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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 24
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त
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    केव॒लीन्द्रा॑य दुदु॒हे हि गृ॒ष्टिर्वशं॑ पी॒यूषं॑ प्रथ॒मं दुहा॑ना। अथा॑तर्पयच्च॒तुर॑श्चतु॒र्धा दे॒वान्म॑नु॒ष्याँ॒ असु॑रानु॒त ऋषी॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    केव॑ली । इन्द्रा॑य । दु॒दु॒हे । हि । गृ॒ष्टि: । वश॑म् । पी॒यूष॑म् । प्र॒थ॒मम् । दुहा॑ना । अथ॑ । अ॒त॒र्प॒य॒त् । च॒तुर॑: । च॒तु॒:ऽधा: । दे॒वान् । म॒नु॒ष्या᳡न् । असु॑रान् । उ॒त । ऋषी॑न् ॥९.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    केवलीन्द्राय दुदुहे हि गृष्टिर्वशं पीयूषं प्रथमं दुहाना। अथातर्पयच्चतुरश्चतुर्धा देवान्मनुष्याँ असुरानुत ऋषीन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    केवली । इन्द्राय । दुदुहे । हि । गृष्टि: । वशम् । पीयूषम् । प्रथमम् । दुहाना । अथ । अतर्पयत् । चतुर: । चतु:ऽधा: । देवान् । मनुष्यान् । असुरान् । उत । ऋषीन् ॥९.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रथमम्) पहिले से (दुहाना) पूर्ति करती हुई, (केवली) अकेली (गृष्टिः) ग्रहणयोग्य [विराट्] ने (हि) ही (इन्द्राय) जीव के लिये (वशम्) प्रभुता और (पीयूषम्) अमृत [अन्न, दुग्ध आदि] (दुदुहे) पूर्ण कर दिया है (अथ) तब उस [विराट्] ने (चतुर्धा) चार प्रकार से [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष द्वारा] (चतुरः) चारों (देवान्) विजय चाहनेवालों, (मनुष्यान्) मननशीलों, (असुरान्) बुद्धिमानों (उत) और (ऋषीन्) ऋषियों [धर्म के साक्षात् करनेवालों] को (अतर्पयत) तृप्त किया है ॥२४॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने अपनी शक्ति से प्राणियों के पालन के लिये उनके कर्म अनुसार सब सामग्री उपस्थित करके उनके पुरुषार्थ द्वारा उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का भागी बनाया है ॥२४॥

    टिप्पणी

    २४−(केवली) एकैव (इन्द्राय) जीवहिताय (दुदुहे) पूरितवती (हि) एव (गृष्टिः) अ० २।१३।३। ग्रह-क्तिच्, पृषोदरादिरूपम्। ग्राह्या विराट् (वशम्) प्रभुत्वम् (पीयूषम्) अ० ८।३।१७। अमृतम्। अन्नदुग्धादिकम् (प्रथमम्) अग्रे (दुहाना) प्रपूरयन्ती (अथ) अनन्तरम् (अतर्पयत्) तर्पितवती (चतुरः) (चतुर्धा) चतुष्प्रकारेण धर्मार्थकाममोक्षद्वारा (देवान्) विजिगीषून् (मनुष्यान्) मननशीलान् (असुरान्) अ० १।१०।१। प्रज्ञावतः-निरु० १०।३४। (उत) अपि (ऋषीन्) अ० २।६।१। साक्षात्कृतधर्माणः पुरुषान् ॥

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    विषय

    देव, मनुष्य, असुर, ऋषि

    पदार्थ

    १. वेदवाणी 'केवली' है [के+वल] आनन्दमय प्रभु में विचरण करनेवाली है। यह (इन्द्राय दुदुहे) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए दुही जाती है। (हि) = निश्चय से (गृष्टि:) = यह वेदवाणीरूप (सकृत प्रसूता गौ) = सृष्टि के प्रारम्भ में जिसका एक बार ही ज्ञान दे दिया जाता है, वह वेदधेनु (वशम्) = कमनीय-चाहने योग्य, (प्रथमम्) = सर्वोत्कृष्ट व विस्तृत (पीयूषम्) = ज्ञानामृत का (दुहाना) = प्रपूरण करती है। २. (अथ) = अब यह (देवान् मनुष्यान् असुरान् उत ऋषीन्) = देव, मनुष्य, असुर और ऋषि इन (चतुः) = चारों को (चतुर्धा अतर्पयत्) = चार प्रकार से तृप्त करती है। ब्रह्मचर्याश्रम में विचरनेवाले-ज्ञान की स्पर्धा में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की भावनावाले विजिगीषु [दिव् विजिगीषायाम्] ब्रह्मचारियों को प्रकृतिज्ञान [ऋग्वेद द्वारा] देती हुई प्रीणित करती है। गृहस्थ में मननपूर्वक कर्म करनेवाले मनुष्यों को [यजुर्वेद के द्वारा] कर्तव्य-कर्मों का उपदेश देती हुई तृप्त करती है। अब प्राणसाधना में प्रवृत्त [असुषु रमन्ते] वानप्रस्थों को [सामवेद द्वारा] प्रभु के उपासन में प्रवृत्त करती हुई आनन्दित करती है तथा अन्तत: सब वासनाओं का संहार करनेवाले ऋषिभूत संन्यासियों को यह ब्रह्मवेद [अथर्ववेद] के द्वारा ब्रह्म के समीप प्राप्त कराती है, तब यह संन्यस्त वाचस्पति बनकर नीरोग व निर्द्वन्द्व बनता है-लोगों को भी यह ऐसा बनने का ही उपदेश करता है।

