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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - विराट् सूक्त
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    यो अक्र॑न्दयत्सलि॒लं म॑हि॒त्वा योनिं॑ कृ॒त्वा त्रि॒भुजं॒ शया॑नः। व॒त्सः का॑म॒दुघो॑ वि॒राजः॒ स गुहा॑ चक्रे त॒न्वः परा॒चैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अक्र॑न्दयत् । स॒लि॒लम् । म॒हि॒ऽत्‍वा । योनि॑म् । कृ॒त्वा । त्रि॒ऽभुज॑म् । शया॑न: । व॒त्स: । का॒म॒ऽदुघ॑: । वि॒ऽराज॑: । स: । गुहा॑ । च॒क्रे॒ । त॒न्व᳡: । प॒रा॒चै: ॥९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अक्रन्दयत्सलिलं महित्वा योनिं कृत्वा त्रिभुजं शयानः। वत्सः कामदुघो विराजः स गुहा चक्रे तन्वः पराचैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अक्रन्दयत् । सलिलम् । महिऽत्‍वा । योनिम् । कृत्वा । त्रिऽभुजम् । शयान: । वत्स: । कामऽदुघ: । विऽराज: । स: । गुहा । चक्रे । तन्व: । पराचै: ॥९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्रिभुजम्) तीन भुजावाला, [ऊँचे नीचे और मध्यलोकरूप] (योनिम्) घर (कृत्वा) बनाकर (यः शयानः) जिस सोते हुए ने (महित्वा) अपनी महिमा से (सलिलम्) व्याप्तिवाले [अगम्य देश] को (अक्रन्दयत्) पुकारा। (सः) उस (कामदुघः) कामनापूरक, (वत्सः) बोलनवाले [परमेश्वर] ने (विराजः) विविध ईश्वरी [प्रकृति] की (गुहा) गुहा में [अपने] (तन्वः) विस्तारों को (पराचैः) दूर-दूर तक (चक्रे) किया ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने प्रलय, सृष्टि और अवसान में विराजमान होकर अपनी अगम्य शक्ति द्वारा प्रकृति में चेष्टा देकर विविध संसार रचा है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यः) परमेश्वरः (अक्रन्दयत्) क्रदि आह्वाने रोदने च-लङ्। आहूतवान् (सलिलम्) म० १। व्यापनस्वभावम्। अगम्यदेशम् (महित्वा) महत्त्वेन (योनिम्) गृहम्-निघ० ३।४। (कृत्वा) रचयित्वा (त्रिभुजम्) उच्चनीचमध्यलोकत्रयरूपभुजयुक्तम् (शयानः) शयनं गतः (वत्सः) म० १ वदिता (कामदुघः) दुह प्रपूरणे-कप्। अ० ४।३४।८। अभीष्टपूरकः (विराजः) म० १। विविधैश्वर्याः। प्रकृतेः (सः) ईश्वरः (गुहा) गुहायाम्। हृदये (चक्रे) कृतवान् (तन्वः) विस्तृतीः (पराचैः) दूरदूरम् ॥

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    विषय

    त्रिभुज् योनि

    पदार्थ

    १. प्रभु वे हैं (यः) = जोकि (महित्वा) = अपनी महिमा से (सलिलम्) = इस सलिलरूपा प्रकृति को (अक्रन्दयत्) = गर्जना-सी कराते हैं-इस अणु-समुद्ररूप प्रकृति में विक्षोभ पैदा करते हैं। वे प्रभु इस (त्रिभुजम्) = सत्व, रजस्व तमरूप त्रिगुणों का पालन करनेवाली प्रकृति को (योनि कृत्वा) = घर सा बनाकर (शयान:) = निवास कर रहे हैं। यह प्रकृति प्रभु की योनि है, प्रभु इसमें गर्भ धारण करते हैं, तब यह सम्पूर्ण संसार आविर्भूत होता है। २. यह जीव उस (कामदुषः) = सब कामनाओं को पूरण करनेवाले (विराजः) = विशिष्ट दीप्तिवाले प्रभु का (वत्स:) = वत्स है-पुत्र है। (सः) = वह वत्स [जीव] (पराचैः) = [परा अञ्च] बहिर्गमनों से-प्रकृति के विषयों में फंसने से (तन्वः गुहा चक्रे) = शरीररूप संवरणों [hiding places] को उत्पन्न कर लेता है। यदि जीव विषयों में न भटके तो उसे पुन: इस तनुरूप गुहा में न आना पड़े।

