अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 23
ऋषिः - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
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अ॒ष्टेन्द्र॑स्य॒ षड्य॒मस्य॒ ऋषी॑णां स॒प्त स॑प्त॒धा। अ॒पो म॑नु॒ष्या॒नोष॑धी॒स्ताँ उ॒ पञ्चानु॑ सेचिरे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ष्ट । इन्द्र॑स्य । षट् । य॒मस्य॑ । ऋषी॑णाम् । स॒प्त । स॒प्त॒ऽधा । अ॒प: । म॒नु॒ष्या᳡न् । ओष॑धी: । तान् । ऊं॒ इति॑ । पञ्च॑ । अनु॑ । से॒चि॒रे॒ ॥९.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
अष्टेन्द्रस्य षड्यमस्य ऋषीणां सप्त सप्तधा। अपो मनुष्यानोषधीस्ताँ उ पञ्चानु सेचिरे ॥
स्वर रहित पद पाठअष्ट । इन्द्रस्य । षट् । यमस्य । ऋषीणाम् । सप्त । सप्तऽधा । अप: । मनुष्यान् । ओषधी: । तान् । ऊं इति । पञ्च । अनु । सेचिरे ॥९.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(यमस्य) नियमवान् (इन्द्रस्य) जीव की (अष्ट) आठ [चार दिशा और चार विदिशायें], (षट्) छह [वसन्त, घाम, वर्षा, शरद्, शीत और शिशिर ऋतुएँ-अ० ६।५५।२], और (ऋषीणाम्) इन्द्रियों के (सप्त) सात [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि-अ० ४।११।९] (सप्तधा) [उनकी शक्तियों सहित] सात प्रकार से [हितकारक हैं] (अपः) कर्म और (ओषधीः) ओषधियों [अन्न आदि वस्तुओं] ने (तान्) उन [विद्वान्] (मनुष्यान्) मनुष्यों को (उ) ही (पञ्च अनु) [पृथिवी आदि] पाँच भूतों के पीछे-पीछे (सेचिरे) सींचा है ॥२३॥
भावार्थ
नियमवान् पुरुष, सब स्थानों और सब कालों में सब इन्द्रिय और सब पदार्थों से यथावत् उपकार लेकर पूर्वजों के समान उन्नति करता है ॥२३॥
टिप्पणी
२३−(अष्ट) पूर्वादिदिशा विदिशाश्च (इन्द्रस्य) जीवस्य (षट्) अ० ६।५५।२। वसन्ताद्यृतवः (यमस्य) यमो यच्छतीति सतः-निघ० १०।१९। नियमवतः (ऋषीणाम्) अ० ४।१९।९। त्वक्चक्षुरादीनाम् (सप्त) षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी-निरु० १२।३७। (सप्तधा) सप्तप्रकारेण स्वशक्तिभिः सह (अपः) कर्म-निघ० २।१। (मनुष्यान्) (ओषधीः) अन्नादिपदार्थाः (तान्) (उ) एव (पञ्च) पृथिव्यादिभूतानि (अनु) अनुसृत्य (सेचिरे) षच समवाये सेके च। सिक्तवत्यः। वर्द्धितवत्यः ॥
विषय
इन्द्र, यम, ऋषि
पदार्थ
१. (इन्द्रस्य अष्ट) = जितेन्द्रिय पुरुष के शरीर के उपादानभूत पाँचों भूतांशों तथा 'मन, बुद्धि व अहंकार' को (यमस्य षट्) = संयत जीवनवाले पुरुष के पाँचों ज्ञानेन्द्रियों व मन को, (ऋषीणाम्) = [ऋष् tokill] वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुषों के (सप्तधा सप्त) = सात-सात प्रकार से विभक्त होकर कार्य करनेवाले, अर्थात् उनचास मरुतों [प्राणों] को (पञ्च अनुसेचिरे) = पाँचों तत्त्व [पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश] अनुकूला से समवेत होते हैं, परिणामतः इन्द्र के आठ, यम के छह तथा ऋषियों के ये उनचास पदार्थ ठीक बने रहते हैं, अपना-अपना कार्य ठीक प्रकार से करते हैं। २. (उ) = और (अपः मनुष्यान् ओषधी:) = उन मनुष्यों को जिनमें कि एक ओर जल हैं [अप:] और दूसरी ओर ओषधियाँ, (तान्) = उन्हें (उ) = भी ये पाँच अनुकूलता से सेवन करनेवाले होते हैं। मनुष्य का खान-पान यदि जल व ओषधियाँ ही रहें तो पाँचों तत्त्वों के ठीक रहने से उसका स्वास्थ्य ठीक बना रहता है। यहाँ वेद ने मनुष्य को बड़ी सुन्दरता से संकेत किया है कि जल तेरे दक्षिण हस्त में हो तो ओषधियाँ वाम हस्त में, अर्थात् तुझे पानी पीना है और वानस्पतिक भोजन का ही सेवन करना है। अन्यत्र यही भाव ('पयः पशूनां रसमोषधीनाम्') = इन शब्दों में व्यक्त किया गया है कि तुझे पशुओं का दूध ही लेना है, मांस नहीं।
भावार्थ
हम जितेन्द्रिय [इन्द्र], नियन्त्रित जीवनवाले [यम] व वासनाओं का संहार करनेवाले [ऋषि] बनें। जलों व ओषधियों से ही शरीर का पोषण करें, मांस से नहीं। ऐसा होने पर हमें पञ्चभूतों की अनुकूलता से पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त होगा।
भाषार्थ