    भावार्थ

    प्रभु के द्वारा सृष्टि के आरम्भ में जिसका ज्ञान दिया गया है, वह वेदवाणी हमें "कमनीय, व्यापक, अमृतमय ज्ञान प्रास कराती है। यह हमें 'देव, मनुष्य, असुर [प्राणसाधक] व ऋषि' बनाती हुई सफल जीवनवाला करती है।

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    भाषार्थ

    (केवली) सेवनीया (गृष्टिः) गौ (वशम्) कान्तिमय (पीयूषम्) पेय दुग्धामृत को (दुहाना) देती हुई, (प्रथमम्) पहिले (इन्द्राय) इन्द्र के लिये (हि) ही (दुदुहे) दोही जाती है। (अथ) तदनन्तर (देवान्, मनुष्यान्, असुरान्, उत ऋषीन्) देवों, मनुष्यों, असुरों, और ऋषियों (चतुरः) इन चारों को (चतुर्धा) दुग्ध को चतुर्विध विभक्त करके (अतर्पयत्) तृप्त करती है।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह कि गौ के कान्तिमय, पेयदुग्धामृत पर, प्रथम इन्द्र का अधिकार है। इन्द्र अर्थात् परमैश्वर्यवान् परमेश्वर के लिये पहिले दुग्धाहुतियां देनी चाहिये। तदनन्तर उस के चार विभाग कर के (देवान्) देवयज्ञ द्वारा देवों को, तत्पश्चात् मनुष्यों को, असुरों को, तथा ऋषियों को तृप्त करना चाहिये। केवली= केवृ सेवने (भ्वादिः) वशम् = वश कान्तौ (अदादिः) तथा "किं ते कृण्वन्ति कीकटेषु गावः" (ऋ० ३।५३। १४) की भावना मन्त्र (२४) में प्रतीत होती है। गृष्टिः= A young cow (आप्टे)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat Brahma

    Meaning

    Only the ever youthful Nature as Mother Cow, prime source of life and sustenance, yields the delicious milk of life for the human soul for the fourfold fulfilment of Dharma, Artha, Kama and Moksha for all the four types of people: divine, creative, average and even negative personalities.

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    Translation

    The heifer yields milk solely for the resplendent Lord, supreme control and the nectar being her first beastings (prathamam duhana). Thereafter, she gratifies in four ways the four - (i) the devah, (ii) the men (manusya), (iii) the life-enjoyers (asura), and (iv) the seers (rsis).

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    Translation

    This Virat (tenacious matter) like a lonely cow having her newly born calf yielding the first things gives controlling power and: worldly enjoyment, This virat satisfy Devas, the learned men, the ordinary men, the men deprived of humaanity, and the seers who are the four divisions of men made by qualities.

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    Translation

    Just as a cow on her first delivery yields her sweet milk for her first born calf, so does Matter, first yield beautiful immortal pleasure to the emancipated soul, and then satisfies, in four ways. The four categories of victory-minded, reflective, intellectual, religious-minded persons.

    Footnote

    Four ways: Dharma, Arth, Kama, Moksha. भोगापवर्गाथं हष्यम्! Sankhya Sutra.Matter is the source of worldly enjoyment as well as of salvation Mr. Griffith considers this Hymn to be unintelligible. He has not been to grasp the real sense of this hymn, which beautifully describes the powers of God and Matter. It is regrettable that the Western scholars generally fail to understand the Vedic verses correctly.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(केवली) एकैव (इन्द्राय) जीवहिताय (दुदुहे) पूरितवती (हि) एव (गृष्टिः) अ० २।१३।३। ग्रह-क्तिच्, पृषोदरादिरूपम्। ग्राह्या विराट् (वशम्) प्रभुत्वम् (पीयूषम्) अ० ८।३।१७। अमृतम्। अन्नदुग्धादिकम् (प्रथमम्) अग्रे (दुहाना) प्रपूरयन्ती (अथ) अनन्तरम् (अतर्पयत्) तर्पितवती (चतुरः) (चतुर्धा) चतुष्प्रकारेण धर्मार्थकाममोक्षद्वारा (देवान्) विजिगीषून् (मनुष्यान्) मननशीलान् (असुरान्) अ० १।१०।१। प्रज्ञावतः-निरु० १०।३४। (उत) अपि (ऋषीन्) अ० २।६।१। साक्षात्कृतधर्माणः पुरुषान् ॥

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