अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 37
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः
छन्दः - परशाक्वरा विराडतिजगती
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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रोहि॑ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी अधि॑ श्रि॒ते व॑सु॒जिति॑ गो॒जिति॑ संधना॒जिति॑। स॒हस्रं॒ यस्य॒ जनि॑मानि स॒प्त च॑ वो॒चेयं॑ ते॒ नाभिं॒ भुव॑न॒स्याधि॑ म॒ज्मनि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरोहि॑ते । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अधि॑ । श्रि॒ते इति॑ । व॒सु॒ऽजिति॑ । गो॒ऽजिति॑ । सं॒ध॒न॒ऽजिति॑ । स॒हस्र॑म् । यस्य॑ । जनि॑मानि । स॒प्त । च॒ । वोचेय॑म् । ते॒ । नाभि॑म् । भुव॑नस्य । अधि॑ । म॒ज्मनि॑ ॥१.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
रोहिते द्यावापृथिवी अधि श्रिते वसुजिति गोजिति संधनाजिति। सहस्रं यस्य जनिमानि सप्त च वोचेयं ते नाभिं भुवनस्याधि मज्मनि ॥
स्वर रहित पद पाठरोहिते । द्यावापृथिवी इति । अधि । श्रिते इति । वसुऽजिति । गोऽजिति । संधनऽजिति । सहस्रम् । यस्य । जनिमानि । सप्त । च । वोचेयम् । ते । नाभिम् । भुवनस्य । अधि । मज्मनि ॥१.३७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(वसुजिति) निवासस्थानों के जीतनेवाले (गोजिति) विद्याओं के जीतनेवाले (संधनाजिति) संपूर्ण धन के जीतनेवाले (रोहिते) सबके उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] में (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी (अधि) अधिकारपूर्वक (श्रिते) ठहरे हुए हैं। (यस्य) जिस [परमेश्वर] के (सहस्रम्) सहस्र [असंख्य] (जनिमानि) उत्पन्न करने के कर्म (च) निश्चय करके (सप्त) सात [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] के साथ हैं, [हे परमेश्वर !] (ते) तेरे (नाभिम्) सम्बन्ध को (भुवनस्य) संसार के (मज्मनि) बल के भीतर (अधि) अधिकारपूर्वक (वोचेयम्) मैं बतलाऊँ ॥३७॥
भावार्थ
वह सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर सब लोकों का स्वामी है, उसने शरीरों को इन्द्रियों सहित बनाया है, उसी को जितेन्द्रिय योगी जन प्राप्त होकर सुखी होते हैं ॥३७॥इस मन्त्र का अन्तिम पाद ऊपर मन्त्र १४ में आया है ॥
टिप्पणी
३७−(रोहिते) म० १। (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (अधि) अधिकृत्य (श्रिते) आश्रिते (वसुजिति) निवासानां जेतरि (गोजिति) विद्यानां जेतरि (संधनाजिति) सांहितिको दीर्घः। समस्तधनानां प्रापके (सहस्रम्) बहूनि। असंख्यानि (जनिमानि) प्रजननकर्माणि (सप्त) सप्तभिस्त्वक्चक्षुःश्रोत्ररसनाघ्राणमनोबुद्धिभिः सह (च) निश्चयेन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १४ ॥
विषय
वसुजिति गोजिति सन्धनाजिति
पदार्थ
१. (रोहिते) = अतिशयेन तेजस्वी व सदावृद्ध प्रभु में ही (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक व पृथिवीलोक (अधिश्रिते) = आश्रित हैं। द्यावापृथिवी के अन्तर्गत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को वे प्रभु ही धारण कर रहे हैं, जो (वसुजिति) = वसुओं को जीतनेवाले है-हमारे लिए सब वसुओं [निवास के लिए आवश्यक पदार्थों] को प्रास करानेवाले हैं। (गोजिति) = हमारे लिए गौओं का विजय करानेवाले हैं-गौओं को प्राप्त करानेवाले हैं। अथवा [गाव: इन्द्रियाणि] हमारे लिए इन्द्रियों का विजय करनेवाले हैं-प्रभु-स्मरण ही हमें इन्द्रियों के विजय के योग्य बनाता है। (सन्धनाजिति) = वे प्रभु ही धनों का सम्यक् विजय करनेवाले हैं। प्रभु वे हैं (यस्य) = जिनके (सहस्त्रं जनिमानि) = हजारों प्रादुर्भाव हैं वे प्रभु हज़ारों लोकों का निर्माण करते हैं (च) = और उन लोकों में (सप्त) = 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' इन सात ऋषियों को जन्म देते हैं, जिनके द्वारा हमारा यह सप्तहोता यज्ञ चलता है, 'येन यज्ञस्तायते सतहोता'। हे प्रभो ! मैं (मज्मनि) = बल के निमित्त-बल प्राप्त करने के लिए (ते) = आपके द्वारा उपदिष्ट (भुवनस्य नाभिम्) = इस भुवन के केन्द्रभूत यज्ञ को 'अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः' (अधिवोचेयम्) = आधिक्येन कहूँ-जीवन से यज्ञों का ही प्रतिपादन करूँ-यज्ञनशील बनें।
भावार्थ