(इन्द्रस्य) इन्द्र सम्बन्धी (अष्ट) ८ हैं (यमस्य) यम सम्बन्धी (षट्) ६ हैं, (ऋषीणाम्) ऋषियों सम्बन्धी (सप्त सप्तधा) सात प्रकार के सात [सप्तक] है। (तान्) उन (अपः) जलों, (मनुष्यान्) मनुष्यों (ओषधीः) ओषधियों को (पञ्च) पांच (अ) ऋतुओं के अनुसार (सेचिरे) सींचते हैं।
टिप्पणी
["अष्ट" पद द्वारा मन्त्र (२१) के तत्व निर्दिष्ट किये हैं। उन तत्वों में "अष्ट" पद द्वारा अष्ट ऋत्विजः, अष्टभूता, अष्टयोनिः अष्टपुत्रा अदिति और अष्टमी रात्रिम् को निर्दिष्ट किया है और साथ ही इन्द्र का भी कथन हुआ है। "षड़ यमस्य" द्वारा मन्त्र (१७) के तत्त्व निर्दिष्ट किये हैं। "यम" पद द्वारा (मन्त्र १७) में निर्दिष्ट तत्त्वों के नियन्ता परमेश्वर द्वारा उन तत्त्वों का नियमन सूचित किया है। "सप्त सप्तधा" द्वारा "सप्तगृध्राः" को सूचित किया है (मन्त्र १८)। और “पञ्च" पद द्वारा मन्त्र (१५) के तत्त्वों को निर्दिष्ट किया है। तथा "अपः मनुष्यान् और ओषधीः" इन्हें (मन्त्र १५) में "दोहाः" पद द्वारा सूचित किया है। इस प्रकार (मन्त्र २३)– मन्त्र १५ से २२ तक के विषयों का उपसंहार अर्थात् संग्रहरूप है। "ऋषीणाम्" का यह अभिप्राय है कि जिन्हें आर्षदृष्टि प्राप्त है वे ही 'सप्त सप्तधा" के वास्तविक तत्वों का सम्यक्-ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। यथा "नैषु प्रत्यक्षमस्त्यनृषेरतपसो वा पारोवर्यवित्सु खलु वेदितृषु भूयोविद्यः प्रशस्यो भवति" (निरुक्त १३।१।१२) अर्थात् इन वेदमन्त्रों में उसे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता जो न तो ऋषि है, और न तपस्वी। तो भी परलोक और अवरलोक सम्बन्धी पराविद्या और अपरा विद्या के जानने वालों में, जिसे नाना विद्याओं का ज्ञान है, वह मन्त्रार्थों के समझने में अधिक प्रशस्त होता है"। निरुक्त में “तपः" का अभिप्राय शारीरिक "तपः" नहीं, अपितु सतत स्वाध्यायरूपी "तपः" है। तभी कहा है कि "स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः" (योग २।४४), अर्थात् वेद के स्वाध्याय करने से मन्त्रों में प्रतिपाद्य देवों के साथ सम्बन्ध प्राप्त हो जाता है, अर्थात् वेद प्रतिपाद्य विषयों को सम्यक् जाना जा सकता है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Virat Brahma
Meaning
Eightfold physical complex of nature in the human version, six seasons of the year in relation to earth and the sun, sevenfold mind-sense complex of human intelligence, all waters and dynamics of nature and the herbal complex, all these as the five pranas sustain and maintain humanity.
Translation
Eight to the resplendent Lord, six to the controller Lord, seven into seven to the seers, and the number five follows waters, men and plants.
Translation
The five elements are watering existence and growth of the six organs of the soul, six elements of the body, seven activities of the seven organs, seven organs including mind and intellect, water, human beings assuming bodies and all kinds of herbs.
Translation
Eight directions and mid-directions, six seasons, organs with their sevenfold inherent powers are the benefactors of a self-controlled soul. Five elements lend vigour to all deeds, men and herbs.
Footnote
Eight directions: North, East, South, West and four mid-directions. Sevenfold powers: Touch, Sight, Smell, Hearing, Thought, Perception. Five elements: Earth, Water, Fire, Air and Atmosphere.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२३−(अष्ट) पूर्वादिदिशा विदिशाश्च (इन्द्रस्य) जीवस्य (षट्) अ० ६।५५।२। वसन्ताद्यृतवः (यमस्य) यमो यच्छतीति सतः-निघ० १०।१९। नियमवतः (ऋषीणाम्) अ० ४।१९।९। त्वक्चक्षुरादीनाम् (सप्त) षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी-निरु० १२।३७। (सप्तधा) सप्तप्रकारेण स्वशक्तिभिः सह (अपः) कर्म-निघ० २।१। (मनुष्यान्) (ओषधीः) अन्नादिपदार्थाः (तान्) (उ) एव (पञ्च) पृथिव्यादिभूतानि (अनु) अनुसृत्य (सेचिरे) षच समवाये सेके च। सिक्तवत्यः। वर्द्धितवत्यः ॥
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