अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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यो रोहि॑तो वृष॒भस्ति॒ग्मशृ॑ङ्गः॒ पर्य॒ग्निं परि॒ सूर्यं॑ ब॒भूव॑। यो वि॑ष्ट॒भ्नाति॑ पृथि॒वीं दिवं॑ च॒ तस्मा॑द्दे॒वा अधि॒ सृष्टीः॑ सृजन्ते ॥
स्वर सहित पद पाठय: । रोहि॑त: । वृ॒ष॒भ: । ति॒ग्मऽशृ॑ङ्ग: । परि॑ । अ॒ग्निम् । परि॑ । सूर्य॑म् । ब॒भूव॑ । य: । वि॒ऽस्त॒भ्नाति॑ । पृ॒थि॒वीम् । दिव॑म् । च॒ । तस्मा॑त् । दे॒वा: । अधि॑ । सृष्टी॑: । सृ॒ज॒न्ते॒ ॥१.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रोहितो वृषभस्तिग्मशृङ्गः पर्यग्निं परि सूर्यं बभूव। यो विष्टभ्नाति पृथिवीं दिवं च तस्माद्देवा अधि सृष्टीः सृजन्ते ॥
स्वर रहित पद पाठय: । रोहित: । वृषभ: । तिग्मऽशृङ्ग: । परि । अग्निम् । परि । सूर्यम् । बभूव । य: । विऽस्तभ्नाति । पृथिवीम् । दिवम् । च । तस्मात् । देवा: । अधि । सृष्टी: । सृजन्ते ॥१.२५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (वृषभः) महाशक्तिमान् (तिग्मशृङ्गः) तीव्र तेजवाले (रोहितः) सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] ने (अग्निम्) अग्नि को (परि) सब ओर से और (सूर्यम्) सूर्य को (परि) सब ओर से (बभूव) प्राप्त किया है। (यः) जो [परमेश्वर] (पृथिवीम्) पृथिवी (च) और (दिवम्) आकाश को (विष्टभ्नाति) विविध प्रकार थाँभता है, (तस्मात्) उसी [परमेश्वर] से (देवाः) दिव्य नियम (सृष्टीः) सृष्टियों को (अधि) अधिकारपूर्वक (सृजन्ते) उत्पन्न करते हैं ॥२५॥
भावार्थ
परमेश्वर ने प्रत्यक्ष अग्नि, सूर्य आदि और सब लोकों को अपने नियम से उत्पन्न किया है, उसी की उपासना सब मनुष्य करें ॥२५॥
टिप्पणी
२५−(यः) (रोहितः) (वृषभः) महाशक्तिमान् (तिग्मशृङ्गः) तीव्रतेजाः (परि) सर्वतः (अग्निम्) प्रत्यक्षम् (परि) (सूर्यम्) आदित्यमण्डलम् (यः) (विष्टभ्नाति) विशेषेणावलम्बते (पृथिवीम्) (दिवम्) आकाशम् (च तस्मात्) परमेश्वरात् (देवाः) दिव्यनियमाः (अधि) अधिकृत्य (सृष्टीः) रचनाः। सृज्यमानान् पदार्थान् (सृजन्ते) रचयन्ति ॥
विषय
रोहितः वृषभः तिग्मशृङ्गः
पदार्थ
१. (यः) = जो प्रभु (रोहितः) = सदा प्रवृद्ध व तेजस्वी हैं (वृषभः) = सुखों का सेचन करनेवाले व (तिग्मशः) = बड़े तीक्ष्ण ज्ञानकिरणरूप शङ्गोवाले हैं, वे प्रभु ही (अग्रिं परिबभूव) = अग्नि को (समन्तात्) = व्याप्त कर रहे हैं और (सूर्यम् परि) [बभूव] = सूर्य को व्याप्त कर रहे है। वस्तुतः प्रभु ही अग्नि में तेज के रूप से रह रहे हैं और सूर्य में वे ही 'प्रभा' के रूप में हैं। 'तेजश्चास्मि विभावसौ प्रभास्मि शशिसूर्ययोः'। यः जो प्रभ दिवं पथिवीं च-द्यलोक व प्रथिवीलोक को (विष्टभ्नाति) = थामते हैं, (तस्मात्) = उस प्रभु से ही-प्रभु की शक्ति से ही और प्रभु के अधिष्ठातृत्व में ही [अधि] (देवा:) = सब देव (सृष्टी: अधि सृजन्ते) = सृष्टियों को जन्म देते हैं। 'मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्' यह चराचर जगत् प्रभु की अध्यक्षता में ही प्रकृति से उत्पन्न होता है।
भावार्थ
वे प्रभु तेजस्वी हैं, सुखों का वर्षण करनेवाले व तीव्र किरणरूप शृङ्गोंवाले हैं। अग्नि व सूर्यादि में प्रभु ही व्याप्त हो रहे हैं। वे प्रभु ही घुलोक व पृथिवीलोक का धारण करते हैं। सब देव प्रभु की अध्यक्षता में ही सृष्टियों को रचते हैं।
भाषार्थ
