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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 54
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    गी॒र्भिरू॒र्ध्वान्क॑ल्पयि॒त्वा रोहि॑तो॒ भूमि॑मब्रवीत्। त्वयी॒दं सर्वं॑ जायतां॒ यद्भू॒तं यच्च॑ भा॒व्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गी॒ऽभि: । ऊ॒र्ध्वान् । क॒ल्प॒यि॒त्वा। रोहि॑त: । भूमि॑म् । अ॒ब्र॒वी॒त् । त्वयि॑ । इ॒दम् । सर्व॑म् । जा॒य॒ता॒म् । यत् । भू॒तम् । यत् । च॒ । भा॒व्य᳡म् ॥१.५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गीर्भिरूर्ध्वान्कल्पयित्वा रोहितो भूमिमब्रवीत्। त्वयीदं सर्वं जायतां यद्भूतं यच्च भाव्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गीऽभि: । ऊर्ध्वान् । कल्पयित्वा। रोहित: । भूमिम् । अब्रवीत् । त्वयि । इदम् । सर्वम् । जायताम् । यत् । भूतम् । यत् । च । भाव्यम् ॥१.५४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 54
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (गीर्भिः) वेदवाणियों द्वारा (ऊर्ध्वान्) ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों को (कल्पयित्वा) रचकर (रोहितः) सबका उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (भूमिम्) भूमि से (अब्रवीत्) बोला−“(त्वयि) तुझ पर (इदम् सर्वम्) यह सब (जायताम्) उत्पन्न होवे, (यत्) जो कुछ (भूतम्) उत्पन्न है, (च) और (यत्) जो कुछ (भाव्यम्) उत्पन्न होनेवाला है” ॥५४॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने अपने नित्य वेदज्ञान द्वारा सब पर्वत आदि बनाकर सृष्टि के निवास के लिये भूमि को बनाया ॥५४॥

    टिप्पणी

    ५४−(गीर्भिः) वेदवाग्भिः (ऊर्ध्वान्) उन्नतान् पर्वतान् (कल्पयित्वा) सृष्ट्वा (रोहितः) परमेश्वरः (भूमिम्) (अब्रवीत्) अवदत् (त्वयि) भूम्याम् (इदम्) प्रत्यक्षम् (सर्वम्) (जायताम्) उत्पद्यताम् (यत्) (भूतम्) उत्पन्नं वर्तते (यत्) (च) (भाव्यम्) भवतेर्ण्यत्। उत्पत्स्यमानम् ॥

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    विषय

    यज्ञों की आधारभूत यह 'भूमि'

    पदार्थ

    १. (गीर्भिः) = वेदवाणियों के द्वारा (ऊर्ध्वान् कल्पयित्वा) = यज्ञस्तम्भों के रूप में ऊपर खड़े हुए पर्वतों को रचकर (रोहितः) = उस तेजस्वी, सदावृद्ध प्रभु ने भूमि (अब्रवीत्) = इस वेदिरूप भूमि से कहा कि हे भूमे ! (इदं सर्वम्) = यह सब (यत् भूतम्) = जो हुआ है (यत् च भाव्यम्) = और जो होना है, वह सब (त्वयि जायताम्) = तुझमें सम्पन्न हो। २. इस सृष्टियज्ञ की वेदि यह भूमि ही है। 'हो चुका व होनेवाला' सब यज्ञ इस वेदि में ही होते हैं। 'भवन्ति भूतानि यस्याम्', जिसमें सब प्राणी होते हैं, वही तो भूमि है। एवं, यही भूमि भूत व भाव्य सब यज्ञों का आधार है।

