अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
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वै॑श्वान॒रस्य॑ प्रति॒मोपरि॒ द्यौर्याव॒द्रोद॑सी विबबा॒धे अ॒ग्निः। ततः॑ ष॒ष्ठादामुतो॑ यन्ति॒ स्तोमा॒ उदि॒तो य॑न्त्य॒भि ष॒ष्ठमह्नः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒रस्य॑ । प्र॒ति॒ऽमा । उ॒परि॑ । द्यौ: । याव॑त् । रो॑दसी॒ इति॑ । वि॒ऽब॒बा॒धे । अ॒ग्नि: । तत॑: । ष॒ष्ठात् । आ । अ॒मुत॑: । य॒न्ति॒ । स्तोमा॑: । उत् । इ॒त: । य॒न्ति॒ । अ॒भि । ष॒ष्ठम् । अह्न॑: ॥९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरस्य प्रतिमोपरि द्यौर्यावद्रोदसी विबबाधे अग्निः। ततः षष्ठादामुतो यन्ति स्तोमा उदितो यन्त्यभि षष्ठमह्नः ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानरस्य । प्रतिऽमा । उपरि । द्यौ: । यावत् । रोदसी इति । विऽबबाधे । अग्नि: । तत: । षष्ठात् । आ । अमुत: । यन्ति । स्तोमा: । उत् । इत: । यन्ति । अभि । षष्ठम् । अह्न: ॥९.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(उपरि) ऊपर विराजमान (वैश्वानरस्य) सब नरों के हितकारी [परमेश्वर] की (प्रतिमा) प्रतिमा [आकृति समान] (द्यौः) आकाश है, (यावत्) जितना कि (अग्निः) अग्नि [सर्वव्यापक परमेश्वर] ने (रोदसी) सूर्य और पृथिवी लोक को (विबबाधे) अलग-अलग रोका है। (ततः) उसी के कारण (अमुतः) उस (षष्ठात्) छठे [परमेश्वर म० ४] से (अह्नः) दिन [प्रकाश] के (स्तोमाः) स्तुतियोग्य गुण [सृष्टिकाल में] (आ यन्ति) आते हैं, और (इतः) यहाँ से (षष्ठम् अभि) छठे [परमेश्वर] की ओर [प्रलय समय] (उत् यन्ति) ऊपर जाते हैं ॥६॥
भावार्थ
आकाशसमान सर्वव्यापक और पञ्चभूतों की अपेक्षा छठे [म० ४] परमेश्वर ने सूर्य पृथिवी आदि लोकों को प्राणियों के उपकार के लिये अलग-अलग किया है, उसके ही सामर्थ्य से प्रकाश आदि प्रकट और लुप्त होते हैं ॥६॥ परमेश्वर आकाशसमान व्यापक है, जैसा कि यजुर्वेद−४०।१७। का वचन है [खं ब्रह्म] सबका रक्षक ब्रह्म आकाश [के तुल्य व्यापक है] ॥
टिप्पणी
६−(वैश्वानरस्य) अ० १।१०।१४। सर्वनरहितस्य (प्रतिमा) अ० ३।१०।३। आकृतिवत् (उपरि) सर्वोपरि विराजमानस्य (द्यौः) आकाशः (यावत्) यत्परिमाणम् (रोदसी) अ० ४।१।४। द्यावापृथिव्यौ (विबबाधे) पृथग् रुरुधे (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (ततः) तस्मात् कारणात् (षष्ठात्) म० ४। पञ्चभूतापेक्षया षष्ठात्परमेश्वरात् (अमुतः) पूर्वोक्तात् (आयन्ति) आगच्छन्ति (स्तोमाः) स्तुत्यगुणाः (उद्यन्ति) उद्गच्छन्ति (इतः) अस्माल्लोकात् (अभि) प्रति (षष्ठम्) ब्रह्म (अह्नः) दिनस्य। प्रकाशस्य ॥
विषय
वैश्वानर
पदार्थ
१. (वैश्वानरस्य) = सब नरों के हितकारी व सबका नयन करनेवाले प्रभु की (प्रतिमा) = माप [extent, measure] विस्तार वहाँ तक है, (यावत् उपरि द्यौ:) = जहाँ तक ऊपर धुलोक है। (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु (रोदसी विबबाधे) = द्यावापृथिवी का आलोडन करनेवाले हैं। २. (ततः अमुतः षष्ठात्) = उस छठे [मन्त्र चार में] दूरतम [दूरात् सुदूरे] प्रभु से (स्तोमा:) = प्राण [शत० ८।४।२।३ प्राणा वै स्तोमा:] (आयन्ति) = चारों ओर आते हैं, अर्थात् दूर-से-दूर स्थित प्रभु सब प्राणियों में प्राणों का सञ्चार करते हैं। वे प्रभु जोकि (अह्नः) = [अहन्] कभी नष्ट होनेवाले नहीं, इन प्राणों को प्राप्त कराते हैं, और (इत: उत्) = यहाँ से ऊपर उठकर-शरीर से निकलकर (षष्ठं अभियन्ति) = ये प्राण पुनः उस छठे प्रभु की ओर चले जाते हैं।
भावार्थ
वैश्वानर प्रभु सर्वत्र व्याप्त हैं। प्रभु ही सर्वत्र प्राणों का सञ्चार करते हैं, और ये प्राण फिर-मृत्यु होने पर, प्रभु की ओर चले जाते हैं।
भाषार्थ
(वैश्वानरस्य) सब नर-नारी रूप प्राणियों के हितकारी परमेश्वराग्नि का (प्रतिमा) प्रतिरूप है (उपरि द्यौः) ऊपर की द्यौः। (अग्निः) वह वैश्वानर अग्नि (यावत्) जहाँ तक (रोदसी) पृथिवी-और-द्यौः फैले हुए हैं। वहां तक (विबबाधे) विविध-जगत् का संयमन अर्थात् नियन्त्रण कर रही है उस के विघटन में बाधक हो रही है। (ततः) उस (अमृत) दूरस्थ (षष्ठात्) छठे भुवन से (स्तोमाः) वैदिकस्तुतिमन्त्र (आयन्ति) आते हैं, और (इतः अह्नः) इस ब्राह्म दिन से (षष्ठम् अभि) छठे भुवन को लक्ष्य कर के (उद्यन्ति) उपरिस्थित वैश्वानर को पुनः पहुंच जाते हैं। अर्थात् वैदिक स्तोम ब्राह्मदिन में तो आते हैं, और ब्राह्मदिन से [ब्राह्मीरात्रि के प्रारम्भ में] वापिस चले जाते हैं। सृष्टिकाल तो ब्राह्म दिन है और प्रलय काल ब्राह्मी रात्री है।
