अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 57
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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यो मा॑भिच्छा॒यम॒त्येषि॒ मां चा॒ग्निं चा॑न्त॒रा। तस्य॑ वृश्चामि ते॒ मूलं॒ न च्छा॒यां क॑र॒वोऽप॑रम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । मा॒ । अ॒भि॒ऽछा॒यम् । अ॒ति॒ऽएषि॑: । माम् । च॒ । अ॒ग्निम् । च॒ । अ॒न्त॒रा । तस्य॑ । वृ॒श्चा॒मि । ते॒ । मूल॑म् । न । छा॒याम् । क॒र॒व॒: । अप॑रम् ॥१.५७॥
स्वर रहित मन्त्र
यो माभिच्छायमत्येषि मां चाग्निं चान्तरा। तस्य वृश्चामि ते मूलं न च्छायां करवोऽपरम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । मा । अभिऽछायम् । अतिऽएषि: । माम् । च । अग्निम् । च । अन्तरा । तस्य । वृश्चामि । ते । मूलम् । न । छायाम् । करव: । अपरम् ॥१.५७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो तू (माम्) मेरे (च च) और (अग्निम् अन्तरा) अग्नि [अग्निसमान ज्ञानप्रकाश] के बीच [होकर] (अभिच्छायम् मा) मुझ तेज पाये हुए को (अत्येषि) उलाँघता है। (तस्य ते) उस तेरी (मूलम्) जड़ को (वृश्चामि) मैं काटता हूँ, तू (छायाम्) छाया [अन्धकार वा अविद्या] को (अपरम्) फिर (न) न (करवः) फैलावे ॥५७॥
भावार्थ
जैसे जलते हुए अग्नि का प्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता है और कोई दोनों के बीच में पड़ कर प्रकाश को रोक दे, ऐसे ही जो दुराचारी वेदविद्या और ब्रह्मचारी के बीच विघ्न डालकर उत्तम व्यवहार के प्रचारों को रोके, उसे लोग दण्ड देकर नाश करें ॥५७॥
टिप्पणी
५७−(यः) दुराचारी (मा) मां ब्रह्मचारिणम् (अभिच्छायम्) छाया कान्तिः म० ५६। अभिगता छाया कान्तिस्तेजो येन तं विद्वांसम् (अत्येषि) उल्लङ्घयसि (माम्) (च) (अग्निम्) अग्निवद् ज्ञानप्रकाशम्, (च) (अन्तरा) मध्ये। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५६ ॥
विषय
यज्ञों में विघ्न करने का परिणाम
पदार्थ
१. (यः) = जो तू (अभिच्छायाम्) = सौन्दर्य की ओर चल रहे, अर्थात् सुन्दर पथ का आक्रमण कर रहे (मा) = मुझे (अत्येषि) = [अति इ-subdue] दबाता है, सताता है, (तस्य ते) = उस तेरे (मूलं वृश्चामि) = मूल को मैं काट देता हूँ। वस्तुत: उत्तम पथ पर चल रहे व्यक्तियों को पीड़ित करनेवाले को समाप्त कर देना आवश्यक ही है। २. (मां च अग्रिं च अन्तरा) = मेरे और अग्नि के बीच में जो तू [अत्येषि] अतिशयेन आता है वह तू (अपरम्) = इसके बाद छायां न करव:-सौन्दर्य को करनेवाला न हो। एक व्यक्ति और अग्नि के बीच में आने का भाव है 'यज्ञों में विघ्न करना। जो भी यज्ञ करते हुए पुरुष के लिए विघ्न करनेवाला बनता है उसका सौन्दर्य समाप्त हो जाता है। वह यज्ञविहन्ता देव न रहकर असुर बन जाता है।
भावार्थ
सुन्दर पथ पर चलते हुए व्यक्ति को विहत करनेवाला नष्ट हो जाता है। यजनशील के यज्ञ का विघातक पुरुष अपने जीवन के सौन्दर्य को समाप्त कर लेता है
भाषार्थ
(यः) जो तू (अभिच्छायम्, मा) परमेश्वर की छाया अर्थात् आश्रय को प्राप्त हुए मुझ को, (अत्येषि) तिरस्कृत करता है, (च) और (माम् अग्निम् अन्तरा) मुझ और अग्नि के मध्य में अन्तराय रूप होता है, (तस्य ते) उस तेरी (मूलम्) जड़ को, अर्थात् जड़ सहित तुझे, (वृश्चामि) मैं काट देता हूं ताकि तू (अपरम्) अवर जगत् को भी (छायाम्) अपना आश्रय (न करवः) न कर सके।
टिप्पणी
[अभिच्छायम् = अभि प्राप्तः छायाम्, आश्रयम्। अत्येषि= अतिक्रमण, उल्लंघन करता है, अतिक्रान्त करता है। अग्निम्= परमात्मानम्। "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः । तदेव शुक्रन्तद्ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः ॥" (यजु० ३२।१) में अग्नि पक्ष परमेश्वरार्थक भी है। उपासक और उपास्य अग्निनामक ब्रह्म के मध्य में जो व्यक्ति अन्तराय बनता है, उस के काटने का वर्णन है]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
हे पुरुष ! (यः) जो तू (मां) मुझ गुरु को (अभिच्छायम्) अपनी छाया मुझ पर फेंकता हुआ (अत्येषि) मेरा अतिक्रमण करे और (मां अग्निम् च अन्तरा) और यदि मुझ शिष्य और अग्नि और तद्रूप आचार्य के बीच में से गुज़रे (तस्य ते) ऐसे तेरे (मूलम्) मूल को (वृश्चामि) काट डालूं जिससे तू (अपरम्) फिर ऐसा (छायाम्) अपमानजनक क्रिया (न करवः) न करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
And you that violate me in the shade of divinity, or stand between me and the yajnic fire, I dissever you from the root of life, there shall be no growth, no branch, no leaf, no shade, nothing around.
Translation
You who overshadow me and who come between me and the fire divine, I hack off your root, So that you may not cast shadow any more.
Translation
O Man If that you walk over my shadow keeping it under yours, pass between me and the fire of Yajna, I sever your root. Therefore you could not find even your shadow.
Translation
Thou who, casting his shadow on me the Guru, goest beyond me, or passest between me the pupil and the Guru refulgent like fire, thy root I sever: so that nevermore mayst thou perform such an act of ignorance.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५७−(यः) दुराचारी (मा) मां ब्रह्मचारिणम् (अभिच्छायम्) छाया कान्तिः म० ५६। अभिगता छाया कान्तिस्तेजो येन तं विद्वांसम् (अत्येषि) उल्लङ्घयसि (माम्) (च) (अग्निम्) अग्निवद् ज्ञानप्रकाशम्, (च) (अन्तरा) मध्ये। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५६ ॥
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