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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त
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    ऋ॒तस्य॒ पन्था॒मनु॑ ति॒स्र आगु॒स्त्रयो॑ घ॒र्मा अनु॒ रेत॒ आगुः॑। प्र॒जामेका॒ जिन्व॒त्यूर्ज॒मेका॑ रा॒ष्ट्रमेका॑ रक्षति देवयू॒नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तस्य॑ । पन्था॑म् । अनु॑ । ति॒स्र: । आ । अ॒गु॒: । त्रय॑: । ध॒र्मा: । अनु॑ । रेत॑: । आ । अ॒गु॒: । प्र॒ऽजाम् । एका॑ । जिन्व॑ति । ऊर्ज॑म् । एका॑ । रा॒ष्ट्रम् । एका॑ । र॒क्ष॒ति॒ । दे॒व॒ऽयू॒नाम् ॥९.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतस्य पन्थामनु तिस्र आगुस्त्रयो घर्मा अनु रेत आगुः। प्रजामेका जिन्वत्यूर्जमेका राष्ट्रमेका रक्षति देवयूनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतस्य । पन्थाम् । अनु । तिस्र: । आ । अगु: । त्रय: । धर्मा: । अनु । रेत: । आ । अगु: । प्रऽजाम् । एका । जिन्वति । ऊर्जम् । एका । राष्ट्रम् । एका । रक्षति । देवऽयूनाम् ॥९.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (तिस्रः) तीन [देवियाँ अर्थात् १−इडा स्तुतियोग्य भूमि वा नीति, २−सरस्वती प्रशस्त विज्ञानवाली विद्या वा बुद्धि, ३−और भारती पोषण करनेवाली शक्ति वा विद्या] (ऋतस्य) सत्य शास्त्र के (पन्थाम् अनु) पथ पर (आ अगुः) चलती आयी हैं और (त्रयः) तीन (घर्माः) सींचनेवाले यज्ञ [अर्थात् देवपूजा, संगतिकरण और दान] (रेतः अनु) वीरता के साथ-साथ (आ अगुः) चलते आये हैं। (एका) एक [इडा] (प्रजाम्) प्रजा को (एका) एक [सरस्वती] (ऊर्जम्) पुरुषार्थ वा अन्न को (जिन्वति) भरपूर करती हैं, (एकाः) एक [भारती] (देवयूनाम्) दिव्यगुण प्राप्त करनेवाले [धर्म्मात्माओं] के (राष्ट्रम्) राज्य की (रक्षति) रक्षा करती है ॥१३॥

    भावार्थ

    धर्म्मात्मा पुरुषार्थी पुरुष वेदमार्ग पर चल कर पुरुषार्थपूर्वक प्रजा और राज्य की रक्षा करते हैं ॥१३॥ तीन देवियों के विषय में देखो-अ० ५।३।७। और ५।१२।८ ॥

    टिप्पणी

    १३−(ऋतस्य) सत्यशास्त्रस्य, वेदस्य (पन्थाम्) पन्थानम् (अनु) अनुसृत्य (तिस्रः) तिस्रो देव्यः, इडासरस्वतीभारत्यः-अ० ५।३।७। तथा ५।१२।८। (आ अगुः) आगतवत्यः (त्रयः) देवपूजासंगतिकरणदानरूपाः (घर्माः) सेचकव्यवहारा यज्ञाः-निघ० ३।१७। (अनु) अनुलक्ष्य (रेतः) वीर्यम्। पुरुषार्थम् (आ अगुः) आगतवन्तः (प्रजाम्) सन्तानभृत्यादिरूपाम् (एका) इडा (जिन्वति) तर्पयति (ऊर्जम्) ऊर्ज बलप्राणनयोः-क्विप्। पुरुषार्थम्। अन्नम्-निघ० २।७। (एका) सरस्वती (राष्ट्रम्) राज्यम् (एका) भारती (रक्षति) पाति (देवयूनाम्) अ० ४।२१।२। दिव्यगुणप्रापकानाम्। धर्मात्मनाम् ॥

