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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 16
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कश्यपः, समस्तार्षच्छन्दांसि, ऋषिगणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त
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    षड्जाता भू॒ता प्र॑थम॒जर्तस्य॒ षडु॒ सामा॑नि षड॒हं व॑हन्ति। ष॑ड्यो॒गं सीर॒मनु॒ साम॑साम॒ षडा॑हु॒र्द्यावा॑पृथि॒वीः षडु॒र्वीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    षट् । जा॒ता । भू॒ता । प्र॒थ॒म॒ऽजा । ऋ॒तस्य॑ । षट् । ऊं॒ इति॑ । सामा॑नि । ष॒ट्ऽअ॒हम् । व॒ह॒न्ति॒ । ष॒ट्ऽयो॒गम् । सीर॑म् । अनु॑ । साम॑ऽसाम । षट् । आ॒हु॒: । द्यावा॑पृथि॒वी: । षट् । उ॒र्वी: ॥९.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    षड्जाता भूता प्रथमजर्तस्य षडु सामानि षडहं वहन्ति। षड्योगं सीरमनु सामसाम षडाहुर्द्यावापृथिवीः षडुर्वीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    षट् । जाता । भूता । प्रथमऽजा । ऋतस्य । षट् । ऊं इति । सामानि । षट्ऽअहम् । वहन्ति । षट्ऽयोगम् । सीरम् । अनु । सामऽसाम । षट् । आहु: । द्यावापृथिवी: । षट् । उर्वी: ॥९.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऋतस्य) सत्यस्वरूप परमेश्वर के [सामर्थ्य, से] (प्रथमजा) विस्तार के साथ [वा पहिले] उत्पन्न (षट् भूता) छह इन्द्रियाँ [स्थूल त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक और मन] (जाता) प्रकट हुईं, (षट् उ) छह ही (सामानि) कर्म समाप्त करनेवाली [इन्द्रियाँ] (षडहम्) छह [इन्द्रियों] से व्याप्तिवाले [देह] को (वहन्ति) ले चलती हैं। (षड्योगम्) छह [स्पर्श, दृष्टि, श्रुति, रसना, घ्राण और मनन सूक्ष्म शक्तियों] से संयोगवाले (सीरम् अनु) बन्धन के साथ-साथ (सामसाम) प्रत्येक कर्म समाप्त करनेवाली [स्थूल इन्द्रिय है], [लोग] (षट् षट्) छह-छह [स्थूल इन्द्रियों और उनकी सूक्ष्म शक्तियों से सम्बन्धवाले] (उर्वीः) विस्तृत (द्यावापृथिवीः) प्रकाशमान और अप्रकाशमान लोकों को (आहुः) बताते हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    विद्वानों ने निश्चय किया है कि परमेश्वर के सामर्थ्य से स्थूल इन्द्रियाँ और उनकी सूक्ष्म शक्तियाँ उत्पन्न हुईं और उनके ही आश्रित संसार के सब पदार्थ हैं ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(षट्) षट्संख्याकानि (जाता) प्रादुर्भूतानि (भूता) म० ७। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनांसि स्थूलेन्द्रियाणि (प्रथमजा) प्रथेरमच्। उ० ५।६८। प्रथ प्रख्याने विस्तारे च-अमच्। विस्तारेण, आदौ वा जातानि (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य परमात्मनः, सामर्थ्यात् इति शेषः (षट्) षट्संख्याकानीन्द्रियाणि (उ) एव (सामानि) म० ४। कर्मसमापकानीन्द्रियाणि (षडहम्) अह व्याप्तौ-घञर्थे क। षडिन्द्रियैः सह व्यापकं देहम् (वहन्ति) गमयन्ति (षड्योगम्) षडिन्द्रियाणां सूक्ष्मशक्तियुक्तम् (सीरम्) शुसिचिमीनां दीर्घश्च। उ० २।२५। षिञ् बन्धने-क्रन्, बन्धम् (अनु) अनुसृत्य (सामसाम) म० ४। प्रत्येक कर्मसमापकेन्द्रियम् (षट्) षट्स्थूलेन्द्रियसंबद्धाः (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (द्यावापृथिवीः) प्रकाशमानाप्रकाशमानलोकान् (षट्) षडिन्द्रियाणां सूक्ष्मसामर्थ्ययुक्ताः (उर्वीः) विस्तृताः ॥

