अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 21
ऋषिः - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
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अ॒ष्ट जा॒ता भू॒ता प्र॑थम॒जर्तस्या॒ष्टेन्द्र॒र्त्विजो॒ दैव्या॒ ये। अ॒ष्टयो॑नि॒रदि॑तिर॒ष्टपु॑त्राष्ट॒मीं रात्रि॑म॒भि ह॒व्यमे॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ष्ट । जा॒ता । भू॒ता । प्र॒थ॒म॒ऽजा । ऋ॒तस्य॑ । अ॒ष्ट । इ॒न्द्र॒ । ऋ॒त्विज॑: । दैव्या॑: । ये । अ॒ष्टऽयो॑नि: । अदि॑ति: । अ॒ष्टऽपु॑त्रा: । अ॒ष्ट॒मीम् । रात्रि॑म् । अ॒भि । ह॒व्यम् । ए॒ति॒ ॥९.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अष्ट जाता भूता प्रथमजर्तस्याष्टेन्द्रर्त्विजो दैव्या ये। अष्टयोनिरदितिरष्टपुत्राष्टमीं रात्रिमभि हव्यमेति ॥
स्वर रहित पद पाठअष्ट । जाता । भूता । प्रथमऽजा । ऋतस्य । अष्ट । इन्द्र । ऋत्विज: । दैव्या: । ये । अष्टऽयोनि: । अदिति: । अष्टऽपुत्रा: । अष्टमीम् । रात्रिम् । अभि । हव्यम् । एति ॥९.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(अष्ट) आठ [महत्तत्त्व, अहंकार, पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश और मन से सम्बन्धवाले] (जाता) उत्पन्न (भूता) जीव (प्रथमजा) आदिकारण [प्रकृति] से प्रकट हैं, (ये) जो (अष्ट) आठ [चार दिशा और चार विदिशा में स्थित], (इन्द्र) हे जीव ! (ऋतस्य) सत्य नियम के (ऋत्विजः) सब ऋतुओं में देनेवाले (दैव्याः) दिव्य गुणवाले [पदार्थ हैं]। (अष्टयोनिः) [यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, इन] आठ से संयोगवाली, (अष्टपुत्रा) [अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व और कामावसायिता, इन आठ ऐश्वर्यरूप] आठ पुत्रवाली (अदितिः) अखण्ड [विराट् ईश्वरशक्ति] (अष्टमीम्) व्याप्त [जगत्] को नापनेवाली (रात्रिम् अभि) रात्रि [विश्राम देनेवाली मुक्ति] में (हव्यम्) स्वीकारयोग्य [सुख] [मनुष्य को] (एति) पहुँचाती हैं ॥२१॥
भावार्थ
संसार के बीच पुरुषार्थी योगी जन परमात्मा की ईश्वरता में स्थिरचित्त होकर ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं ॥२१॥
टिप्पणी
२१−(अष्ट) महत्तत्त्वाहंकारपञ्चभूतमनोभिः संबद्धानि (जाता) उत्पन्नानि (भूता) भूतानि। जीवाः (प्रथमजा) प्रथमात् कारणाज्जातानि (ऋतस्य) सत्यनियमस्य (अष्ट) दिग्भिश्चावान्तरदिग्भिश्च सह स्थिताः (इन्द्र) हे जीव (ऋत्विजः) अ० ६।२।१। ये ऋतौ ऋतौ यजन्ति ददति ते (दैव्याः) दिव्यगुणाः पदार्थाः (अष्टयोनिः) अष्ट+यु मिश्रणामिश्रणयोः-नि। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि-योगदर्शने २।२९। एतैः सह संयुक्ता (अष्टपुत्रा) अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा ईशित्वं च वशित्वं च तथा कामावसायिता। इत ऐश्वर्याणि पुत्रसदृशानि यस्याः सा (अष्टमीम्) अशू व्याप्तौ-क्त। अष्टं व्याप्तं जगत् माति, मा-क। व्याप्तस्य जगतः परिमात्रीम् (रात्रिम्) अ० १।१६।१। रात्रिः कस्मात् प्ररमयति भूतानि नक्तंचारीण्युपरमयतीतराणि ध्रुवीकरोति रातेर्वा स्याद् दानकर्मणः प्रदीयन्तेऽस्यामवश्यायाः-निरु० २।१८। विश्रामदात्रीं मुक्तिम् (अभि) अभीत्य (हव्यम्) हु आदाने-यत्। ग्राह्यं सुखम् (एति) अन्तर्गतो णिच्। आययति। गमयति ॥