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    विषय

    ऋतु+रतस्

    पदार्थ

    १. (ऋतस्य पन्थाम् अनु) = ऋत के [ठीक समय व ठीक स्थान पर कार्य करने के] मार्ग पर चलने के पश्चात् (तिस्त्र:) =  [तिस्रो देवीर्मयो भुव:-'इडा सरस्वती मही'] तीन कल्याणकर दिव्य भावनाएँ 'इडा, सरस्वती और मही [भारती]'(आगु:) = प्राप्त होती हैं। 'इडा' प्रभु स्तवन की वाणी है, 'सरस्वती' विद्या है तथा 'मही वा भारती' शरीर का उचित भरण है। इन देवियों का आराधन मनुष्य को वासनाओं के आक्रमण से बचाकर शरीर में रेतस् के रक्षण के योग्य बनाता है। (रेत: अनु) = रेतस् का रक्षण होने पर (प्रयः धर्मा:) = तीन यज्ञ-देवपूजा, संगतिकरण व दान (आगु:) = मानव-जीवन में प्राप्त होते हैं। २. (एका) = पूर्वोक्त तीन देवियों में से एक 'इडा' प्रभु की स्तुतिवाणी (प्रजा जिन्वती) = प्रजा को उत्तम प्रेरणा [to impel] प्राप्त कराती है। घर में माता-पिता को प्रभुस्तवन में प्रवृत्त देखकर सन्तानों को उत्तम प्रेरणा मिलती है। (एका) = एक 'सरस्वती' (ऊर्जं) [जिन्वती] = शरीर में बल व प्राणशक्ति का सञ्चार करती है। (एका) = एक 'मही'-शरीरों के उचित पोषण की वृत्तिवाले (देवयूनाम्) = दिव्य गुणों को अपने साथ जोड़ने की कामनावाले युवकों के सहारे (राष्ट्रं रक्षति) = राष्ट्र का रक्षण करती है। राष्ट्र के व्यक्तियों के स्वस्थ व त्यागशील [देवो दानात्] होने पर राष्ट्र कभी शत्रुओं से पराजित नहीं होता।

    भावार्थ

    हम वेदोपदिष्ट ऋत के मार्ग पर चलते हुए प्रभुस्तबन, ज्ञान व शक्ति सम्भरण' को प्राप्त हों। शरीर में शक्ति का रक्षण करते हुए 'देवपूजा, संगतिकरण व दान की वृत्ति' वाले बनें। परिणामतः 'उत्तम सन्तानोंवाले, उत्तम प्राणशक्तिवाले व उत्तम राष्ट्रवाले' हों।

     

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    भाषार्थ

    (ऋतस्य) सत्यस्वरूप परमेश्वर के दर्शाए (पन्थाम्, अनु) पथ के अनुसार (तिस्रः) तीन शक्तियां (आ अगुः) आई हुई हैं, (त्रयः) तीन (घर्मा) प्रदीप्त तत्त्व (रेतः अनु) परमेश्वरीय कामना१ के अनुसार [पथ पर] (अगुः) आए हुए हैं। (एका) शक्तियों में से एक (प्रजाम्) प्रजा को (जिन्वति) प्रीणित करती है, (एका) दूसरी एक (ऊर्जम्) बल और प्राण के दाता अन्न को प्रीणित करती है, (एका) तीसरी एक (देवयूनाम्) दिव्यगुणों तथा दिव्यकोटि के जनों को चाहने वाले प्रजाजनों के (राष्ट्रम्) राष्ट्र की (रक्षति) रक्षा करती है।

    टिप्पणी

    [जब समग्र संसार परमेश्वर के दर्शाए मार्ग पर चलता है, और मनुष्य निज अवाञ्छनीय कृत्यों द्वारा संसार को भ्रष्ट तथा गन्दा नहीं करते, तब तीन तात्त्विक शक्तियां और तीन प्रदीप्त तत्त्व संसार का वस्तुतः उपकार और समुन्नति करने लगते हैं। तीन तात्त्विक शक्तियां हैं पृथिवी, वर्षा और तीसरी "सरस्वती" अर्थात् ज्ञानविज्ञान वाली वेदविद्या। तथा तीन प्रदीप्त तत्त्व हैं, पार्थिव अग्नि, अन्तरिक्षीय मेघस्था विद्युत् और सूर्य। पृथिवी तो निवासस्थान और अन्न के उत्पादन द्वारा समग्र प्रजा को तृप्त करती है, इतना उत्पादन कर देती है कि कोई प्राणी अन्नाभाव का अनुभव नहीं करता "ऊर्क२ अन्ननाम" (निघं० २।७) । तथा वर्षा, पृथिवी के उत्पादन में सहायक होती है। वर्षा द्वारा पैदा होता तथा अन्न में रस का संचार होता है। अन्न द्विविध है, स्थूल अन्न और रसरूप अन्न। तीसरी तात्त्विक शक्ति है सरस्वती। जब राष्ट्रस्थ मनुष्य राष्ट्र को दिव्य बनाना चाहते हैं तब वह वेदोपदिष्ट मार्ग द्वारा ही राष्ट्र को रक्षा कर सकते हैं, अन्यथा युद्धों, उपद्रवों, महामारियों और कष्टों द्वारा राष्ट्र का विनाश हो जाता है। राष्ट्ररक्षा होते तीन प्रदीप्त तत्त्व भी निजकार्यों को यथावत् करने लगते हैं। पार्थिव अग्नि प्रत्येक घर की पाकशाला में अन्न का पाक करने लगती है, किसी के घर की पार्थिव अग्नि अन्नाभाव के कारण अप्रज्वलित नहीं रहती, मेघस्था विद्युत् नियमानुसार वर्षा करती, और सूर्य नियमपूर्वक ताप और प्रकाश देने लगता है। घर्माः= घृ क्षरणदीप्त्योः (जुहोत्यादिः)। सरस्वती = सरो विज्ञानं विद्यतेऽस्यां सा सरस्वती वाक् (उणादि० ४।१९०। महर्षि दयानन्द)] [१. रेतस्= कामना। परमेश्वर की कामना अर्थात् इच्छा उसका मानसिक रेतस् है (ऋ० १०।१२९।४); तथा मन्त्र १० की व्याख्या। २. ऊर्ज बलप्राणनयोः (चुरादिः)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat Brahma