टिप्पणी
[सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारागण अग्निरूप में चमक रहे हैं, द्यौः भी अग्निरूप में चमक रही है। द्यौः यद्यपि वैश्वानर अग्नि से चमकती है, तो भी वर्तमान निज चमक के कारण वह वैश्वानर अग्नि की प्रतिमारूप है। जैसे सूर्य के प्रकाश में न चन्द्र चमकता, न विद्युत्, न नक्षत्र-तारा चमकते, इसी प्रकार परमेश्वर की आग्नेय ज्योति के चमकते न सूर्य चमकता, न चन्द्र और तारे, न विद्युत चमकती; अग्नि [पार्थिव अग्नि] का तो कहना ही क्या, अपितु उस परमेश्वर के चमकते ही ये सब चमक रहे हैं। उसकी चमक द्वारा ही यह सब कुछ चमक१ रहा है। परमेश्वर की यह दिव्य ज्योति समाधि में भासित होती है। परन्तु युक्ति द्वारा भी परमेश्वरीय ज्योति की सत्ता बुद्धिगम्य हो सकती है। प्रलय में सर्वत्र तम ही तम होता है। परमेश्वरीय कामना से जगत् जब पैदा होता है, तो जगत् की ज्योति भी परमेश्वरीय कामना से ही प्रकट होती है। अतः परमेश्वर ज्योतिर्मय है, यह समझा जा सकता है। इस लिये परमेश्वर को "आदित्यवर्णम्" भी कहा है (यजु० ३१।१८)। अमुतः षष्ठात्= पृथिवी के ऊपर उस छठे स्थान से या लोक से। यह छठा स्थान या लोक है "सत्यलोक", "सत्यं ज्ञानमानन्दम्" रूपी ब्रह्म। यथा भूः अर्थात् पृथिवी के ऊपर "भुवः स्वः, महः, जनः, तप, तथा सत्यम् है"। इस सत्य लोक से "स्तोमाः" अर्थात् परमेश्वर की स्तुति करने वाले वेद मन्त्र "आयन्ति" [सृष्टि-रचनाकाल में] आते हैं। यह रचनाकाल ब्राह्मदिन है। तथा प्रलयकाल में सत्यलोकरूपी ब्रह्म में वापिस चले जाते हैं। प्रलय काल ब्राह्मी-रात्री है, जिसमें कि स्तुतिमन्त्र “उद्यन्ति"]। [१. न तत्र सूर्यो भांति न चन्द्रतारकम्। नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥ (कठोपनिषद्)]
इंग्लिश (4)
Subject
Virat Brahma
Meaning
The Heaven above is a Pratima, existential symbol, of Vaishvanara, cosmic Spirit that watches and loves the world of humanity while Agni, terrestrial fire presence of Divinity, pervades the earth and separates and holds both earth and sky (in the form of Vayu). From that level of light and truth, the sixth above the terrestrial, come all hymns of Divinity and, at the end of the cosmic day, go back to the same sixth from here.
Translation
The sky above is the image of vaisvinara (the benefactor of all men) so far as the Agni (the fire) forces (keeps). the heaven and the earth: apart. From there, the yonder sixth (firmament), the Stomas (praise verses) come. From here they go upwards on the sixth day. (sastham ahnah)
Translation
Whatever part of the space of the complete zodiacal circle is crossed by the Agi to separate the earth and heaven, thence, from the sixth month, for the duration of six months, the day is shortened and in other six months the day is lengthened.
Translation
God’s extent is as vast as the sky above us. The Refulgent God pervades the Heaven and Earth. From that Omnipresent God come the souls, and go back from here to the same All-pervading Deity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(वैश्वानरस्य) अ० १।१०।१४। सर्वनरहितस्य (प्रतिमा) अ० ३।१०।३। आकृतिवत् (उपरि) सर्वोपरि विराजमानस्य (द्यौः) आकाशः (यावत्) यत्परिमाणम् (रोदसी) अ० ४।१।४। द्यावापृथिव्यौ (विबबाधे) पृथग् रुरुधे (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (ततः) तस्मात् कारणात् (षष्ठात्) म० ४। पञ्चभूतापेक्षया षष्ठात्परमेश्वरात् (अमुतः) पूर्वोक्तात् (आयन्ति) आगच्छन्ति (स्तोमाः) स्तुत्यगुणाः (उद्यन्ति) उद्गच्छन्ति (इतः) अस्माल्लोकात् (अभि) प्रति (षष्ठम्) ब्रह्म (अह्नः) दिनस्य। प्रकाशस्य ॥
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