    भावार्थ

    सब सृष्टियज्ञ इस पृथिवीरूप वेदि पर ही होता है।

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    भाषार्थ

    (गीर्भिः) वाणियों या शब्दों के साथ [पर्वतों को] (ऊर्ध्वान् कल्पयित्वा) ऊंचे रच कर, (रोहितः) सर्वोपरि आरुढ़ परमेश्वर (भूमिम्) भूमि को (अब्रवीत्) बोला कि (त्वयि) तुझ में (इदं सर्वम्) यह सब [प्राणी और अप्राणी] (जायताम्) पैदा हो, (यद् भूतम्) जो कि वर्तमान है या पूर्व कल्पों में हुआ है, (यत् च भाव्यम्) और जो होने वाला है, या होगा।

    टिप्पणी

    [मन्त्र कविता शैली का है, परमेश्वर, वास्तव में, भूमि को बोलता नहीं।]

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    विषय

    ‘रोहित’ रूप से परमात्मा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    (गीर्भिः) अपनी उद्गिरण करने वाली शक्तियों से (ऊर्ध्वान्) उच्च प्रदेशों को (कल्पयित्वा) रचकर (रोहितः) सर्वोत्पादक परमात्मा (भूमिम्) भूमि के प्रति (अब्रवीत्) कहता है कि (यद् भूतं) जो उत्पन्न हुए और (यत् च भाव्यम्) जो उत्पन्न होने योग्य पदार्थ हैं (इदं सर्वम्) यह सर्व (त्वयि) तुझ में ही (जायताम्) उत्पन्न हों।

    टिप्पणी

    (च०) ‘भव्यम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रोहित आदित्यो देवता। अध्यात्मं सूक्तम्। ३ मरुतः, २८, ३१ अग्निः, ३१ बहुदेवता। ३-५, ९, १२ जगत्यः, १५ अतिजागतगर्भा जगती, ८ भुरिक्, १६, १७ पञ्चपदा ककुम्मती जगती, १३ अति शाक्वरगर्भातिजगती, १४ त्रिपदा पुरः परशाक्वरा विपरीतपादलक्ष्म्या पंक्तिः, १८, १९ ककुम्मत्यतिजगत्यौ, १८ पर शाक्वरा भुरिक्, १९ परातिजगती, २१ आर्षी निचृद् गायत्री, २२, २३, २७ प्रकृता विराट परोष्णिक्, २८-३०, ५५ ककुम्मती बृहतीगर्भा, ५७ ककुम्मती, ३१ पञ्चपदा ककुम्मती शाक्वरगर्भा जगती, ३५ उपरिष्टाद् बृहती, ३६ निचृन्महा बृहती, ३७ परशाक्वरा विराड् अतिजगती, ४२ विराड् जगती, ४३ विराड् महाबृहती, ४४ परोष्णिक्, ५९, ६० गायत्र्यौ, १, २, ६, ७, १०, ११, २०, २४, २५, ३२-३४, ३८-४१, ४२-५४, ५६, ५८ त्रिष्टुभः। षष्ट्यचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Having created the high mountains with the hymns of Veda, Rohita, lord of life and light, spoke to earth: On you and in you may arise the life forms of all that ever was and whatever is yet to be.

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    Translation

    Making high mountains with the words, the ascendant Lord said to the earth : “let all this, whatsoever there is and : whatsoever is yet to be, be bor on you."

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    Translation

    All-creating Divinity making the clouds high in the sky with lightning thunder made indicative to the earth. Let whatever in the earth is as past, present and future be made.

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    Translation

    Then having made the hills stand up, God spoke to Earth and said : In thee let every thing be born, what is and what is yet to be

    Footnote

    The language is metaphorical. God spoke means God ordained.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५४−(गीर्भिः) वेदवाग्भिः (ऊर्ध्वान्) उन्नतान् पर्वतान् (कल्पयित्वा) सृष्ट्वा (रोहितः) परमेश्वरः (भूमिम्) (अब्रवीत्) अवदत् (त्वयि) भूम्याम् (इदम्) प्रत्यक्षम् (सर्वम्) (जायताम्) उत्पद्यताम् (यत्) (भूतम्) उत्पन्नं वर्तते (यत्) (च) (भाव्यम्) भवतेर्ण्यत्। उत्पत्स्यमानम् ॥

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