विषय
अष्ट
पदार्थ
१. ('भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनोबुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥') = के अनुसार (अष्ट भूता जाता) = आठ पदार्थ प्रकट हुए। ये (ऋतस्य प्रथमजा) = ऋत के प्रथम प्रादुर्भाव थे। प्रभु के दीस तप से ऋत का प्रादुर्भाव हुआ। ऋत से 'पञ्चभूतों, मन, बुद्धि व अहंकार' इन आठ का प्रादुर्भाव हुआ। हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष। ये (अष्ट) = आठ वे हैं (ये) = जो (दैव्या: ऋत्विजः) = उस देव प्रभु के द्वारा जीवन-यज्ञ को चलाने के लिए उत्पादित किये गये हैं। 'पञ्चभूतों, मन, बुद्धि व अहंकार' को जीवन-यज्ञ के ऋत्विजों के रूप में देखने से जीवन कितना पवित्र बनता है ! २. वस्तुतः यह (अदितिः) = अविनाशी प्रकृति (अष्टयोनि:) = इन आठ का घर है। ये आठों ऋत्विज् इस प्रकृतिरूप घर में ही रहते हैं। इसी से यह प्रकृति (अष्टपुत्र:) = इन आठ पुत्रोंवाली कहलाती है। रात्रि संयच्छन्दः' य०१५।५ के अनसार रात्रि संयच्छन्द है संयम की प्रबल अभिलाषा से जब मनुष्य पृथिवी आदि का संयम करते हुए अन्ततः (अष्टमी रात्रिम्) = अहंकार का आठवें स्थान में संयम करता है तब वह (हव्यं अभि एति) = उस अर्पणीय प्रभु को प्राप्त होता है। अहंकार का विजय करके ही हम प्रभु को प्राप्त होते हैं। यजुर्वेद २६.१ में ('अष्टमी भूतसाधनी') = ऐसा कहा है। यह अष्टमी जीवों को सिद्धि प्राप्त करानेवाली है।
भावार्थ
प्रभु ने ऋत का प्रादुर्भाव करके 'पञ्चभूतों, मन, बुद्धि व अहंकार' इन आठ का प्रादुर्भाव किया। ये आठ ही जीवन-यज्ञ के ऋत्विज् है। प्रकृति इन्हीं आठ पुत्रोंवाली है। मनुष्य एक-एक करके जब आठवें स्थान पर अहंकार पर भी विजय प्राप्त कर लेता है, तब प्रभु को प्राप्त होता है।
भाषार्थ
(ऋतस्य) सत्यस्वरूप परमेश्वर सम्बन्धी (प्रथमजा) प्रथम पैदा होने वाले (भूता) सत्पदार्थ (अष्टजाता) आठ पैदा हुए थे। (इन्द्र) हे इन्द्र ! (अष्ट ऋत्विजः) ये आठ ऋत्विक् हैं (ये) जो (दैव्याः) देव सम्बन्धी हैं। (अष्टयोनिः) आठ योनियों वाली (अदितिः) प्रकृति (अष्टपुत्रा) आठपुत्रों वाली है, जो कि (अष्टमीम्, रात्रिम् अभि) आठवीं रात्रि को लक्ष्य करके (हव्यम्) हवि को (एति) प्राप्त होती है।
टिप्पणी
[अदितिः = प्रकृति, जो कभी क्षीण नहीं होती [अ + दीङ्क्षये]। इस के आठपुत्र पैदा हुए। यथा - अष्टौ पुत्रासो अदितेर्ये जातास्तन्व१स्परि। देवाँ उप प्रैत्सप्तभिः परा मार्ताण्डमास्यत् ॥ (ऋ० १०।७२।८)। सप्तभिः पुत्रैरदितिरुप प्रैत्पूर्व्यं युगम्। प्रजायै मृत्यवे त्वत्पुनर्मार्ताण्डमाभरत् ॥ (ऋ० १०।७२।९)। अदिति के शरीर से जो आठ पुत्र पैदा हुए थे, उनमें से ७ पुत्रों द्वारा वह द्युलोकस्थ द्युति वाले तारागण आदि को प्राप्त हुई, और मार्तण्ड अर्थात् आदित्य को उसने परे फैंका (ऋक् १०।