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    विषय

    षड्

    पदार्थ

    १. (षट्) = छह (भूता) = [भू प्रासौं] ज्ञान प्राप्त करानेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा छठा मन (जाता) = प्रादुर्भूत हुए। ये छह (ऋतस्य) = ऋत के (प्रथमजा) = प्रथम प्रादुर्भाव है। प्रभु से ऋत का प्रादुर्भाव हुआ, ऋत से इन छह का प्रादुर्भाव हुआ अथवा प्रभु सत्यज्ञान का प्रथम प्रादुर्भाव करनेवाले हैं-सत्यज्ञान देनेवाले हैं। (उ) = और (षट्) = पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा छठा मन (सामानि) =  [षोऽन्तकर्मणि] किसी भी वस्तु को समाप्ति तक ले-जानेवाले हैं, अर्थात् क्रियाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। ये ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ तथा मन (षट् अहम्) = [अह व्याप्तौ] इन छह में व्यासिवाले प्रभु को (वहन्ति) = प्राप्त कराती हैं। जिस समय बुद्धि के साथ ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन के साथ कर्मेन्द्रियाँ स्थिर हो जाती हैं तब ये प्रभु को प्राप्त कराती हैं, उसी को 'परमा गति' कहते हैं। २. [सेरे होतद् यत् सीरम्। इरामेवास्मिन्नेतद् दधाति' श०७।२।२।२] (सीरम्) = यह शरीर जब (षट् योगम्) = इन छह के योग-[वृत्तिनिरोध]-वाला हो जाता है, तब (अनु सामसाम) = उस समय शान्ति-ही-शान्ति होती है। जब ये विषयों में भटकते हैं तभी अशान्ति का कारण बनते है। वृत्ति के शान्त होने पर (द्यावापृथिवी:) = ये धुलोक व पृथिवीलोक (षट् आहुः) = उस पाँच भूतों के अधिष्ठाता छठे प्रभु को कहते हैं-उसकी महिमा का प्रतिपादन करते हैं। (उर्विः) = ये विशाल लोक-लोकान्तर (षट्) = उस छठे प्रभु को ही कहते हैं-प्रभु की ही महिमा को दिखाते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ने पाँच ज्ञानेन्द्रियों व बुद्धि को जन्म दिया, जिससे हम सत्यज्ञान प्राप्त कर सकें। प्रभु ने ही पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन को प्राप्त कराया, जिससे हम कर्मों को पूर्ण कर सकें। ये सब हमें उस प्रभु को प्राप्त करानेवाले होते हैं। जब ये विषयों में नहीं भटकते, तभी शान्ति होती है। उस समय ये द्यावापृथिवी तथा अन्य लोक-लोकान्तर प्रभु की महिमा को ही दिखाते हैं।

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    भाषार्थ

    (ऋतस्य) नियम सम्बन्धी अर्थात् नियम के अनुसार (प्रथमजा१ = प्रथमजानि) प्रथमोत्पन्न होने वाले (षट्)(भूता = भूतानि) सत्तासम्पन्न तत्त्व (जाता = जातानि) उत्पन्न हुए। (षट् उ) ६ ही (सामानि) साम (षडहम्) ६ दिनों में सम्पाद्य यज्ञ का (वहन्ति) वहन करते हैं, सम्पादन करते हैं। (षड्योगम्) ६ [बैलों] के योगवाले हल द्वारा किये (सीरम्) कृषिकर्म के (अनु) अनुरूप (सामसाम) प्रत्येक योग के साथ एक-एक साम होता है। (षट्)(द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी हैं (आहुः) ऐसा कहते हैं और (षट् उर्वीः) ६ विस्तृत दिशाएं हैं।