    भावार्थ

    प्रभु प्रकृति को विक्षुब्ध करते हैं तभी सृष्टि उत्पन्न होती है। प्रभु इस त्रिगुणमयी प्रकृति को योनि बनाकर रह रहे हैं। जीव कामनाओं के पूरक विराट् प्रभु का वत्स है। यह विषयों में भटकने के कारण शरीररूप संवरणों [कैदखानों] को प्राप्त किया करता है।

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    भाषार्थ

    (योनिम) घर को (त्रिभुजम्) तीन भुजाओं वाला (कृत्वा) कर के (शयानः) उस में शयन करते हुए (यः) जिस ने (महित्वा) निज महिमा द्वारा (सलिलम्१) प्रकृति तत्वरूप सलिल को (अक्रन्दयत्) आक्रन्दन युक्त किया, गर्जना युक्त किया और जो (कामदुधः विराजः) कामना का दोहन करने वाली विराट् अर्थात् विराजमान, विशेषेण दीप्यमान प्रकृति का (वत्सः) वत्सरूप है, या उसमें बसा हुआ है (सः) उस परमेश्वर ने (गुहा) गुह्यस्थानों में अज्ञात स्थानों में (पराचैः) दूर-दूर तक (तन्वः) विस्तृत लोक-लोकान्तरों को (चक्रे) उत्पन्न किया है।

    टिप्पणी

    [योनिः गृहनाम (निघं० ३।४)। त्रिभुजयोनिः= प्रकृति, बद्धजीव, और मुक्तजीव, ये जगत् की तीन भुजाएं हैं, इस त्रिभुज में परमेश्वर शयन कर रहा है, और शयन करता हुआ इनमें व्यवस्था कर रहा है। गौ से दूध मिलता है उसके वत्स के कारण। संसाररूपी विराट् से सुखसम्पत्तिरूपी दुग्ध मिलता है परमेश्वररूपी वत्स के कारण। प्रकृति से जब संसार पैदा हुआ तब प्रकृति में विशेष प्रकार का आक्रन्दन हुआ था (आक्रन्दयत्)]। [१. "सति ब्रह्मणि लीनम्" प्रलय में सद्ब्रह्म में लीन प्रकृति तत्व (ऋ० १०।१२९।३) यथा 'सर्व सलिलमा इदम्'।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat Brahma

    Meaning

    The One that rested in his own Infinity in the absolute state, with his own power, called up and stirred the ocean of Prakrti to activity, converting it to three- dimensional universal Motherhood state of Sattva, Rajas and Tamas, i.e., thought, energy and matter, himself pervading it. That same self evolute of the potential Absolute, objective correlative of creative desire, that mysterious One, creates universal forms in thought and materialises them through Prakrti.

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    Translation

    He, who makes the Ocean roar with his might and who sleeps making a three-tired (tribhujam) abode (for himself), is the calf of Viraj, the milch-cow fulfilling all the desires. Secretly He makes the bodies in remotest distance. (Three tired abode = heaven, midspace and earth)

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    Translation

    He who created three-fold localities and pervading in them disturbed matter, the material cause of the universe through His greatness or mighty power. He, as the calf of virat, the matter that is to fulfill the all desires of creation, created the bodies of the world in the space which are far off.

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    Translation

    God agitates Matter. Preparing a threefold home through His greatness, He pervades all objects. God, the Fulfiller of all wishes, the Enveloper of Matter, creates in the atmosphere, vast distant worlds.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यः) परमेश्वरः (अक्रन्दयत्) क्रदि आह्वाने रोदने च-लङ्। आहूतवान् (सलिलम्) म० १। व्यापनस्वभावम्। अगम्यदेशम् (महित्वा) महत्त्वेन (योनिम्) गृहम्-निघ० ३।४। (कृत्वा) रचयित्वा (त्रिभुजम्) उच्चनीचमध्यलोकत्रयरूपभुजयुक्तम् (शयानः) शयनं गतः (वत्सः) म० १ वदिता (कामदुघः) दुह प्रपूरणे-कप्। अ० ४।३४।८। अभीष्टपूरकः (विराजः) म० १। विविधैश्वर्याः। प्रकृतेः (सः) ईश्वरः (गुहा) गुहायाम्। हृदये (चक्रे) कृतवान् (तन्वः) विस्तृतीः (पराचैः) दूरदूरम् ॥

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