    Meaning

    Three aspects of Nature, which is divine Shakti, proceed and follow their course of action in pursuance of the laws of Rtam, eternal Law of Divinity. Three creative vitalities proceed and follow their course of action in pursuance of the creative desire of Divinity. One animates, impels and promotes the children of nature with self-fulfilment. Another creates and sustains the dynamics of existence for life with energy. And yet another watches, preserves, promotes and rules the social order of people dedicated to Divinity by the divine law. (This mantra is highly symbolic, it is like a scientific formula which can be interpreted in accordance with the reader’s own awareness of Nature. Three aspects of Nature are: Sattva, thought transparence and sense of discrimination; Rajas, energy, motion, velocity; Tamas, matter, inertia, stability. Three Gharmas or creative vitalities are light of the heavenly regions, electric energy of the middle regions, and fire energy of the earthly regions. They can be termed as Ida, sarasvati and Mahi (Rg. 1,13,9), or as Tisro Vachah (Rg. 9,97, 34). Another version is: Mantra Shakti, Tantra Shakti, and Yantra Shakti, or the Law, the Dynamics, and the Structures. Of the three regions: Earth gives us food and sustenance, sky gives us rain, and the Heavens give us light. All the three sustain life, each in its own way, with its own power.)

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    Translation

    All the three follow the path of the eternal law. Three heats come after the seed (being deposited). One promotes the progeny, one promotes the vigour; and one defends the domain of the pious (people).

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    Translation

    Three powers—Right thinking, right action and right speech (in other words—Ida, Sarasvati and Bharati or Mantrashakti, Yantrashakti and Tantrashakti) follow the path of eternal truth and three gharms the sacrifice, organization and worship go together in conformity to the seed power of them. One of them quickens the spirit in the subject, one strengthen the vitality of the nation and one protects the kingdom of the-men of science, statesmanship and philosophy.

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    Translation

    He who follows the teachings of the Vedas, develops his three physical, mental and spiritual forces. The duties of the Brahmchari Grihastha and Banprastha orders can be fully discharged through heroism alone. Out of these three forces, one quickens progeny, one strengthens vigour and one protects the kingdom of the pious.

    Footnote

    The word three has been interpreted differently by different commentators. Pt. Jaidev interprets it as Adhiatmic, Adhibhautik and Adhidevik forces. Pt. Khem Kara Das Trivedi interprets it as Ida, Saraswati and Bharti, i.e., statesmanship, Intellect and knowledge. Mr. Griffith interprets it as Dawn, Sunlight and Night. Sayana interprets it as Fire, Sun and Moon. I have accepted the interpretation of Pt. Damodar Satvalekar.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(ऋतस्य) सत्यशास्त्रस्य, वेदस्य (पन्थाम्) पन्थानम् (अनु) अनुसृत्य (तिस्रः) तिस्रो देव्यः, इडासरस्वतीभारत्यः-अ० ५।३।७। तथा ५।१२।८। (आ अगुः) आगतवत्यः (त्रयः) देवपूजासंगतिकरणदानरूपाः (घर्माः) सेचकव्यवहारा यज्ञाः-निघ० ३।१७। (अनु) अनुलक्ष्य (रेतः) वीर्यम्। पुरुषार्थम् (आ अगुः) आगतवन्तः (प्रजाम्) सन्तानभृत्यादिरूपाम् (एका) इडा (जिन्वति) तर्पयति (ऊर्जम्) ऊर्ज बलप्राणनयोः-क्विप्। पुरुषार्थम्। अन्नम्-निघ० २।७। (एका) सरस्वती (राष्ट्रम्) राज्यम् (एका) भारती (रक्षति) पाति (देवयूनाम्) अ० ४।२१।२। दिव्यगुणप्रापकानाम्। धर्मात्मनाम् ॥

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