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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    परि॑ त्वा धात्सवि॒ता दे॒वो अ॒ग्निर्वर्च॑सा मि॒त्रावरु॑णाव॒भि त्वा॑। सर्वा॒ अरा॑तीरव॒क्राम॒न्नेही॒दं रा॒ष्ट्रम॑करः सु॒नृता॑वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । त्वा॒ । धा॒त् । स॒वि॒ता । दे॒व: । अ॒ग्नि: । वर्च॑सा । मि॒त्रावरु॑णौ । अ॒भि । त्वा॒ । सर्वा॑: । अरा॑ती: । अ॒व॒ऽक्राम॑न् । आ । इ॒हि॒। इ॒दम् । रा॒ष्ट्रम् । अ॒क॒र॒: । सू॒नृता॑ऽवत् ॥१.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि त्वा धात्सविता देवो अग्निर्वर्चसा मित्रावरुणावभि त्वा। सर्वा अरातीरवक्रामन्नेहीदं राष्ट्रमकरः सुनृतावत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । त्वा । धात् । सविता । देव: । अग्नि: । वर्चसा । मित्रावरुणौ । अभि । त्वा । सर्वा: । अराती: । अवऽक्रामन् । आ । इहि। इदम् । राष्ट्रम् । अकर: । सूनृताऽवत् ॥१.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] (सविता) प्रेरक, (देवः) प्रकाशमान (अग्निः) अग्नि [सूर्य्य आदि] ने (वर्चसा) तेज के साथ [वर्त्तमान] (त्वा) तुझको (परि) सब ओर से (धात्) धारण किया है और (मित्रावरुणौ) प्राण और अपान वायु ने (त्वा) तुझको (अभि) सब ओर से [धारण किया है]। [हे सेनापते राजन् !] (सर्वाः) सब (अरातीः) वैरी दलों को (अवक्रामन्) लतियाता हुआ तू (आ इहि)(इदम् राष्ट्रम्) इस राज्य को तूने (सूनृतावत्) सुन्दर नीतियुक्त (अकरः) बनाया है ॥२०॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार परमेश्वर सब अग्नि, सूर्य्य, वायु आदि पदार्थों को वश में करके सृष्टि का राज्य करता है, इसी प्रकार मनुष्य जितेन्द्रिय होकर विघ्नों को हटा कर आनन्द करे ॥२०॥

    टिप्पणी

    २०−(परि) (त्वा) परमेश्वरम् (धात्) अदधात्। धारितवान् (सविता) प्रेरकः (देवः) प्रकाशमानः (अग्निः) सूर्य्यादिः (वर्चसा) तेजसा (मित्रावरुणौ) प्राणापानौ (अभि) प्रति (त्वा) (सर्वाः) (अरातीः) अदानशीलाः शत्रवः (अवक्रामन्) पादेन अधोगमयन् (इह) (इदम्) (राष्ट्रम्) राज्यम् (अकरः) कृतवानसि (सूनृतावत्) सुनीतियुक्तम् ॥

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    विषय

    सूनृतावत् राष्ट्र

    पदार्थ

    १. वह (सविता देवः) = उत्पादक व प्रेरक [सविता] तथा प्रकाशमय [देव] (त्वा) = तुझे (परिधात्) = सब ओर से धारण करता है। प्रभु की प्रेरणा को सुनता और निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त होता तथा स्वाध्याय द्वारा विकासमय जीवनवाला बनना ही धारण का मार्ग है। इसी से हम कभी भी शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होते। (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु तुझे (वर्चसा) = वर्चस्-रोग निरोधक शक्ति से धारण करें। हममें आगे बढ़ने की भावना होगी तो हम रोगों से आक्रान्त होंगे ही नहीं। (मित्रावरुणौ) = स्नेह व निर्दोषता के भाव (त्वा) = तुझे (अभि) = शरीर व मस्तिष्क दोनों के दृष्टिकोण से रक्षित करें। द्वेष से उत्पन्न होनेवाले विष शरीर व मस्तिष्क पर घातक प्रभाव डालते हैं। २. इसप्रकार 'सविता, देव, अग्नि, मित्र व वरुण' की आराधना करता हुआ तू (सर्वा: अराति:) = सब शत्रुओं को अवक्रामन् नीचे पादाक्रान्त करता हुआ (एहि) = गति कर। तेरे सब कर्तव्य शत्रुओं को कुचल कर किये जाएँ। 'काम, क्रोध, लोभ' से प्रेरित होकर तेरी गति न हो। इसप्रकार (इदं राष्ट्रम्) = इस शरीररूप राष्ट्र को (सूनृतावत् अकर:) = प्रिय, दुःखनाशक सत्य [सू ऊन् ऋत] वाणीवाला कर । तेरे जीवन में सत्य-ही-सत्य हो-असत्य का अंश भी न हो।

    भावार्थ

    हम 'सविता' के आराधक बनकर निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त हों, 'देव' की आराधना करते हुए प्रकाशमय जीवनवाले बनें। आगे बढ़ने की भावना हमें तेजस्वी बनाए। स्नेह व निद्रेषिता हमारे शरीर व मस्तिष्क का धारण करें। 'काम, क्रोध, लोभ' को कुचलकर हम कर्मों में प्रवृत्त हों। हमारा जीवन सत्यमय हो।