७२।८)। अभिप्राय यह कि अदिति के सात पुत्र हैं, सात ग्रह- बुध, शुक्र, पृथिवी, मंगल, गुरु [बृहस्पति], शनैश्चर। ये सातों या पृथिवी का उपग्रह चाँद तो रात्रि काल में द्युलोक में समय-समय पर यह दृष्टिगोचर होते रहते हैं, यह हैं अदिति का ७ पुत्रों सहित द्युलोक में जाना उपस्थित होना। परन्तु आठवां पुत्र मार्तण्ड [सूर्य] रात्रिकाल में दृष्टिगोचर नहीं होता, यह है उसका परे फैंकना (१०।७२।८)। तथा पूर्व युग में अदिति ७ पुत्रों समेत हुई, और प्रजा की उत्पत्ति तथा मृत्यु के लिये एक मार्तण्ड को अदिति ने पैदा किया। प्राणियों की उत्पत्ति और मृत्यु का विशेष सम्बन्ध मार्तण्ड के साथ है, अतः अदिति ने मार्तण्ड को भी पैदा किया। बुध आदि ७ पुत्र यद्यपि मार्तण्ड से ही पैदा हुए हैं, परन्तु रात्रिकाल में सात की दृष्टिगोचरता और दृष्टिगोचर न होने वाले सूर्य के इस भेद को दर्शाने के लिये इन में परस्पर पार्थक्य दर्शाया है (१०।७२।९)। इन्द्र द्वारा जीवात्मा का सम्बोधन किया है। अष्ट ऋत्विजः= ये ही ८, दैव्य ८ ऋत्विक हैं जो कि सौरमण्डलरूपी यज्ञ को रचा रहे हैं। अष्टयोनिः = आठ को पैदा करने वाली योनि से सम्बद्ध अदिति। अष्टमीम्, रात्रिम् – यह अष्टमी-रात्री कौन सो रात्री है, जिसे अभिलक्ष्य करके अदिति हव्य को प्राप्त होती है - यह अनुसंधेय है। सम्भवतः यह "एकाष्टका-रात्री" हो, जिस में कि हव्य प्रदान किया जाता है, हव्य की आहुतियां दी जाती हैं। इस एकाष्टका रात्री का वर्णन एकाष्टका-सूक्त में हुआ है (अथर्व० ३।१०।१-३)। परन्तु इस सूक्त में, अदिति का कथन नहीं हुआ। “भूतस्य पतये यजे" (९, १०) में भूतपति के लिये, तथा देवों के लिये (११) यज्ञ का विधान हुआ है। सूक्त ९।२१ में "दैव्याः" पद द्वारा देवों का निर्देश हुआ है। वे सम्भवतः एकाष्टका-सूक्त मन्त्र (११) में "देवान् ” पद द्वारा अभीष्ट हों परन्तु “भूतस्य पतिः" परमेश्वर ही प्रतीत होता है। अदिति परमेश्वर की जायारूप से अर्धाङ्गिनी है, अतः परमेश्वरार्पित हवि, अर्धाङ्गिनी रूप में अदिति को भी प्राप्त समझी जा सकती है। एकाष्टका-सूक्त, ९वें सूक्त की समाप्ति पर "परिशिष्ट" रूप में दे दिया है]।]
इंग्लिश (4)
Subject
Virat Brahma
Meaning
Eight are the material variations of Prakrti, material cause of the universe. They are the first born of Prakrti from her dynamic state according to the laws of Rtam, and they are the divine conductors of the yajna of creation (with the individual soul at the micro level and with Ishvara at the macro level). And Prakrti, imperishable mother of eightfold creativity and eight evolutionary forms, having run its creative course, recedes into its primal state of potentiality whence it can be invoked again for the next cycle of creative evolution. O Jiva, Indra, this is your story too.
