) यशस्वी हुआ (पशूनाम् उत चर्षणीनाम्) पशुओं और मनुष्यों के मध्य तू आता-जाता है। (अदित्याः उपस्थे) अदीना-देवमाता अर्थात् पारमेश्वरी माता की गोद में स्थित हुआ तू (यशाः) यशस्वी होकर आता जाता है। (पृथिव्या उपस्थे) पृथिवी माता की गोद में (अहम्) मैं सम्राट् (सविता इव) सूर्य के सदृश (चारुः) सब के लिये सुन्दर या रुचिकर (भूयासम्) होऊं।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि मैं सम्राट जब पृथिवी के भिन्न-भिन्न प्रदेशों तथा प्रजाजनों में जाऊं तो मैं भी यशस्वी हुआ और प्रजाजनों के लिये रुचिकर हुआ जाऊँ। कहीं मेरा अपयश न हो, और न मुझे प्रजाजन अप्रिय जानें]
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(यशाः) हे ईश्वर ! हे राजन् ! यशस्वी होकर तू (प्र दिशः दिशः च) मुख्य दिशाओं और उप-दिशाओं में भी (यासि) प्रयाण करता है। (पशूनाम्) पशुओं (उत) और (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के बीच में भी तू ही (यशाः) सबसे अधिक यशस्वी है। (अदित्याः) अदिति या अखण्ड (पृथिव्याः) पृथिवी के (उपस्थे) गोद में मैं भी (यशाः) यशस्वी होकर (सविता इव) सूर्य के समान (चारुः) प्रकाशमान, उत्तम (भूयासम्) होकर रहूं।
टिप्पणी
(प्र०) दिशोनु (च०) ‘अस्मि सवितेव’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
O Sun, honoured and adored, you sojourn over and across space and sub-spaces in all directions and subdirections. Honoured and adored, you vibrate among living beings and moving humanity. O Lord Supreme, I pray, let me too, like the sun, with honour and fame, be loved and esteemed in the lap of mother earth and the imperishable Prakrti.
Translation
Full of glory, you go to the mid-quarters; full of glory you are to animals and men. Full of glory, may I be in the lap of the indivisible earth, graceful like the impeller of life (the sun).
Translation
O All-creating God ! thou possessing all magnificence pervades the quarters and sub-quarters, glorious Thou pervadest animals and human beings, endowed with high sense of magnimity thou art present in the interior of the earth and Aditi, the material cause of the universe. (By thy grace) I like the sun be good and beautiful in my dealings every- where.
Translation
O God, Thou pervadest gloriously the regions and mid-regions. Thou art a glorious sight to beasts and men. On earths’, on Veda s bosom, bright with glory, fain would I equal the Sun in beauty!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३८−(यशाः) अ० ६।३९।३। सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। यशस्-क्यच्, ततः क्विप्, अलोपयलोपौ। यशस्कामः। यशस्वी (यासि) गच्छसि (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः (दिशः) अन्तर्दिशाः (च) समुच्चये (यशाः) (पशूनाम्) गवादीनाम् (उत) अपि (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (यशाः) (पृथिव्याः) (अदित्याः) अदितिर्वाङ्नाम-निघ० १।११। अखण्डिताया वेदवाण्याः (उपस्थे) क्रोडे (अहम्) उपासकः (भूयासम्) (सविता इव) सर्वप्रेरकः शूरः सूर्यो वा यथा (चारुः) शोभायमानः ॥
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