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    भाषार्थ

    (सविता देवः) दिव्य गुणी, उत्पत्तियों का अध्यक्ष, (त्वा) तेरी (परि धात्) रक्षा-परिधि बने, या सब ओर से तेरा रक्षक और पोषक हो, (वर्चसा) तेज के साथ (अग्निः) परमेश्वर या ज्ञानाग्नि का अधिष्ठाता तेरी रक्षा परिधि बने, या सब ओर से तेरा रक्षक और पोषक बने [परित्वा धात्], (मित्रावरुणौ) मित्र और वरुण (त्वा अभि) तेरे संमुख रहें। (सर्वाः) सब (अरातीः) शत्रुओं को (अवक्रामन्) आक्रमण द्वारा नीचे करता हुआ (एहि) विजयी बन कर आ, और (इदम् राष्ट्रम्) इस राष्ट्र को (सूनृतावत्) प्रिय और सत्य वाणी वाला (अकः) कर, या तूने किया।

    टिप्पणी

    [सविता= उत्पत्तियों का, विशेष रूप से सन्तानोत्पत्तियों का अध्यक्ष। "सविता प्रसवानामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।१)। प्रसव= उत्पत्ति। मित्रावरुणो; मित्रः= राजा को "मित्रवर्धन" कहा है (अथर्व ४।८।२,६), तथा "मित्रेण मित्रधाः यतस्व" (अथर्व० २।६।४) में “मित्र के द्वारा तू "मित्रधा" बनने के लिये यत्न कर। इस प्रकार मित्रनामक अधिकारी है "पर राष्ट्रों के अधिकारियों को अपने राष्ट्रमित्र बनाने के लिये। वरुणः = यह है स्पशों का अधिकारी। स्पश् का अभिप्राय है "गुप्तचर"। यथा "दिव स्पशः प्रचरन्तीदमस्य", "संख्याता अस्य निमिषो जनानाम्" (अथर्व० ४।१६।४,५)। यद्यपि यह वर्णन परमेश्वर-वरुण सम्बन्धी है। राष्ट्रपरक अर्थ में "वरुण" गुप्तचरों का अधिकारी प्रतीत होता है। सूनृतावत् = राष्ट्रिय शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य नैतिक या सदाचार शिक्षण है। सूतृता अर्थात् "प्रिय और सत्य भाषण" की शिक्षा राष्ट्र के लिये अत्युपयोगी है। मनुस्मृति का श्लोक इस सम्बन्ध में स्मरणीय है। यथा “सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रुयात् सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मः सनातनः"]।

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (सविता देवः) सबका उत्पादक और प्रेरक प्रकाशमान, सर्वप्रद, परमेश्वर (त्वा) तेरी (परि धात्) सब ओर से रक्षा करे। (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष (वर्चसा त्वा परिधात्) अपने तेज से तेरी रक्षा करे। (मित्रावरुणौ त्वा अभि) मित्र और वरुण, स्नेहीजन और शत्रु वारक सेनापति तेरी दोनों ओर से रक्षा करें। और तू पुरुष राजा के समान (सर्वाः) समस्त (अरातीः) शत्रु सेनाओं को (अवक्रामन्) अपने नीचे पददलित करता हुआ (राष्ट्रम्) राष्ट्र को (सूनृतावत्) उत्तम, ऋत = ज्ञान और सत्यव्यवहार और सद् व्यवस्था से युक्त (अकरः) बना।

    टिप्पणी

    (प्र० द्वि०) ‘देवोग्नि’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    O man, O ruler, may self-refulgent Savita, creator and inspirer lord divine, protect, inspire and sustain you all round. May Agni, light and fire of life, bless you with valour, passion and splendour. Let Mitra and Varuna, prana and apana energies with love and judgement, with enthusiasm, maintain you with wisdom and vitality. Let all adversities and deprivations be far out of the commonwealth of humanity. And may you thus make the dominion a social embodiment of truth and law of freedom and conscience under the divine umbrella.

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    Translation

    May the divine impeller Lord, the Lord adorable, friendly and venerable, clad you with lustre all around. Overcoming all your enemies, come here and make this kingdom delightful.

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    Translation

    O strong man ! may the splendid sun be around you, may fire with its refulgent power and twain of vital breath, the Prana and apana safeguard you on all sides. You treading down all the foes and obstacles advance further. You make this kingdom pleasant and glorious the water (to evaporation process) performs its operation very nicely.

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    Translation

    May God protect thee from all sides. May a strong person full of zeal like fire protect thee. May Prana and Apana protect thee. O King, treading down all foes come hither. Make this kingdom pleasant and glorious.

    Footnote

    Thee: The King.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(परि) (त्वा) परमेश्वरम् (धात्) अदधात्। धारितवान् (सविता) प्रेरकः (देवः) प्रकाशमानः (अग्निः) सूर्य्यादिः (वर्चसा) तेजसा (मित्रावरुणौ) प्राणापानौ (अभि) प्रति (त्वा) (सर्वाः) (अरातीः) अदानशीलाः शत्रवः (अवक्रामन्) पादेन अधोगमयन् (इह) (इदम्) (राष्ट्रम्) राज्यम् (अकरः) कृतवानसि (सूनृतावत्) सुनीतियुक्तम् ॥

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