Translation
Eight are the beings born (that are) first-born of the eternal law. O resplendent one, eight are the divine priests. Aditi (the earth) has eight wombs; she has eight sons as-well. On the eighth night the sacrificial supplies are obtained.
Translation
O Indra ! (Individual soul) these eight elements—five cognitive organs, mind, intellect and ego, first norn in order of the cosmic creation are the eight celestial or elementary priests or forces to conduct the process of creation. The eternal matter (Aditi) is thus known as Ashtauoni, the material causes of these eight elements and Ashtaputra; the mother of eight -Adityas (which are the scientific names of these eight elements). At Ratri, the dissolution which devours all the objects of the world (Asith Ashtami) the material cause of the universe (Aditi) takes away the world in it.
Translation
Eight elements sprang up, first born of Matter. O soul, these are the eight divine forces, which contribute to the creation, sustenance and dissolution of the world. Eight are the stages for the acquisition of God, and eight His protecting powers. His infinite power takes man to salvation the giver of tranquility.
Footnote
Eight elements: Intellect, Ego, Earth, Water, Fire, Air, Atmosphere, Mind. Eight stages: Varma, Niyama, Asana, Pranayama,.Pratahar, Dharma, Dhyana, Smadhi. Protecting powers: Minuteness, (अणिमा) Lightness (लघुमा) Acquisition (प्राप्ति) Freedom of will (पराकाम्य) Greatness, Glory, (महिमा) Supremacy (ईशित्व) , Power (वशिख).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(अष्ट) महत्तत्त्वाहंकारपञ्चभूतमनोभिः संबद्धानि (जाता) उत्पन्नानि (भूता) भूतानि। जीवाः (प्रथमजा) प्रथमात् कारणाज्जातानि (ऋतस्य) सत्यनियमस्य (अष्ट) दिग्भिश्चावान्तरदिग्भिश्च सह स्थिताः (इन्द्र) हे जीव (ऋत्विजः) अ० ६।२।१। ये ऋतौ ऋतौ यजन्ति ददति ते (दैव्याः) दिव्यगुणाः पदार्थाः (अष्टयोनिः) अष्ट+यु मिश्रणामिश्रणयोः-नि। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि-योगदर्शने २।२९। एतैः सह संयुक्ता (अष्टपुत्रा) अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा ईशित्वं च वशित्वं च तथा कामावसायिता। इत ऐश्वर्याणि पुत्रसदृशानि यस्याः सा (अष्टमीम्) अशू व्याप्तौ-क्त। अष्टं व्याप्तं जगत् माति, मा-क। व्याप्तस्य जगतः परिमात्रीम् (रात्रिम्) अ० १।१६।१। रात्रिः कस्मात् प्ररमयति भूतानि नक्तंचारीण्युपरमयतीतराणि ध्रुवीकरोति रातेर्वा स्याद् दानकर्मणः प्रदीयन्तेऽस्यामवश्यायाः-निरु० २।१८। विश्रामदात्रीं मुक्तिम् (अभि) अभीत्य (हव्यम्) हु आदाने-यत्। ग्राह्यं सुखम् (एति) अन्तर्गतो णिच्। आययति। गमयति ॥
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