    टिप्पणी

    [यह नियम है कि प्रत्येक प्रलय के अनन्तर पुनः सृष्टि होती है। इस नियम के अनुसार प्रारम्भ में ६ सत्तासम्पन्न तत्व उत्पन्न हुए। (१) साम्यावस्था वाली प्रकृति का विषमावस्था में होना। (२) आकाश। (३) वायु। (४) अग्नि। (५) आपः। (६) पृथिवी। ये ६ तत्व ब्रह्माण्ड के सर्जनारम्भ में पैदा हुए। "६ साम हैं" - बृहत्, रथन्तर, यज्ञायज्ञिय, वामदेव्य, वैरूप, वैराज (अथर्व० १५।४।३, ५, ८, ११) इन ६ सामों के अतिरिक्त श्यैत और नौधस सामों का भी वर्णन अथर्ववेद में हुआ है। "षडहम्" है षड्रात्रयज्ञ (अथर्व० ११।९।१९)। "सीरम्" सीर का अर्थ है हल, जिस द्वारा खेत जोता जाता है। हल के साथ ६ बैलों को जोतना हास्यास्पद है। गीता के अनुसार (१३।१-३) शरीर है क्षेत्र और आत्मा है क्षेत्रज्ञ, शरीरक्षेत्र का स्वामी। आत्मा शरीर क्षेत्र में हल जोतकर और इसे तयार कर, सत्कर्मरूपी बीज बोता है। यह है आध्यात्मिक कृषिकर्म। इस कर्म में सहायक ६ हैं, ५ ज्ञानेन्द्रियां और १ यम। ये ही ६ बैल हैं, जोकि बुद्धिरूपी हल के आगे जुते हुए हैं। इस आध्यात्मिक कृषिकर्म की सफलता के लिये जीवन में भक्ति भरे ६ सामगान भी होने चाहिये, ज्ञानेन्द्रियों और १मन की शुद्धि के लिये। इन ६ की शुद्धि हो जाने से कर्मेन्द्रियां स्वतः शुद्ध हो जाती हैं, क्योंकि ज्ञानानुरूप ही कर्म होते हैं। 'द्यावापृथिवी' — त्रिविधा है द्यौः और त्रिविधा है पृथिवी। द्यौः त्रिविधा है, दृश्यमाना द्यौः, स्वः, नाकः। "येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा, येन स्वः स्तभितं येन नाकः" (यजु० ३२।६) में “उग्रा द्यौः, स्वः, नाकः"२ द्वारा द्युलोक का त्रैविध्य प्रदर्शित किया है। "नाकः" में योगसिद्ध साध्य देवों की स्थिति भी वेदानुमत है (यजु० ३१।१६)। पृथिवी भी त्रिविधा है, समुद्र, समतल तथा पर्वत। अथवा पृथिवी का ऊपर का पार्थिव स्तर इस के नीचे जलीय स्तर, जिस की सूचना कूपजलों तथा चश्मों द्वारा ज्ञात होती है, तथा इसके भी नीचे आग्नेयस्तर, जिसकी सूचना ज्वालामुखी पर्वतों तथा गर्मचश्मों द्वारा मिलती है। इस प्रकार द्यौः और पृथिवी मिलकर षट् हैं। षट् उर्वीः = ६ विस्तृत दिशाएं, पूर्व, दक्षिण पश्चिम, उत्तर, ध्रुवा तथा ऊर्ध्वा।] [१. पदपाठ में जाता। भूता। प्रथमजा - ऐसे पाठ हैं, जोकि नपुंसकलिङ्गी प्रतीत होते हैं। अतः भूता=भूतानि। जाता=जातानि। प्रथमजा=प्रथमजातानि। २. "स्वः नाकः" = निरुक्त में इन पदों की व्याख्या निम्न प्रकार हुई है। स्वः आदित्यो भवति, एतेन द्यौव्यख्याता। नाक आदित्यो भवति, अथ द्यौः। कमिति सुखनाम, तत्प्रतिषिद्धं प्रतिषिध्येत। "न वा अमु लोकं जामुषे किं च नाकम्" (काठक सं० २१।२; तथा निरक्त २।४।१४)। त्रिष्टुबादित्यो भवति, आविष्टो भासेति। अथ द्यौराविष्टा ज्योतिभिः पुण्यकृद्भिश्च (निरुक्त २।४।१४)। इन उद्धरणों के अनुसार "अमुं लोकं जामुषे" द्वारा द्यौः में गए को "न अकम्" पदों द्वारा सुखाभाव का अभाव दर्शाया है, अर्थात् सुख विशेष की सत्ता दर्शाई है। तथा यह भी दर्शाया है कि द्यौः में पुण्यकर्माओं का निवास है। इस से स्वः और नाक: स्थान विशेष प्रतीत होते हैं जोकि द्यौः के अङ्गरूप हैं। परन्तु महर्षि दयानन्द का विचार "येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभित येन नाकः। यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः" (यजु० ३२।६) द्वारा भिन्न प्रकार का प्रतीत होता है। विचार यह कि लोक तो तीन हैं, द्यौः पृथिवी, अन्तरिक्ष। अतः स्वः और नाक पद किसी स्थान विशेष का निर्देश नहीं करते, अपितु ये दो पद "स्वः = सुख को, और नाकः= सब दुखों से रहित मोक्ष को" [सूचित करते हैं] महर्षि दयानन्द का विचार इसलिये भी ठीक प्रतीत होता है कि "स्वः" और "स्वर्ग" में भेद तो होना ही चाहिये। स्वर्ग का अर्थ है "स्वः गम्यते यत्र सः स्वर्गः"। अतः "स्वः" का अर्थ सुख है, यह वस्तुतः यथार्थ है। "स्वर्ग" शब्द स्थानवाची है, न कि 'स्वः' शब्द।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat Brahma