(यः) जो (वृषभः) सुखबर्षी, (तिग्मशृङ्गः) उग्रप्रकाश वाला (रोहितः) सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर (अग्नि परि) अग्नि के सब ओर, तथा (सूर्य परि) सूर्य के सब ओर (बभूव) विद्यमान है, अर्थात् इन दोनों में व्याप्त है या इन दोनों को घेरे हुए है। (यः) जो (पृथिवीम् दिवं च) पृथिवी और द्यौ को (विष्टभ्नाति) थामे हुए हैं, (तस्मात् अधि) उससे [ज्ञान प्राप्त करके] (देवाः) देवकोटि के शिल्पी (सृष्टीः) विविध प्रकार की सृष्टियां (सृजन्ते) रचते हैं।
टिप्पणी
[तिग्मशृङ्गः= शृङ्गाणि ज्वलतोनाम (निघं० १।१७)। सूर्यम् परि= इस से ज्ञात होता है कि मन्त्र २४ में "सूर्यस्य" पद का अर्थ परमेश्वर नहीं। देव लोग परमेश्वरीय रचनाओं को देख कर निज रचनाएँ रचते हैं]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (रोहितः) रोहित, सर्वोत्पादक (वृषभः) सबसे बलशाली, सब कामनाओं का वर्षक (तिग्मशृङ्गः) सूर्य के समान तीक्ष्ण किरणों से युक्त अथवा पापियों को तीखे साधनों से पीड़ित करने वाला, (अग्निम् परि) अग्नि से भी ऊपर और (सूर्यम् परि) सूर्य के भी ऊपर (बभूव) विद्यमान है और (यः) जो (पृथिवीम्) पृथिवी को और (दिवम् च) द्यौलोक को भी (वि स्तभ्नाति) नाना प्रकारों से थामे हुए है (तस्मात्) उस परमेश्वर से ही (देवाः) समस्त देवगण, पांचों भूत, तन्मात्राएं आदि (सृष्टीः) नाना सृष्टियों को (अधि सृजन्ते) उत्पन्न करते हैं। उसी प्रकार राजा सर्व-श्रेष्ठ, तीक्ष्ण बलवाला, सूर्य के समान तेजस्वी होकर सर्व प्राणियों के ऊपर विराजता है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘अयं रोहितो’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Rohita, self-refulgent lord supreme of infinite rays of light, most potent and generous, who rules over the fire and the sun, who sustains heaven and earth, is he, from whose power and inspiration the divine forces of nature and brilliant creative human geniuses create and shape the many forms of existence, art and science.
Translation
The bounties of Nature create the universe out of the ascendant Lord; who is the sharp-rayed showerer, and who is superior to fire and superior to the sun, and who keeps the earth and the sky firm in their proper places.
Translation
Rohita, the All-creating God who has most sharp rays and is tremendously powerful pervades and overpowers the fire and the sun. He is the power who supports firmly this earth and the heavenly region. From Him the cosmic elements effect the creation.
Translation
God, who is Almighty, and Chastiser of the sinners is higher than fire and Sun. He Who supports the sundered earth and heaven—through His grace the elements create different worlds.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२५−(यः) (रोहितः) (वृषभः) महाशक्तिमान् (तिग्मशृङ्गः) तीव्रतेजाः (परि) सर्वतः (अग्निम्) प्रत्यक्षम् (परि) (सूर्यम्) आदित्यमण्डलम् (यः) (विष्टभ्नाति) विशेषेणावलम्बते (पृथिवीम्) (दिवम्) आकाशम् (च तस्मात्) परमेश्वरात् (देवाः) दिव्यनियमाः (अधि) अधिकृत्य (सृष्टीः) रचनाः। सृज्यमानान् पदार्थान् (सृजन्ते) रचयन्ति ॥
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