प्रभु ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार हैं। प्रभु ही वसुओं, गौओं व धनों का विजय करनेवाले हैं। सब लोकों को प्रभु उत्पन्न करते हैं और जीवन-यज्ञों को सम्यक् पूर्ण करने के लिए 'दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें ब मुख' को प्राप्त कराते हैं। हम बल प्रास करने के लिए सप्तहोतृक यज्ञों का विस्तार करें।
भाषार्थ
(वसुजिति) वसुओं पर विजय पाए हुए, (गोजिति) पृथिवी पर विजय पाए हुए, (संधनाजिति) समग्र धनों पर विजय पाए हुए (रोहिते अधि) सर्वोपरि आरूढ़ परमेश्वर में, (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी लोक (श्रिते) आश्रय पाए हुए हैं। (यस्य) जिस परमेश्वर के (सहस्रम्) हजारों नक्षत्र-तारा आदि (च) और (सप्त) अर्थात् सात बुध, शुक्र, पृथिवी, मंगल, बृहस्पति, शनैश्चर तथा चन्द्र या सूर्य। (जनिमानि) जन्मे पुत्रों के सदृश हैं, (ते) तेरा (नाभिम्) सम्बन्ध या केन्द्रियत्व (भुवनस्य) उत्पन्न जगत् के (मज्मनि अधि) बलों में है, (वोचेयम्) यह मैं कहूँ।
टिप्पणी
[वसु=पृथिवी, अग्नि; अन्तरिक्ष, वायु; नक्षत्र, चन्द्रमा; द्यौः, सूर्य-ये आठ वसु हैं। नाभिम्=नह, बन्धने; तथा नाभि= केन्द्र। परमेश्वर संसार के बलों का केन्द्र है। इस केन्द्र से संसार के सब बल प्रसूत हुए हैं]।
विषय
‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
(वसुजिति) समस्त प्राणियों और उनके बसने के लोकों को अपने वश करने हारे, (गोजिति) इन्द्रियों, प्राणों, समस्त सूर्य लोकों को अपने वश करने वाले और (सं धनाजिति) समस्त उत्तम धन = विभूति और ऐश्वर्यों को वश करने वाले (रोहिते) सर्वोत्पादक ‘रोहित’ परमेश्वर में (द्यावापृथिवी अधिश्रिते) द्यौ और पृथिवी लोक आश्रित हैं। (यस्य) जिसके (जनिमानि) स्वरूप (सहस्रं) सहस्र, अति बलशील या सहस्रों लोकों से युक्त समस्त विश्व और (सप्त च) सात प्राण हैं। मैं तो (भुवनस्य) समस्त कार्यसंसार के (अधि मज्मनि) अधिष्ठातृरूप बल पर (ते नाभिम्) तेरे ही केन्द्रस्थ, मुख्य बल को (वोचेयम्) कहता हूँ। राजा के पक्ष में—द्यावा पृथिवी—नरनारी और राजा प्रजा।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Heaven and earth are sustained in Rohita, self- refulgent Brahma, supreme ruler over living planets, stars and galaxies, and master of the entire wealth of matter, energy and intelligence in existence. Thousands are his created forms of life, seven the orders of universe, in the midst of the dynamics of which and over the farthest borders of which, the ruling lord is Brahma. Of that Lord and Master, of that centre-hold of existence, immanent and transcendent in and over all, I sing, That I celebrate.
Translation
The heaven and earth are upheld in the ascendant Lord, the winner of wealth, the conqueror of cows, and the winner of accumulated riches. May I speak all over the universe my kinship with you, who have a thousand and seven births.
Translation
The Earth and heavenly region are held fire on the support of the sun who is conqueror of wather, who is enriched with rays, who has all splendour, who bears thousand and seven rays. I, the Scientist say that central force of sun is (active) in the glory of the universe.
Translation
God, the Conqueror of the worlds in which men inhabit, the Conqueror of luminary plants, the Conqueror ofriches, is heaven’s and earth’s upholder. Whose countless acts of creation are connected with seven organs. O God, over earth’s greatness would I tell my kinship with Thee !
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३७−(रोहिते) म० १। (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (अधि) अधिकृत्य (श्रिते) आश्रिते (वसुजिति) निवासानां जेतरि (गोजिति) विद्यानां जेतरि (संधनाजिति) सांहितिको दीर्घः। समस्तधनानां प्रापके (सहस्रम्) बहूनि। असंख्यानि (जनिमानि) प्रजननकर्माणि (सप्त) सप्तभिस्त्वक्चक्षुःश्रोत्ररसनाघ्राणमनोबुद्धिभिः सह (च) निश्चयेन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १४ ॥
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