    Meaning

    of Rtam from Prakrti: Prakrti, Mahat, Ahankara, subtle elements and mind and senses, gross elements, and Purusha. These six stages of cosmic evolution are the six-day yajna of creation. Six are the Samans: Brhat, Rathantara, Yajna-yajniya, Vamadevya, Vairupa, and Vairaja which carry the six-day yajna session. Six human faculties of perception and mind and six Samans correspond in life. And it is said there are six wide spaces and six heaven-and-earth complexes: Bhu, Bhuva, Sva, Maha, Jana, Tapa upto satyam.

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    Translation

    Six are the beings (Sadyogam) born, (that are) the first born of the eternal law. Six are the Samans; they carry the six-day (sacrifice). The six-yoked plough is named after each of the Samans. They say, six are the heavenand- earths. Six are the vast spaces.

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    Translation

    The six elements (earth, air, fire, water ether and subtle element), born first in the order by the power of God and six samans carry the world which is the modification of the six elements. The world is the effect of these six elements and it is combined with integrating force and unity accompanied by uniformity. The vast heavenly region and earth are also engrossed with these six elements.

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    Translation

    Six entities, were created in the beginning through the power of God. Those six with their united strength sustain the universe. Breath alone helps the body yoked with six breaths. Hence the learned the learned call the Earth and Heaven sixfold, and the vast Earth sixfold.

    Footnote

    Five senses: Hearing, Touch, Sight, Taste, Smell. Five elements: Earth, Water, Fire, Air, Atmosphere. Five breaths: Prana, Apana, Vyana, Udana, Samana. Here mind is spoken as a cow. Five organs of cognition: Five Jnana Indriya i.e., Eye, Ear, Nose, Tongue, Skin. Five directions: North, South, East, West, Zenith. Soul is spoken of as Panchdash possessing the fifteenfold qualities of Prana, Apana, Vyana, Udana, Samana, hearing, touch, sight, taste, smell, earth, water, fire, air and atmosphere.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(षट्) षट्संख्याकानि (जाता) प्रादुर्भूतानि (भूता) म० ७। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनांसि स्थूलेन्द्रियाणि (प्रथमजा) प्रथेरमच्। उ० ५।६८। प्रथ प्रख्याने विस्तारे च-अमच्। विस्तारेण, आदौ वा जातानि (ऋतस्य) सत्यस्वरूपस्य परमात्मनः, सामर्थ्यात् इति शेषः (षट्) षट्संख्याकानीन्द्रियाणि (उ) एव (सामानि) म० ४। कर्मसमापकानीन्द्रियाणि (षडहम्) अह व्याप्तौ-घञर्थे क। षडिन्द्रियैः सह व्यापकं देहम् (वहन्ति) गमयन्ति (षड्योगम्) षडिन्द्रियाणां सूक्ष्मशक्तियुक्तम् (सीरम्) शुसिचिमीनां दीर्घश्च। उ० २।२५। षिञ् बन्धने-क्रन्, बन्धम् (अनु) अनुसृत्य (सामसाम) म० ४। प्रत्येक कर्मसमापकेन्द्रियम् (षट्) षट्स्थूलेन्द्रियसंबद्धाः (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (द्यावापृथिवीः) प्रकाशमानाप्रकाशमानलोकान् (षट्) षडिन्द्रियाणां सूक्ष्मसामर्थ्ययुक्ताः (उर्वीः) विस्तृताः ॥

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